ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

जरा कर्म सोच कर करिये- अठारह पापस्थान

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【 पाप 】
नो (9) तत्त्वों में एक तत्त्व है पाप। जीव की अशुभ क्रियाएँ पाप कहलाती हैं। जीव सामान्यत: पाप तो कर लेता है, किन्तु पाप के परिणाम से सदा दु:खी व भयभीत रहता है। पापजन्य क्रियाएँ आत्मा को कलुषित तो करती ही हैं। मोक्ष मार्ग से भी दूर रखती हैं, पाप क्रियाएँ और उनके पापमयी परिणाम परस्पर कारण - कार्यरूप हैं। पापजन्य क्रियाएँ भावात्मक भी हो सकती हैं और द्रव्यात्मक भी हो सकती हैं। भावात्मक क्रिया में मन से पाप क्रियाएँ होती रहती हैं और द्रव्यात्मक में मन के साथ - साथ वचन व काय की भी पापमयी प्रवृत्ति बनी रहती है। पाप तत्त्व को हेय माना गया है। अत : यह त्यागने योग्य है| जैनागम में पापजन्य क्रियाओं के अठारह मुख्य कारण बताए गए हैं। इन कारणों को पापस्थान भी कहते हैं। अठारह पापस्थान इस प्रकार से हैं।
1. प्राणातिपात - जीव के दस प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्रकार के प्राण का घात करना।
2. मृषावाद - असत्य वचन बोलना, वचन की मर्यादा को भंग करना।
3. अदत्तादान - चोरी करना, मालिक की आज्ञा के बिना वस्तु को उठाकर प्रयोग करना।
4. मैथुन - मैथुन का सेवन करना। स्त्री - पुरूष सम्बन्धी इन्द्रिय विषय सुख भोगना।
5. परिग्रह - सांसारिक पदार्थों का संग्रह करना, उनमें आसक्ति रखना।
6. क्रोध - पदार्थों के प्रति द्वेष भाव रखकर क्रोध करना।
7. मान - द्वेषवश मान, अभिमान या घमण्ड कर पापकर्म का बंध बाँधना।
8. माया - कपट या छल का प्रयोग करना। जैसे- बगुला पानी में एक पैर पर चुपचाप खड़ा होकर मछलियाँ पकड़ता है। सीधा खड़ा हुआ वह बहुत ही भला लगता है, परन्तु उसके मन में कपट भरा रहता है।
9. लोभ - लोभ, लालच करना तथा तृष्णा के वशीभूत होकर पापकर्म का बंध बाँधना।
10. राग - सांसारिक पदार्थों पर राग - आसक्ति या मोह करते हुये पापकर्म का बंध बाँधना।
11. द्वेष - पदार्थों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि दूषित भावनाओं को पैदा कर पापकर्म का बंध बाँधना।
12. कलह - क्लेश - कलह, लड़ाई - झगड़ा करने की प्रवृत्ति, जिसके कारण इस पापकर्म का बंध बाँधना है।
13. अभ्याख्यान - अज्ञानता या मोहवश दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करना।
14. पैशुन्य - दूसरों की चुगली करना।
15. पर-परिवाद - पर-निंदा करना।
16. रति - अरति - भोगों में प्रीति - रूचि और संयम में अप्रीति - अरूचि रखना।
17. माया मृषा - छल - कपटपूर्वक झूठ बोलना, झूठ अभिलेख तैयार कराना।
18. मिथ्यादर्शन शल्य – मिथ्यात्व को प्रश्रय देना, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के प्रति विपरीत श्रध्दान रखना, अधर्म को धर्म मानना। कुगुरू को सुगुरू मानना, दुर्व्यसनों में सुख मानना।
इस प्रकार ये अठारह पापस्थान संसारी जीवों को यह दर्शाते हैं कि इन क्रियाओं को करने से पापकर्म का बंध बाँधता है। अत: इन क्रियाओं से मुक्त रहकर धर्ममय क्रियाओं को करते हुए मोक्ष की ओर सतत प्रयत्नशील रहना ही जीवन की सार्थकता है।
जरा कर्म सोच कर करिये,इन कर्मो की बड़ी बुरी मार है। नही बचा सकेगा परमात्मा फिर औरों का क्या ऐतबार है।
बारह घड़ी तक बैल को बांधा ,छींका लगा दिया खाने का। बारह महीने तक आहार ना मिला, ऋषभ प्रभु को खाने का। इस युग प्रथम अवतार है,बिना भोग्ये ना छुटे ला रहै है । नही बचा सकेगा परमात्मा फिर औरो का क्या ऐतबार है।1।
त्रिपुष्ठ वासुदेव के भव मे,,दास मे कानो में शीशा डाला। कर्म निकाचित बांधा वीर ने, तीर्थंकर थे पर न टला। खड़े ध्यान से वन मे मझार हैं, दिये कानो मे खीले डार है। नही बचा सकेगा परमात्मा फिर औरो का क्या एतबार है।2।
सौतेली मां बन सोत के सर सुत, बटिया चढाकर प्राण हरा। निन्नानवे लाख भवो के बाद मे, गज सकुमाल बन कर्ज भरा। चढा सौमिल को क्रोध अपार है,सर पे डाले धधकते अगांर है । नही बचा सके परमात्मा फिर,औरों का क्या ऐतबार है।3।
किसी को लुटे किसी को मारे, काम करे अन्यायी का। जैसा करेगा वैसा भरेगा,लेखा है राई राई का । नही छोटे बड़े की दरकार है,चाहे करले जतन हजार है। नही बचा सकेगा परमात्मा ,फिर औरो का क्या ऐतबार हैं।4।।
पग पग पर सयंम कर तू,वचन बोल तू भलाई का। धर्म से प्रितकर कर्मो को जीतकर, जा पंथी शिवराही का। ये सुख दु:ख भरा संसार है,यहा कर्मो व्यापार है। नही बचा सकेगा परमात्मा, फिर औरो का क्या ऐतबार है।5।।
जरा कर्म देखकर करिये,इन कर्मो की बड़ी बुरी मार है। नही बचा सकेगा परमात्मा फिर औरों का क्या ऐतबार है।
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