ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

तीर्थंकर

Image result for जैन धर्म के तीर्थंकर

Image result for जैन धर्म के तीर्थंकर


तीर्थंकर के माँ के गर्भ में आने पर उनकी माता 14 स्वप्न देखती है । वे 14 स्वप्न लगभग एक ही क्रम में देखे जाते हैं। सिर्फ पहले तीन आगे पीछे हुए। ऋषभदेव जी की माता मरुदेवी ने प्रथम स्वप्न वृषभ ( बैल ) का देखा । महावीर स्वामी जी की माता त्रिशला ने प्रथम स्वप्न केसरी सिंह ( शेर ) का देखा । अन्य सभी तीर्थंकर की माताओं ने प्रथम स्वप्न गज ( हाथी ) का देखा ।

स्वप्न विज्ञान भी बहुत गहरा शास्त्र है । विशिष्ट जीव की आत्मा होती है तो माता कोई स्वप्नदेखती ही है । बौद्ध धर्म अनुसार बुद्ध की माता ने भी शुभ स्वप्न देखे थे । तीर्थंकर के समय माँ 14 शुभ स्वप्न देखती है उसी प्रकार एक चक्रवर्ती की पदवी होती है । चक्रवर्ती यानि छह खंडो का एकछत्र राजा और चक्र रत्न का धारक । चक्रवर्ती की माता भी वाही 14स्वप्न देखती है जो तीर्थंकर की माता देखती है किन्तु थोड़े अस्पष्ट (धुंधले ) देखती है जैसे कल हमारे प्यारे प्रतीक भैया ने बताया ।
२४ तीर्थंकरो में शांतिनाथ जी कुंथुनाथ जी अरनाथ जी तीर्थंकर के साथ चक्रवर्ती भी थे । अतः उनकी माँ ने दो बार 14स्वप्न देखे -एक बार स्पष्ट एक बार अस्पष्ट ।

तीर्थंकर का च्यवन हमेशा मध्य रात्रि में होता है । अतः रात्रि में अर्धजागृत अवस्था में ही माँ १४ स्वप्न देखती है । नौ महीने के आसपास का गर्भकाल पूरा कर मध्य रात्रि में ही तीर्थंकर का जन्म होता है । सबसे कम गर्भकाल ८ महीने २० दिन वासुपूज्य जी का रहा और सबसे अधिक ९ मास १९ दिन सुपार्श्वनाथ जी का रहा ।

च्यवन के समय यदि तीर्थंकर देवलोक से आते हैं तो माता १४स्वप्नों में देवविमान देखती है । अगर वे नरकलोक से आते हैं तो माता देवविमान की जगह भवन देखती है । च्यवन के समय से ही प्रभु -मति श्रुत अवधि ये तीन ज्ञानों के धारक होते हैं।

तीर्थंकर पद कभी स्त्रीअवस्था में नही भोग जाता यानि केवल पुरुष रूप में ही तीर्थंकर बनते हैं । क्योंकि तीर्थंकर नाम कर्म बांधते समय ही यह भी नक्की हो जाता है की जीव उस भव में पुरुष बनेगा । किन्तु वर्तमान चौबीसी में मल्लिनाथ जी एक आश्चर्य रूप है क्योंकि वो एक स्त्री तीर्थंकर हैं । पूर्वभव में उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म बाँधने से पूर्व ही माया करके तपस्या की जिस कारन उनका स्त्री वेद बांध हो गया था।

जन्म कल्याणक

तीर्थंकर प्रभु का जन्म मध्य रात्रि में ही होता है। माता पीड़ा रहित प्रसव करती है।

तीर्थंकर के जन्म पर सबसे पहले 56 दिक्कुमारी देवियों का आसन कम्पायमान होता है। वे पर्वतों , समुद्रों में रहने वाली भवनपति निकाय की देवियाँ है । ये देवियां आती हैं , भूमि शुद्ध करती है, प्रभु का नाल काटती हैं , प्रभु और माता को रक्षा पोटली बांधती हैं , प्रभु और माता की भक्ति करती हैं

फिर ६४ इन्द्रो का आसान कम्पायमान होता है । वे ऐसा घंटा बजवाते हैं जिससे सभी देव देवी इकट्ठे हो जाते हैं। सौधर्मेंद्र प्रभु की माता को गहरी नींद में सुला देता है , शिशु का प्रतिबिम्ब पास रखकर प्रभु को गॉड में उठाकर मेरु पर्वत की ओर ले जाता है।

दिक्कुमारियां क्या क्या कार्य करती है , कहाँ कहाँ रहती हैं , देवी देवता कैसे इकट्ठे होते हैं , प्रभु को कैसे लेकर जाते हैं ,वो कलश कैसे होते हैं इत्यादि सब चीज़े अपने ग्रंथों में है किन्तु शक्ति और समय अभाव में मैं यहाँ सब लिखने में समर्थ नही हूँ । कागज़ भेजने पर पढ़े नही जाते हैं इसलिए संक्षेप में यही लिखा है।

६४ इंद्र , इन्द्राणी , अन्य देव देवी मिलकर २५० बार अभिषेक करते हैं और १-१ अभिषेक में सोने , मिटटी ,चांदी के ६४००० कलश होते हैं । इस प्रकार कुल २५०*६४०००=१,६०,००,००० ( एक करोड़ साठ लाख) कलशों से प्रभु का अभिषेक होता है।

जन्म से ४ अतिशय

प्रभु के ३४ अतिशय होते हैं । अतिशय यानि विशेषतायें । उन ३४ में से ४ प्रभु को जन्म से होते हैं

१. प्रभु को कभी पसीना नही आता , नाख़ून - बाल कभी बुरे नही दीखते
२. प्रभु का श्वास लेना और छोड़ना कमल के फूल की तरह निर्मल और सुगन्धित होता है
३. प्रभु का रक्त लाल नही होता , सफ़ेद रंग का होता है
४. प्रभु का आहार ( भोजन ) और निहार ( शौच आदि ) अदृश्य होता है यानि सामान्य व्यक्ति आँखों से नही देख सकता ।

प्रभु कभी माता का स्तनपान नही करते । उनके जन्म के समय इंद्र प्रभु के अंगूठे में अमृत रस भर देता है और उस अंगूठे को चूसकर ही प्रभु की भोजन तृप्ति शिशुकाल में हो जाती है । राजसी ठाठ बाठ से प्रभु बड़े होते हैं ।

यदि उनके भोग संबंधी कर्म शेष होते हैं तो उन्हें विवाह करना ही पड़ता है ,उनके पुत्र पुत्री भी हो सकते हैं । किन्तु प्रभु अपने वैवाहिक जीवन में भी निर्लेप रहते हैं - दैहिक आसक्ति उनमे नही होती ।
ऋषभदेव जी की दो पत्नियां थी -सुनंदा और सुमंगला और उनके १०० पुत्र और २पुत्रियां थी ।
नेमिनाथ जी ने विवाह किया ही नही था ।
पार्श्वनाथ जी का विवाह प्रभावती से हुआ किन्तु उनके कोई संतान नही हुई
महावीर स्वामी जी की पत्नी यशोदा हुई और उनकी पुत्री का नाम प्रियदर्शना था ।

तीर्थंकर अत्यंत रूपवान् होते हैं । उनके शरीर पर १००८शुभ लक्षण होते हैं जिसमे १०८ आकृतियां होती हैं और ९०० तिल/व्यंजन आदि । अनंत इन्द्रो का बल भी एक तीर्थंकर परमात्मा में होता है ।

सभी राजसी , वैवाहिक ,शारीरिक सुखों को त्याग कर आत्मा को परमात्मा बनाने के हेतु से तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा ग्रहण करते हैं ।

तीर्थंकर प्रभु जो दान देते हैं , उसे वर्षीदान या सांवत्सरिक दान भी कहते है।

संवत्सर यानि एक साल । ( संवत्सरी प्रतिक्रमण... याद आया ?)
तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा से पहले 1 साल तक लगातार दान देते हैं ।

तीर्थंकर प्रभु यह जो दान देते हैं , उसकी व्यवस्था देवता लोग करते हैं

ज्योतिष निकाय के देव सब जगह खबर फैलाते हैं की प्रभु दान देने वाले हैं

सौधर्मेंद्र ऐसी शक्ति करता है की प्रभु दान देते हुए थकते नही हैं

दुसरे देवलोक का इंद्र प्रभु के पास सहाय के लिए खड़ा रहता है।
और इंद्र प्रभु की मुट्ठी में याचक के नसीब अनुसार कम या ज़्यादा करते रहते हैं यानि कम हो तो ज़्यादा कर देते हैं । ज़्यादा हो तो कम

1 दिन में प्रभु 900 मन ( around 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राएं दान देते हैं )

एक वर्ष में 32,40,000 मन ( 3 अरब 88 करोड़ 80 लाख स्वर्ण मुद्राएं )

हर मोहर पर तीर्थंकर का नाम माता पिता और नगरी का नाम लिखा होता है।

जो भी यह दान लेता है 12 वर्षो तक निरोगी रहता है , भंडार भरपूर लेता है , वह मोक्ष जाने वाली आत्मा होती है।

यह हुआ वर्षीदान का संक्षेप में वर्णन

देवलोक कितने ? देवलोक 12 हैं । उनमे पांचवे देवलोक के अंत में 9 देव रहते हैं । उन्हें नव लोकांतिक देव कहते हैं।

वे प्रभु को विनती करने आते हैं की प्रभु अब आप दीक्षा ग्रहण करो।

यह जीताचार है ( formality ) है । ऐसा होता है। पता है की प्रभु ने दीक्षा लेनी है फिर भी वे अपना फ़र्ज़ समझकर आते हैं

इन सबके बाद दीक्षा की तैयारी होती है । प्रभु को शुद्ध चन्दन आदि से स्नान कराया जाता है , अच्छे कपडे पहनाये जाते हैं ,प्रभु कुल और परिवार के बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं

प्रभु अपने महल से जंगल की और मिकलते हैं । देवी देवता और सभी मनुष्य लोग प्रभु के साथ निकलते हैं । प्रभु को पालकी में बिठाकर लेकर जाते हैं

जंगल में प्रभु उतरते हैं। सभी वस्त्र आभूषणों का त्याग करते हैं और लोच करते हैं।

बाल भी परिग्रह है । केश होंगे तो उनको सवारने में आसक्ति रहेगी , जूं आदि उत्पन्न होंगे इत्यादि अनेक कारणों से केशों का लुंचन करते हैं

प्रभु का लोच विशेष होता है । उसे पंचमुष्ठि लोच कहते हैं । प्रभु अपने सिर के 4 हिस्से करते हैं । एक मुट्ठी से एक हिस्से से बाल खींचते हैं , ऐसे चार बार में सिर के सभी बाल निकाल लेते हैं । पांचवी मुट्ठी में दाढ़ी मुछ के बाल ।

इस प्रकार पञ्च मुष्ठि लोच करते हैं

दीक्षा कल्याणक

कल हमने संक्षेप में पढ़ा कैसे तीर्थंकर प्रभु दीक्षा की तैयारी करते है, कैसे वे दान देते हैं , पालकी में वन में आते हैं , अपने वस्त्रो - बालों का भी त्याग कर देते हैं।

अब प्रभु वन में आये हैं । प्रभु ने अपने केश का मुंडन कर दिया है । पांच मुट्ठी से अपने मस्तक और दाढ़ी के सभी बाल निकाल दिए हैं। जो प्रभु को अपना राजा मानते हैं , उन्हें अपना मित्र मानते हैं , उन्हें पूरा पता भी नही होता की प्रभु क्या कर रहे हैं.. किन्तु वे लोग भी अपने स्नेही प्रभु की देखा देखी बालों का लुंचन कर रहे हैं।

जय जय नंदा - जय जय भद्दा की ध्वनि से समूचा जन समूह गुंजायमान हो रहा है म परिवार और देवताओं में प्रभु के अंतिम बालों को लेकर उन्हें अपने पास संजोने की होड़ लगी हुई है।

कल तक जो सभी राजकीय सुखों को भोगते थे , आज वो संयम के दुखों को सहने की ओर तत्पर हैं । जो मखमली जूतों - तेजस्वी मुकुट से सजे थे , आज उनके पास न ही चप्पल है न ही बाल ।

प्रभु एक एक कर सभी वस्त्रो का त्याग कर रहे हैं । तभी इंद्र एक थाल से उठाकर प्रभु को एक वस्त्र देता है। ओह ! वह वस्त्र कौनसा ? देवदूष्य वस्त्र । प्रभु को नग्न देखकर कोई उपहास न करे , सर्दी गर्मी में प्रभु को कष्ट न हो , इस भाव से इंद्र ने एक कपडा प्रभु को दिया है । पहले के तीर्थंकरो ने ग्रहण किया , ऐसा जीताचार समझकर प्रभु वो देवदूष्य वस्त्र ग्रहण कर रहे हैं ।

प्रभु तो अब दीक्षा लेने लगे हैं। वे सभी पापों का त्याग कर रहे हैं .. सम्पूर्ण प्रजा इस भोग से योग के मार्ग को देखकर स्वयं को धन्य मान रही है ।

प्रभु बोल रहे हैं - " करेमि सामाइयं सावज्जम् जोगं पच्चक्खामि ..." प्रभु अब प्रतिज्ञा ले रहे हैं की अब मैं कोई भी सावद्य - कोई भी पापकारी कार्य नही करूँगा - न मन से न तन से न वचन से ।

अहो ! प्रभु तो ज़िन्दगी भर के सामायिक ले रहे हैं । ये क्या ? उनके साथ और भी लोग दीक्षा ले रहे हैं । महावीर स्वामी जी के अलावा कोई तीर्थंकर अकेला दीक्षित हुआ ही नही । कैसा मेरे प्रभु का पुण्य है ..कैसा उन लोगों का पुण्य है की प्रभु को अपना राजा मानकर अपने तन मन को प्रभु को समर्पित कर दिया है । हम बस देख रहे हैं..अनुमोदना कर रहे हैं।

प्रभु के मुखमंडल पर तो तीन ज्ञान की तेजस्विता दिख रही है । अरे ! यह क्या ... जैसे ही प्रभु ने पूर्व दिशा की ऊर्जा को साक्षी मानकर.. या उत्तर में महाविदेह को साक्षी मानकर या ईशान कोण में विचार रहे विहारमनो की दिशा में खड़े रहकर दीक्षा ली है.. संयम स्वीकार किया है प्रभु को चौथा मनः पर्यव ज्ञान भी हो गया है । प्रभु अब आपके - मेरे मन की बात भी जान सकते हैं । वास्तव में .. कैसा प्रभु का संयम होगा..

हज़ारो लोग प्रभु के इस दीक्षा कल्याणक के साक्षी बने हैं । किसी ने नाचकर प्रभु के संयम की अनुमोदना की.. किसी ने रोकर प्रभु के स्वयं से बिछड़ने का गम अभिव्यक्त किया ।
मैं बस खड़ा था- देख रहा था... सब लोग वापिस घर चले गए.. प्रभु जंगल में चले गए.. मैं वहीँ खड़ा रह गया.........

जब ऋषभदेव स्वामी जी दीक्षा के लिए अपने बालों का लोच कर रहे थे... तब सम्पूर्ण मानव जाति ने प्रथम बार दीक्षा देखि थी । प्रभु का रूप बहुत बहुत सुन्दर था । प्रभु के बाल अत्यंत मुलायम और घने थे ।

जब प्रभु ने एक मुट्ठी से दाढ़ी मुछ के बाल निकाले और फिर मस्तक के बाल निकाल रहे थे तब उनकी पांचवी मुट्ठी के समय इंद्र महाराज ने और उपस्थित मानवों ने प्रभु को निवेदन किया की हे प्रभु ! आपके बाल बहुत बहुत सुन्दर है । हमारा आग्रह है की थोड़े से बालों को रहने दीजिये । प्रभु की भक्तवत्सलता कहें या सभी लोगों की भावनाओं का आदर... प्रभु ने पीछे के बाल नही निकाले । केवल चार मुष्ठि का लोच किया ।

कांगड़ा जी आदि कई स्थानों पर आज भी आदिनाथ परमात्मा की प्रतिमा केशसहित मिलती है , और किसी भी तीर्थंकर की नही।

यह वर्णन कल्पसूत्र , त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रंथो में भी आता है।

आज सुबह प्रभु ने दीक्षा ग्रहण की है । सब लोग नगर में चले गए.. प्रभु तो जंगल में चले गए ... लेकिन मेरा मन संकल्पों विकल्पों में उलझा हुआ था। क्या तीर्थंकर भी जंगल में कष्ट सहेंगे ? नही नही , कल तक वो राजकुमार थे.. वो कष्ट सहन नही कर पाएंगे.. न जाने कितने प्रश्न थे..
मैंने ठान लिया.. मैं तो प्रभु के पदचिन्हों पर चलते चलते आगे बढ़ गया ।

अहो ! यह क्या ? जिस सुगंधित चंदन से लोगों ने दीक्षा पूर्व प्रभु को स्नान कराया था.. उस चन्दन से आकर्षित होकर तो कीड़े मकोड़े प्रभु के शरीर पर आ रहे हैं किन्तु प्रभु तो अपने ध्यान में मस्त हैं.. दीक्षा के पहले ही दिन से वो कष्ट सहने लगे हैं...कैसे सहनशील हैं प्रभु.. आत्मध्यान में कैसे लीन हैं प्रभु

दीक्षा के दिन प्रभु ने उपवास किया.. लेकिन प्रभु को तो भूख का नामोनिशान नही हैं ... आदिनाथ दादा को तो 400 दिनों पर पहली भिक्षा के लिए इंतज़ार करना पड़ा.. किन्तु इनको तो अगले दिन ही खीर मिल गयी.. कितना भाग्यशाली होगा वह व्यक्ति जो प्रभु को दीक्षा के बाद प्रथम भिक्षा देता है। वह तो नज़ारा ही कुछ और था.... आकाश में से देवता अहोदानं अहोदानं का उद्घोष कर रहे थे.. दानदाता भी ख़ुशी में झूम रहा था.... और मैं दूर एक कोने में खड़ा होकर सोच रहा था की मेरा ऐसा पुण्य उदय कब आएगा जब मैं भी ऐसी संयमी आत्मा को सुपात्र दान दे सकूँगा..

प्रभु तो फिर जंगल में चले गए.. मुझे नींद आ गयी.. जब जगा तो प्रभु तब भी जाग रहे थे.. प्रभु तो दीक्षा के बाद कभी सोते ही नही ... कैसा उनका अपनी इन्द्रियों के प्रति संयम होगा..
मुझे तो कोई हल्का सा भी मारता , मैं तो उसे दुगुना मारता.. लेकिन प्रभु किस मिटटी के बने हैं ! देवताओं ने उपसर्ग दे दिए.. अनार्य देश के लोगों ने उपसर्ग दे दिए.. पशुओं पक्षीयो ने उपसर्ग दे दिए... गर्मी सर्दीके परिषह प्रभु पर हो गए .. लेकिन वो तिल मात्र भी विचलित नही हुए ! मैं अपने शरीर को अपना घर मानता रहा इसलिए छोटा सा दुःख भी सहन नही हुआ लेकिन प्रभु तो आत्मा को अपना घर मान रहे थे इसलिए शरीर पर क्या हो रहा है..उन्हें पता भी नही चला !

कर्मों को तपाते तपाते.. साधना करते करते कितना समय हो गया.. मैं देखते देखते थक गया किन्तु प्रभु करते करते नही थके...

अहो ! यह क्या ! एक दिव्य प्रकाश पुंज प्रभु को घेर रहा है... ओह ! यह तो केवलज्ञान है ! प्रभु ने मोहनीय कर्म के ताले को जैसे ही तोडा.. प्रभु के घाति कर्म सब चकनाचूर हो गए.. प्रभु सर्वज्ञ बन गए.. सर्व दर्शी बन गए.. अरिहंत बन गए.. जिनेश्वर बन गए..

कोई देवता कोई मानव प्रभु के पास आये .. उससे पहले हिम्मत करके मैं ही चला गया । मैंने पूछा प्रभु क्या अब भी आप एकांत में ही रहोगे...प्रभु बोले नही ! मुझे तो अभी तुझे तिराना है.. संसार के प्रत्येक प्राणी को तिराना है और ऐसा किये बिना मैं तीर्थंकर नाम कर्म के ऋण से मुक्त नही हो सकता ।

मैं और कुछ प्रभु से पूछ पाता की तभी आकाश में शहनाई की आवाज़ सुनाई दी । मैंने ऊपर देखा ! ये क्या ? सैंकड़ो सैंकड़ो देव प्रभु के दर्शन वंदन करने आ रहे हैं..

इंद्र के एक इशारे पर बाकी देवताओं ने भूमि साफ़ की.. और वहीँ एक विशाल समवसरण की रचना की । आजतक केवल नाम सुना था.. आज देखा । इतनी विशाल जगह जहाँ बैठकर प्रभु देशना देते हैं.. जहाँ पशु पक्षी मानव देव सभी को शरण मिलती है..

प्रभु से 12 गुना ऊँचा अशोक वृक्ष .. प्रभु का सुन्दर सिंहासन.. सारा समवसरण खचाखच भरा था । प्रभु आये ..वृक्ष की तीन प्रदक्षिणा दी. सिंहासन पर बैठे और प्रभु ने जो देशना देनी चालू की.. मैं हिंदी बोलता था.. मुझे तो हिंदी में समझ आ रहा था..मेरा मित्र कहता प्रभु तो तमिल में बोलते हैं क्योंकि वो तमिल था... शेर भी प्रभु की बातों में हाँ में हाँ मिला रहा था..तब पता चला की प्रभु की अर्धमागधी भाषा और मालकोश राग में दी गयी देशना सबको अपनी अपनी भाषा में समझ आती है ।

प्रभु ने आत्मा का स्वरुप समझाया .. न कभी सोचा न कभी सुना.. ऐसी सरस शैली में प्रभु बोलते हैं.. देखते देखते किसी ने दीक्षा ले ली.. किसी ने श्रावक के व्रत ले लिए...

साधु साध्वी को सर्वविरति की दीक्षा दी.. श्रावक श्राविका को देशविरति की दीक्षा दी.. सभी वासक्षेप दिया.. और इस तरह मेरी आँखों के सामने सामने चतुर्विध संघ की स्थापना हो गयी .. तीर्थ की रचना हो गयी.. मैं जैसे ही श्रावक के व्रत लेकर प्रभु के पास वासक्षेप लेने के लिए पहुंचा.. प्रभु ने कहा.. देख ! अपने इस चरवले की शर्म रखना..अपने इस तिलक और वासक्षेप की लाज रखना ..तभी मानव जन्म सफल होगा...मैं समझा नही पर तहत्ति कहकर आ गया ।

मैं घर आ गया.. प्रभु ने दो पंक्तियों में आखिर क्या कह दिया..मेरे दिल और दिमाग में उहापोह मच गया.. प्रभु की उस पंक्ति को मैं आज भी याद करता हूँ...अपने जीवन में झांकता हूँ और चुप सा हो जाता हूँ..
जैन जिज्ञासु..
🙏👌🏵🌸💮🌹🌱🌷🌲🌺🎪👌🙏


BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
LIKE & COMMENT - https://jintirthdarshan.blogspot.com/
THANKS FOR VISITING.

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.