ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

जैन धर्म में दान- दान के भेद

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दान के भेद :

आगम में दान के भेदों की व्याख्या करते हुए सामान्यत: आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया गया है।
स्व और पर के कल्याण हेतु जो अपनी वस्तु का त्याग किया जाता है वह दान हैं! दान चार प्रकार का है! 
1-आहार दान- चतुरसंघ में से मुनि,आर्यिका,श्रावक,श्राविका,किसी सुपात्र के आहार बेला १०-१०.४५ प्रात:स्वयं आने पर अपने लिए बनाये गए शुद्ध भोजन में से आहार देना,आहार दान है!
2-ज्ञान दान-पात्र को ज्ञान के उपकरण ज्ञान की वृद्धि हेतु शास्त्र देना ज्ञान दान है !
3-औषधिदान -पात्र,व्रती,धर्मात्मा,अस्वस्थ हो तो उनका शुद्ध दवाई और शुद्ध विधि से इलाज़ कवाकर उनके रोग दूर करने का प्रयत्न करना औषधि दान है! 
4-अभय दान- जीव मात्र की रक्षा का ध्यान रखना अथवा व्रती साधू आदि के ठहरने के योग्य धर्मशाला आदि का निर्माण कराना,अभय दान कहलाता है जिससे वे अपनी साधना सानंद संपन्न कर सके!हमें चारो दान यथा शक्ति देने चाहिए!

चारों दान में सर्वश्रेष्ठ दान- चारों दानों की उपयोगिता अपनी अपनी जगह बराबर है क्योकि यदि आहार दान व्रती,मुनि,आर्यिकामाताजी, क्षुल्लक,ऐलक महाराज आदि को नहीं दिया जाए तब उनका जीवन कैसे चलेगा,वे अपनी साधना भी नहीं कर पायेगे! इसीलिए शरीर रक्षा व साधना के हेतु आहार दान मुख्य है! यदि ज्ञानदान के साधन शास्त्र आदि नहीं प्रदान करे तो उन्हें ज्ञान कैसे प्राप्त होगा,इसलिए ज्ञान दान भी मुख्य है! शरीर अस्वस्थ है तो उस शरीर से धर्म पालन/साधना बनता नहीं इसलिए औषधिदान भी मुख्य है! साधू आदि के निवास के लिए धर्मशाला आदि का निर्माण नहीं करे तो वे साधु आकर कहा ठहरेंगे और वह कहा अपनी निर्विघ्न साधना करेंगे ,इसलिए अभय दान भी आवश्यक है!इसीलिये चारों दान आवश्यक है! दूसरी दृष्टि से विचार करने पर, आहार दान पात्र के शरीर के लिए अधिकतम २४ घंटे तक के लिए उपयोगी है, इसके बाद पुन: आहार की आवश्यकता पात्र को होती है! औषधि दान मात्र उस समय तक उपयोगी है जब तक रोग का निवारण नहीं हो जाता उसके बाद औषधि दान का महत्त्व भी समाप्त हो जाता है! अभयदान केवल उस समय तक उपयोगी है जब तक पात्र उस धर्मशाला में ठहरकर अपनी साधना करते है! किन्तु ज्ञानदान, में दान किये गए शास्त्रों द्वारा अर्जित ज्ञान पात्र के जन्मो -जन्मो तक साथ रहता है, उसके आत्मकल्याण में वह सहकारी होता है इस अपेक्षा से ज्ञानदान सर्वोत्तम दान है!
आचार्यों ने तो कहा है की यदि कोई किसी को णमोकार मन्त्र भी सिखाता है तो वह इसके फलस्वरूप शास्त्रों का महान ज्ञाता बनता है!इसलिए आत्म कल्याण की अपेक्षा ज्ञानदान प्रमुखत्तम है!
सुपात्रों-मुनि के अभाव में श्रावक के छ: आवश्यकों में आहारदान कैसे हो सकता है-
संतों का समागम में यदा कदा मिलता है!आचार्यों ने आहारदान की एक विधि और लिखी है !जब भी भोजन करने के लिए बैठे,भोजन लेने से पूर्व भावना करे कि" मेरी भावना है की इस मध्य लोक में समस्त आचार्य,उपाध्याय,साधु परमेष्ठी,आर्यिका माताए, एलक, क्षुल्लक,प्रतिमाधारीयों का निरन्तराय आहार हो,मै किसी को आज आहार नहीं दे पाया इसलिए उनके आहार की भावना करता हूँ !"श्रावक का इतनी भावना बहाने से आहार दान वाला आवश्यक पूरा हो जाता है!यदि हम यह भी नहीं कर पाए तो मंदिर जी की गुल्लक में संकल्प पूर्वक कुछ रूपये अवश्य डालने चाहिए क्योकि वह भी त्याग हुआ और दान में आ गया! दान नित्य प्रति इस प्रकार भी हो सकता है!
सुपात्र को आहारदान देने से सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है! ज्ञान दान देने से इस जन्म और अगले जन्म में महान ज्ञान प्राप्त होता है! औषधिदान से निरोग शरीर की प्राप्ति होती है! अभयदान देने से चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति होती है! मिथ्यादृष्टि जीव को सुपात्र को दान देने से भोग भूमि का सुख मिलता है!भोग भूमिया जीवों को आजीविका के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता! क्योकि वहां कल्प वृक्षों के द्वारा समस्त सामग्री उपलब्ध होती है!वहां भोग ही भोग है,सुख ही सुख है!सम्यग्दृष्टि जीव सुपात्र को दान देता है तो स्वर्गों का सुख मिलता है और परम्परा से उसे मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है!
इस प्रकार सुपात्र दान पारमार्थिक और सांसारिक सुखों को देने वाला है!
कुपात्र को दान देने का फल-
कुपात्र उन्हें कहते है जिन्होंने मुनि, आर्यिका,क्षुल्लक आदि अवस्था तो धारण करी है किन्तु उनका आचरण तदनुसार यथायोग्य नहीं है! जिन गुणों का उन्हें पालन करना चाहिए उनका वे पालन नहीं करते, इस कारण सम्यग्दर्शन,सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र से रहित साधुगन जिनके पास वेष है वे कुपात्र कहलाते है !ऐसे कुपात्रों को दान देने से हमें कुभोग भूमि मिलती है!
अपात्र को दान देने का फल-
जिनमे जैन धर्म के संस्कार नहीं है,जो चारित्र आदि का रंच मात्र भी पालन नहीं करते है,वे अपात्र कहलाते है!आचार्यों ने लिखा है की जैसे बंजर भूमि में बीज बोने पर वह नहीं फलता,बीज नष्ट हो जाता है,इसी प्रकार ऐसे पात्रों को दान देने से कोई फल नहीं मिलता!वह दान देना व्यर्थ है!
दान के फल में विशेषता कैसे आती है-
तत्वार्थ सूत्र है जिसका अर्थ है की विधि, द्रव्य, दाता और पात्र के कारण दान के फल में विशेषता आती है
विधि- महाराज को पद्गाहन करने के बाद बड़े भक्ति भाव से उनके चरणों को धोकर पूजा करी और भक्ति भाव से उन्हें आहार दिया! नवधाभक्ति,पूर्ण भक्ति भाव से संपन्न करी ,इससे जितना आनंद दाता को आएगा उतना अधिक दान का फल उसे मिलेगा!
द्रव्य-द्रव्य की विशेषता स्थान,मौसम,द्रव्य ,क्षेत्र ,काल के अनुसार कौन सा द्रव्य देने योग्य है ,कौन सा द्रव्य देने योग्य नहीं है इनका ज्ञानदाता अच्छी तरह विवेकपूर्ण द्रव्य महाराज के स्वस्थ,उम्रर के अनुकूल द्रव्य देता है उसके दिए हुए दान के फल में विशेषता होती है!
जो दाता विवेकशील,ज्ञानी,समझदार,संतोषी,लुप्तता रहित,,फलों की इच्छा रहित दाता विशेष दाता माना जाता है! सम्यग्दृष्टि दाता को दान का फल और भी अच्छा मिलता है
पात्र की विशेषता से भी दान में विशेषता होती है-ज नहीं आये,
जैसे आहार तो लगाया किन्य्तु आहार लेने भाग्यवश क्षुल्लक जी आये मुनि महाराज नहीं आये,तो प्रसन्नता हमें अपेक्षकृत कम हुई तो फल कम मिलेगा चतिर्थ काल में यदि कोई रिद्धि धसरी मुनि महाराज आहार के लिए पधारे तो और अधिक दान का फल मिलेगा!यदि तीर्थंकर देव ही पडगाहन पर आ जाए तब तो बात ही क्या है! इसलिए जैसा पात्र पुन्य के उदय से आये वैसा ही फल दान का मिलता है!
इस प्रका दान का फल, पात्र के उच्चता, उत्साह, नवधा आदि के अनुसार दाता को हीन या अधिक मिलता हैं !
दान देते समय ध्यान रखने योग्य बाते-
१-दान वानच्छा रहित होना चाहिए! यश प्राप्ति की भावना,स्वर्ग ,भोग भूमि ,की प्राप्ति की इच्छा से दान नहीं देना चाहिए!
२-अन्य दाताओं के प्रति ईर्षा भाव नहीं होना चाहिए!जैसे मै मुख्या हूँ मेरे घर तो बड़े बड़े मुनिमहाराज आते है अन्य के घर तो कोई भी नहीं आता! या बड़ा दान दाता होने के कारण मद का भाव नहीं आना चाहिए! अथवा अपने घर छोटे महाराज आये और अन्यों के बड़े महाराज,तब भी उनसे ईर्षा भाव नहीं रखे!
३-मकर संक्रांति के अवसर पर दान नहीं दे! क्योकि दान देने से लोक्मूढ़ता कहलाती है!
४- चन्द्र ग्रहण अथवा सूर्य ग्रहण के अवसर पर भी हमारा दान देने का कर्तव्य नहीं है!
दाता को क्यों?,किसको?,कब दान दूँ?क्यों दान नहीं दूँ? का विवेक होना आवश्यक है!
दान सदैव सदुपयोग के लिए देना चाहिए दुरोपयोग के लिए नहीं, अज्ञानतावश दिया हुआ दान भी व्यर्थ होता है पाप बंध का कारण होता है!
किसी गरीब को दवाई अथवा छात्र को पुस्तकों के लिए रूपये देना दान है या नहीं!
आचार्यों ने करुणादान इन पात्र दानों से अलग आचार्यों ने लिखा है! करुणा दान का अर्थ है किसी को दुखी देख कर उसके दुःख को दूर करने के लिए जो अपनी वस्तु दी जाती है उसे करुणादान कहते है! आचार्यों ने लिखा है की यदि दूसरे के दुखों को देख कर आपको करुणा नहीं आती तो आप मिथ्यादृष्टि है!,सम्यग्दृष्टि नहीं!करुणा अवश्य आनी चाहिए और यथा शक्ति दान भी देना चाहिए!जैसे जो बच्चे पड़ने में आर्थिक दृष्टि से संपन्न नहीं है ,उन्हें छात्र वृत्ति,पुस्तके आदि देना! जरूरतमंदों को सर्दी में रजाई कम्बल दवाई इलाज़ के लिए देने चाहिए! गर्मियों में पीयाऊ लगवाने चाहिए! अस्पताल,खुलवाने चाहिए,पशु-पक्षी के इलाज़ के लिए अस्पताल खुलवाने चाहिए! इस प्रकार की व्यवस्थाये करुणादान में आती है! इनसे भी पुन्य का बंध होता है तथा इनसे भी सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है!
आय का कितना भाग दान में देना चाहिए-
श्रावकचरों में स्पष्ट लिखा है की हमें अपनी आय का ,बचत का नहीं,(जैसे २००००/- वेतन मिलकर १५-१६००० माह में खर्च हो जाते है बचते ४००० है!यहाँ आय २०००० का २५%,१६.३३ %या १०% ) दान देना है (न की ४००० का २५%,१६.३३ % अथवा १०%)!एक साद गृहस्थ को अपनी आय का २५% दान देता है तो उत्तम दाता है,२०% दान देता है तो माध्यम दाता है और १०% दान देता है तो जघन्य दाता है इससे कम देता है तो वह दाता है ही नहीं!
स्त्रियों की कोई आय होती नहीं वे दान कैसे कर सकती है-
स्त्रियों की अपनी बचत का रुपया होता है,वे उसमे से दान देती है !इससे उन्हें विशेष मोह के त्याग का फल मिलता है! वे अपने पति से यह भी कह सकती है की यहाँ मंदिर बन रहा है उसमे २०-२५ हज़ार रूपये दान में दे दीजिये!या पति कही दान का फल उन्हें मिल जाता है!दान दे रहे हो और उसकी अनुमोदन हर्षित हो कर करे तब भी उन्हें दान का फल मिलता है!
शिक्षा-दान दिल खोल कर प्रसन्नता पूर्वक मुक्त हाथों से देना चाहिए! जिससे हमारे आवश्यक कर्म की पूर्ती हो!किसी के अनुरोध पर दान देना अच्छी बात नहीं है! स्वयं दान स्वेच्छा से देना चाहिए!दान के राशी तुरंत देनी चाहिए उधार नहीं रखनी चाहिए!अपनी दान की प्रवृत्ति बड़ा कर प्रयास करे की आपका दान उत्तम पात्रों में,माध्यम पत्रों,जघन्य पात्रों में लगे !कुपात्र और अपात्र की बात हम नहीं करे!,अर्थात उनमे नहीं लगे!यदि हमारे घर मुनिराज नहीं आते तो जहाँ वे है वहां जाकर हम आहार दे सकते है!

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर दन का विशलेषण आगम के अनुसार किया गया है।

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