ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

जैन धर्म में अष्ट कर्म

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जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है वह कर्म है । इस कर्म के निमित्त से ही यह जीव इस संसार में अनेकों शारीरिक, मानसिक और आगंतुक दु:खों को भोग रहा है । जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है । जीव का अस्तित्व ‘‘अहं’’-‘‘मैं’’ इस प्रतीति से जाना जाता है तथा कर्म का अस्तित्व-जगत में कोई दरिद्री है तो कोई धनवान है इत्यादि विचित्रता को प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है । इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध हैं ।सामान्य से कर्म एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं है तथा द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अपेक्षा दो प्रकार हो जाते हैं । उसमें ज्ञानावरण आदि रूप जो पुद्गल द्रव्य का पिंड है वह द्रव्य कर्म है और उस द्रव्य पिंड में जो फल देने की शक्ति है वह भाव कर्म है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुये जो अज्ञान आदि अथवा क्रोधादि रूप परिणाम हैं वे भी भावकर्म कहलाते हैं ।
इस कर्म के आठ भेद हैं अथवा इन्हीं आठों के एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी होते हैं ।
आठ कर्मों के नाम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन आठ कर्मों की मूल प्रकृतियाँ - स्वभाव हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया कहलाते हैं क्योंकि ये जीव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य आदि गुणों का घात करने वाले हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कहलाते हैं क्योंकि घातिया कर्म के नष्ट हो जाने पर ये चारों कर्म मौजूद रहते हैं फिर भी जली हुई रस्सी के समान ये जीव के गुणों का घात नहीं कर सकते हैं अर्थात् अरिहंत अवस्था में जीव के अनंतगुण प्रगट हो जाते हैं ।
कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ तथा मोह, असंयम और मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह संसार अनादि है । इस संसार में जीव का अवस्थान रखने वाला आयु कर्म है । उदय में आने वाला आयु कर्म जीवों को उन-उन गतियों में रोक कर रखता है जैसे कि हम और आप मनुष्यायु कर्म के उदय से मनुष्यगति में रुके हुए हैं । नामकर्म नारकी, तिर्यंच आदि जीव की नाना पर्यायों को, औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीरों को तथा एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता रहता है ।इंद्रियों को अपने - अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है । उसमें दु:खरूप अनुभव करना असातावेदनीय है और सुखरूप अनुभव करना सातावेदनीय है । उस सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है ।
मोहनीय कर्म के जो भेद राग-द्वेष आदि हैं उनके उदय के बल से ही यह वेदनीय कर्म घातिया कर्मों की तरह जीवों का घात करता रहता है इसीलिये इसे मोहनीय के पहले रखा है अर्थात् यह वेदनीय कर्म इंद्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में प्रीति और किसी में द्वेष का निमित्त पाकर सुख तथा दु:खस्वरूप साता और असाता का अनुभव कराता रहता है किंतु जीव को अपने शुद्ध ज्ञान आदि गुणों में उपयोग नहीं लगाने देता है, पर स्वरूप में ही लीन करता है। वास्तव में वस्तु का स्वभाव भला या बुरा नहीं है किन्तु जब तक राग-द्वेषादि रहते हैं तभी तक यह किसी वस्तु को भला और किसी को बुरा समझता रहता है। जैसे नीम का पत्ता मनुष्य को कड़ुवा लगता है किन्तु ऊँट को प्रिय लगता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहनीय कर्मरूप राग-द्वेष के निमित्त से वेदनीय का उदय होने पर ही इंद्रियों से उत्पन्न सुख तथा दु:ख का अनुभव होता है। मोहनीय के बिना वेदनीय कर्म राजा के बिना निर्बल सैन्य की तरह कुछ नहीं कर सकता है।
आत्मा के दर्शन गुण को जो ढकता है वह दर्शनावरण है, जैसे दरवाजे पर बैठा हुआ पहरेदार राजा का दर्शन नहीं होने देता है। सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है, जैसे शहद लपेटी तलवार जिह्वा पर रखने से शहद चखने का सुख और जीभ कटने का दु:ख हो जाता है। जो जीव को मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है, जैसे मदिरा पीने से जीव अपने स्वभाव को भूलकर अचेत हो जाता है। जो किसी एक पर्याय में रोके रखे वह आयु कर्म है, जैसे लोहे की साँकल या काठ का यंत्र जीव को दूसरी जगह जाने नहीं देता है। जो अनेक तरह के शरीर आदि आकार बनावे वह नामकर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है। जो जीव को ऊँच-नीच कुल में पैदा करे वह गोत्र कर्म है, जैसे कुंभकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। जो ‘अंतर एति’ दाता और पात्र में अंतर-व्यवधान करे, वह अंतराय कर्म है। जैसे भंडारी (खजांची) दूसरे को दान देने में विघ्न करता है-देने से रोक देता है उसी तरह अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग आदि में विघ्न करता है। इस प्रकार से आठ कर्मों का लक्षण और स्वभाव बतलाया गया है।
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ज्ञानवर्णी कर्म पांच प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव अज्ञान हैं, समझने में असमर्थता, मूर्खता, जड़ता, सिखाए जाने में असमर्थ, निरक्षरता स्टैमरिंग इत्यादि।
दर्शनावरणीय कर्म नौ प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव अंधापन हैं, इंद्रियों की अक्षमता, शक्ति या धन के साथ नशा, नींद, झुकाव, आदि आत्मा को ढंक सकते हैं।
मोहनीय कर्म अट्ठाईस  प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव संलग्नक, घृणा, ईर्ष्या, भयावहता, लालसा हैं। उत्साह, अवमानना, गहरी लगाव, दुःख आदि, थिस्सल दोष आत्मा को ढंकते हैं।
अंतराय कर्म पांच प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव सही रास्ते पर जाने की कोई इच्छा नहीं है; उदारता, गरीबी; ताकत की कमी; इच्छा से चिंतित होना; शुभ कार्य करने में सक्षम नहीं है।
वेदनीय कर्म दो प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव खुशी हैं; स्वास्थ्य; बीमारियों से मुक्त होना; और बीमार स्वास्थ्य; बीमारी की बीमारी, दुख आदि, भी हो सकता है।
आयुष्य  कर्म चार प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव आत्मा को जन्म, जीवन और मृत्यु के दुष्चक्र में घूमते रहते हैं।
गोत्र कर्म दो प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव अच्छे परिवार में और उच्च स्थिति में पैदा हुए हैं या कम परिवार में या कम स्थिति में पैदा हुए हैं।
नाम कर्म एक सौ तीन प्रकार का है और इस कर्म के प्रभाव अच्छी तरह से शरीर, सौंदर्य और शरीर में समरूपता, या कुरूपता, कुख्यात – अच्छा भाग्य – दुर्भाग्य – समृद्धि – विपत्ति – सम्मान – अपमान – इन दोनों द्वारा अंधेरे से खेला जाता है – इन कारकों के प्रभाव से तीर्थंकर की स्थिति भी प्राप्त हो सकती है।
1. ज्ञान और विद्वानों और प्रबुद्ध लोगों की निंदा करना। अध्ययन और शिक्षण में आलस्य, अवमानना, और नापसंद- इन चीजों से ज्ञानवर्ण्य ज्ञानवर्णी कर्म आत्मा को बांधता है।
2. धर्म और धर्म के सिद्धांतों की निंदा करना; उन्हें कमजोर करना – पुण्य का अपमान करना और उन्हें डिक्र करना – हमेशा ऐसे लोगों के साथ गलती खोजने की कोशिश करना, संदेह की भावना के साथ पवित्रता की निंदा करना। इन चीजों से, दर्शनावरणीय कर्म आत्मा को बांधता है।
3.गहरा लगाव और घृणा होने के कारण – शोक और रोना – गुस्सा होने और जुनूनों के अधीन रहने के लिए – बेवकूफ बनना; संलग्न किया जा रहा है; इन चीजों से, मोहनीय कर्म आत्मा को बांधता है।
4. परमात्मा की पूजा और आध्यात्मिक गतिविधियों में बाधा उत्पन्न करके। इस तरह के व्यर्थों और पापों में हिंसा के रूप में गिरने से – दान नहीं देकर और दूसरों को नुकसान पहुंचाकर – इन कार्यों के कारण आत्मा अंतराय कर्म  से बंधी हुई है।
5. आध्यात्मिक बुजुर्गों को सेवा प्रदान नहीं करके – तपस्या करने के लिए प्रतिज्ञा न लेने से । दूसरों को चिंता और दुख पैदा करके – अशाता वेदनीय कर्म आत्मा को बांधता है।
>> हिंसा को दूर रखकर, दूसरों को दूसरों के दुखों में साझा करके – दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संपर्क बनाए रखने के द्वारा,शाता वेदनीय कर्म आत्मा को बांधता है।
6. जो लोग पापों में हिंसा के रूप में पूरी तरह से डूब गए हैं, जो जीवन को कम करते हैं और जो लोग अच्छे कर्म करते हैं, वे जीवन समर्थन की पेशकश करते हैं, तदनुसार आयुष्य  कर्म को बांध देंगे।
7. चार गुण जैन संघ और उसके संगठन की अवमानना ​​- उनके लिए अवमानना ​​और घृणित करना – गर्व के कारण उन पर अत्याचार करना – पापों से डरना नहीं – इन चीजों के कारण नीच  गोत्र कर्म  आत्मा को बांधता है।
>> चार गुण संघ में भक्ति और विश्वास होने के नाते – संघ की ओर विनम्र होना – सभी गतिविधियों को कोमलता से करना – किसी को भी कम न समझना – गर्व से मुक्त होना; और सभी का सम्मान और सम्मान करके और प्यार के साथ उच्च गोत्र कर्म बंधता है।
8. अगर कोई दूसरों को धोखा नहीं देता है; और एक अच्छा आचरण बनाए रखता है और एक साधारण जीवन जीता है, उसकी आत्मा शुभ या शुभकामना नाम कर्म से बंधी है: और यदि वह इन सिद्धांतों के विपरीत कार्य करता है, तो उसकी आत्मा  अशुभ नाम कर्म से बंधी है।

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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1 comment:

  1. सुपरब जानकारी जय जिनेन्द्र

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