"नवांगी पूजा हो सके तो 9 ही बार तिलक ले कर प्रभु को स्पर्श, करना चाहिए, पर, जो कभी उंगली में केसर खुटता हुआ लगे, तब आप फिर से केसर ले सकते हो ।"
बस,जवाब तो इस ☝🏻 समझायी गई बात में ही छिपा हुआ है, पर जो कोई भावपूर्ण समझना चाहें तो ।
हमारा जैन धर्म, भावों पर ही मूल आधारित है।
यह हम सभी जानते है कि, नवाांगी पूजा करते समय हमारे भाव, प्रथम चार अंगो के लिए जो की हमारे शरीर में दो दो के रूप में है , दांयी और बाई तरफ, उन प्रत्येक चार अंग को चार ही मान कर, पूजा का नाम नवांगी दिया गया है, आगमनुसार, तेरांगी नहीं, तो फिर उन प्रथम चार अंगों को दांये और बाए में विभाजित कर के 8 (आठ) बार स्पर्श करने के भाव का उपयोग, रोज के लिए, रूटिन बनाकर क्यूँ ? और कूल मिलाकर 13 बार अलग अलग तिलक कर के प्रभुस्पर्श के उपयोग के भाव, रोज के लिए क्यूँ ?
कई बार कई जगह प्रतिमाजी की ऊंचाई बहुत होती है, और कुछ तीर्थस्थानों पर उन ऊंचाई के अंग तक पहुंचने के रास्ते बनाए होने पर भी दाएं से बाए जाने में थोड़ा समय लगता है ,जहां उंगली पर लगा केसर सूखा हुआ महसूस होता है, उस वक़्त हम इस भाव के साथ जो केसर उंगली पर फिर से लें, कि....
"है प्रभु, आपके प्रथम चार अंगो को, जो की दो - दो है, भाव से उन्हें एक ही मान कर, उनका तिलक कर रही हूं पर केसर के खुट्ने पर वापिस उंगली में केसर ले रही हूं, अन्यथा आपके दोनों तरफ के अंग को एक ही मानती हूं।"
यह भाव जरूरी है, क्यों की तभी हम "नवांगी" पूजा के भाव को, 9 रूप में, समझ सकते है, नहीं तो इस पूजा का नाम "तेरांगी" भी हो सकता था। और कभी कोई कारणवश जो 13 बार स्पर्श करना पड़े तो क्या उसे नियम बनाकर रूटीन में भी लाना चाहिए ? फिर अलग अलग तिलक कर के हम अंगो को विभाजित क्यूँ करते है ? और सिर्फ मान लिया की नहीं, एक ही अंग है, तो एक साथ केसर ले कर एक बार में क्यूँ नहीं पूजा करते, अगर ये संभव है तो ?
जैन धर्म भाव के ऊपर ही मूल आधारित है, यह हम क्यूँ भूल जाते है ?
बाकी बहस का कोई शेष नहीं। बहस में हम भी पूछ सकते है की आप भी हमे वह आगम और शास्त्र का आधार दिखाइए जहां यह लिखा हो की नव-अंगी पूजा में हम प्रभुस्पर्श 13 बार जान-बुझ कर प्रथम चार अंगों को अलग अलग रूप में विभाजित कर के, अलग अलग तिलक, रूटिन से रोज़, कर ही सकते है। आगम अनुसार ही विगत इसलिए क्योंकि टिका और बाकी किताबें, सभी संघ के अलग अलग आचार्य श्री जी अपनी अपनी मान्यता अनुसार ही लिखते है। पर जरूरत है तो जिनवाणी और आगमवाणी को ही मूल रूप से समझने की और भावों को मूल-रुप से व्यक्त करने की l
अन्जान भाव से, जिन-आज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा गया हो, तो मन, वचन, काया से, भावपूर्ण मिच्छामी दुक्कडम l
⁉ अब आगे जानते है *प्रत्येक ९ दोहे के साथ, कि प्रभु के प्रतिमाजी की नवांगी पूजा क्यों की जाती है, और नवांगी पूजा करते समय हमारे भाव क्या होने चाहिए ?
1⃣ नवांगी पूजा का *प्रथम दोहा जो प्रथम अंग की पूजा करते समय बोलते है :
जल भरी सम्पुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत,
ऋषभ चरण अंगुठड़े, दायक भवजल अंत ।। १ ।।
प्रश्न १. प्रभु के चरणों के अंगूठे की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है ❓
उत्तर १. प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तथा आत्म कल्याण हेतु, जन-जन को प्रतिबोध देने के लिए, अपने चरणों से विहार किया था, अतः दोनो चरणों के दोनो अंगूठे की पूजा, एक ही बार में, पहले दायाँ फिर बायां, तिलक करके की जाती है ।
🙏🏼 पहले अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे युगलिक ने आपके चरण अंगूठे पर अभिषेक व तिलक करके विनय दिखाकर अपना आत्मकल्याण किया था, वैसे आज मै भी अपने आत्मकल्याण हेतु आपके चरण अंगूठे पर अभिषेक व तिलक कर रहा हूँ, मुझ में भी विनय, नम्रता व पवित्रता का प्रवाह हो ।
नवांगी पूजा का दूसरा दोहा जो दूसरे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
*जानु बङे काउसग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश*,
*खड़ा खड़ा केवल लह्यु, पूजो जानु नरेश। २*
प्रश्न २. प्रभु के दोनो पैर के घुटनों की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है ❓
उत्तर २. प्रभु ने साधना काल मे अपने घुटनों के बल खडे रह कर अप्रमत-भाव के साथ साधना की थी और केवलज्ञान को प्राप्त किया था । इन्ही घुटनों के बल से, देश-विदेश विहार करके, कई भव्यात्माओं का कल्याण किया था । इसी लिए दोनो पैर के दोनो घुंटनो पर, एक ही बार में, पहले दांई और फिर बांई और, तिलक करके पूजा की जाती है ।
🙏🏼 दूसरे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे आपने अप्रमत भाव से साधना कर के केवलज्ञान प्राप्त किया, घुंटनो के बल से देश-विदेश विहार कर के, कई भव्यात्माओं का कल्याण किया, वैसे ही घुंटनो का बल मेरा भी होजो । मेरे भी प्रमाद दूर होजो और अप्रमत भाव से मै भी साधना कर, अपना आत्मकल्याण कर सकूं, यह शक्ति मुझे भी प्राप्त होजो । यही भाव से पहले दायाँ घुटन व फिर बायां घुटन की एक ही बार में पूजा करनी चाहिए ।
नवांगी पूजा का तीसरा दोहा जो तीसरे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान,
कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवी बहुमान ।। ३ ।।
प्रश्न ३. दोनो हाथ (कर) के दोनो कांडा (कलाई) की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है ❓
उत्तर ३. प्रभु ने दिक्षा लेने से पूर्व १ वर्ष तक स्वेच्छा से, अपने निर्मल कर-कांड़ा के बल से, अलंकार, वस्त्ररुपी वर्षिदान देकर निर्धनता को दूर किया था और केवलज्ञान प्राप्ति के बाद देशना एवं दिक्षा देकर अनेक मुमुक्षो को रजोहरण दान दिया था । इसलिए, उनके कर-कांड़ो के शक्ति की पूजा, कांडो पर तिलक करके की जाती है ।
🙏🏼 तीसरे अंग की पूजा करते वक्त हमारे भाव :
प्रभु के दोनो कर-कांडो (कांडा यानि बाहु कलाई की पूजा, एक ही बार में, पहले दांई फिर बांई तरफ, इस भाव के साथ करनी चाहिए कि, हे प्रभु, मेरी कृपणता व लोभवृत्ति का नाश हो और आपके कांड़ो की तरह बल मुझे भी प्राप्त हो व यथाशक्ति दान देने के भाव मुझमें भी जाग्रत हो ।
4⃣ नवांगी पूजा का चौथा दोहा जो चौथे अंग की पूजा करते वक़्त बोलते है :
मान गयुं दोय अंश थी, देखि वीर्य अनन्त,
भुजा-बले भव्-जल तरया, पूजो खन्ध-महंत ।। ४ ।।
प्रश्न ४. दोनो कंधे की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है ❓
उत्तर ४. प्रभु ने अपने अनंत ज्ञान और अनंत शक्ति की वज़ह से व भुजा-बल के प्रताप से, संसार रूपी सागर को पार किया इसलिए, कन्धों को मान का त्याग-रुप समझा गया है ।
🙏🏼 चौथे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
हे प्रभु, जैसे आपने अपने कंधों से मान व अहंकार रूपी बोझ को उतारा, त्यागा, वैसे ही हम भी आपके कन्धों की पूजा करते वक्त यही प्रार्थना करते है कि हमारी आत्मा भी आप जैसे अनंत गुणों को प्राप्त करें, अनंत शक्ति को प्राप्त करें एवं निराभिमानी बने और हम भी हमारे कन्धों से मान व अहंकार रूपी बोझ को उतारे । पहले दायेँ और फिर बांये कन्धों की पूजा एक ही बार में करते समय, यही भाव हमारे भी होने चाहिए ।
5⃣ नवांगी पूजा का पांचवा दोहा जो पांचवे अंग की पूजा करते वक़्त बोलते है :
सिद्धशिला गुण उजली, लोकान्ते भगवंत,
वस्या तेणे कारण भवी, शिरशिखा पूजंत ।। ५ ।।
प्रश्न ५. मस्तिष्क के उपरी अग्रभाग, शिरशिखा की पूजा क्यों की जाती है ❓
उत्तर ५. प्रभु ने आत्मसाधना व परहित में सदैव लीन हो कर, केवलज्ञान प्राप्त कर, इस लोक के सबसे अग्रभाग, सिध्दशिला पर, मोक्षरूपी स्थान प्राप्त किया है। इसलिए, प्रभु की प्रतिमा जी के मस्तिष्क के शिखरी अग्रभाग को, सिद्धशिला का प्रतिक माना गया है ।
🙏🏼 पांचवे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे आपने आत्महित साधना से व परहित में सदैव लीन रहकर इस लोक के सब से अग्र स्थान को, प्राप्त किया है, वैसे ही, आपके मस्तिस्क, शिरशिखा को पूज कर में भी यह विनंती करता हूं कि आप जैसी आत्महित साधना करने की व परहित में सदैव लीन रहने की शक्ति, मुझे भी प्राप्त हो, और में भी आप की तरह इस लोक के अग्रिम स्थान, सिद्धशिला को प्राप्त करूं।
6⃣ नवांगी पूजा का छट्ठा दोहा जो छट्ठे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत,
त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।। ६ ।।
प्रश्न ६ ललाट की पूजा क्यों की जाती है ❓
उत्तर ६. प्रभु, तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्योदय से, तीनो लोक में, पूजनीय है। तीनो लोक की लक्ष्मी, मोक्ष लक्ष्मी के, तिलक समान है। इसलिए तिलक-स्थान रूपी ललाट की पूजा की जाती है ।
🙏🏼 छट्ठे अंग की पूजा करते वक़्त हमारे भाव :
है प्रभु, आप के ललाट पर तिलक करने के साथ में यह प्रार्थना करता हूं कि, मुझे ऐसा पुण्यबल प्राप्त हो, जिस से में, मेरे ललाट के लेख यानी मेरे कर्म मुझे मिले हुए मेरे सुख में राग, दुख में द्वेष ना करूं, अविरत आत्म-साधना करते हुए आपके जैसा पुण्यनुबन्ध का स्वामी बनुं।
7⃣ नवांगी पूजा का सातवां दोहा जो सातवें अंग की पूजा करते समय बोलते है :
सोल प्रहार प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर्तुल,
मधुर ध्वनि सुरनर सुणे, तने गले तिलक अमूल ।। ७ ।।
प्रश्न ७. कंठ कि पूजा क्यों की जाती है ❓
उत्तर ७. प्रभु ने अपने मधुर और करुणामयी कंठ से देशना दे कर, कई जीवो का उद्धार किया था । इसलिए गले के कण्ठ की पूजा की जाती है ।
🙏🏼 सातवें अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
है प्रभु, आप के मधुर कंठ की पूजा करते हुए मेरी यही प्रार्थना, यही भाव है कि, आपकी वाणी की मधुरता और करुणा को में भी प्राप्त करूं, मुझ में भी ऐसी ही वाणी प्रगटे, जिस से मेरी वाणी से, मेरा और बाकी सभी का भी हित हो ।
8⃣ नवांगी पूजा का आंठवा दोहा जो आंठवे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
ह्रदय कमल उपशम बले, बाड़्या राग ने द्वेष,
हिम दहे वन खण्ड ने, ह्रदय तिलक संतोष ।। ८ ।।
प्रश्न ८. ह्रदय की पूजा क्यों की जाती है ❓
उत्तर ८. प्रभु ने अपने हृदय के राग-द्वेष को नष्ट कर के अपने हृदय में उपशम भाव का प्रवाह किया है। प्रभु के निरस्पृह, कोमल और करुणा से भरे हृदय ने उपकारी और अपकारी सभी जीवो पर समान भाव रखा है। इसी उपशम भाव के गुणों की वज़ह से ह्रदय की पूजा की जाती है ।
🙏🏼 आंठवे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
है प्रभु, जैसे आपने राग द्वेष का नाश कर के उपशम भाव को जागृत किया वैसे ही, में भी, मेरे हृदय में भी, राग द्वेष को नष्ट कर के, सभी के प्रति वात्सल्य भाव, मैत्री भाव, निस्पृहता, प्रेम, करुणा, जागृत कर सकूं, और सभी जीवो के प्रति सम-भाव, उपशम भाव रख सकूं, ऐसी शक्ति प्रदान हो ।
9⃣ नवांगी पूजा का नौवा दोहा जो नौवें अंग की पूजा करते समय बोलते है :
रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम,
नाभि कमरनी पूजना, करता अविचल धाम ।। ९ ।।
प्रश्न ९. नाभि की पूजा क्यों की जाती है ❓
उत्तर ९. प्रभुने श्वासोश्वास को नाभि में स्थिर कर के, मन को आत्मा के शुद्ध स्वरूप से जोड़ कर, उत्कृष्ट समाधि सिद्ध कर के, अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र, यह रत्नत्रयी गुणों को प्रगट किया था, और अपने ८ रुचक प्रदेश को कर्म रहित किया था। इसीलिए, रत्नत्रयी के गुण-रूप हम प्रभुजी की प्रतिमा का ९ वा तिलक, नाभि पर करते हैl
🙏🏼 ९ वे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
है प्रभु, आपकी निर्मल नाभि पर तिलक कर के पूजा करते हुए मेरी यही प्रार्थना, यही भाव है कि,मुझे भी रत्नत्रयी गुण को प्राप्त करने का सामर्थ्य प्रदान हो। आपकी नाभि के ८ रुचक प्रदेश की तरह, मेरे भी सर्व आत्म-प्रदेश शुद्ध हो l
⚜ उपसंहार दोहा :::
उपदेशक नव तत्त्व ना, तिणे नव अंग जिणंद ,
पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभ वीर मुणींद ।।
अर्थात,
👉🏻हमारे आत्मा के कल्याण हेतु, नव-तत्व के उपदेशक ऐसे आप प्रभु, आपके अंगों की पूजा विधि से, राग से, भाव से करें, ऐसा प. पू. उपाध्याय श्री वीरविजय जी म. सा. ने कहा है।
🙏🏼 मिच्छामी दुक्कड़ं ! पहले भाग में नौ बार तिलक की बात की गई थी उसका तात्पर्य कटोरी से नौ बार, नौ अंग के लिए, चन्दन उठाने से था, प्रभुस्पर्श तो स्वाभाविक रूप से १३ बार होगा ही क्योंकि प्रथम ४ अंग, दो - दो है । कई बार देखते है कि कटोरी में लिया हुआ अधिक चन्दन का उपयोग खपत नहीं हो पाता है और वह नमन - पानी में मिला देना पड़ता है, या कुछ लोग थाली धोते समय पानी में बहा देते है, और एसे भी आशातना लगती है । बाकी तो, वह हम सब के भाव ही है, जो हमें मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त कराने में सहाय करते है । लिखने थोड़ी सी चूक रह गई थी, इसलिए मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडम
❌ कृपया नवांगी पूजा करते समय यह ध्यान अवश्य खें कि यह दोहे आप *अंतःर्मन में ही बोले, उपर लिखे भावों के साथ । कई बार देखा गया है कि हम *शब्दोच्चारण कर के, और कई बार इतने अधिक जोर से बोलते* है, जिससे गभारे में पूजा कर रहें, अन्य भव्यात्माओं के भावों में *बाधा उत्पन्न होती है, और अन्जाने में *पुण्य उपार्जन के स्थान पर हम अंतराय कर्म का बान्ध कर लेते है । इस विराधना से जरुर बचें, क्योंकि, हे आत्मन्, तुँ ही परमात्मन् ।
॥ समाप्त ॥
यह पोस्ट लिखते समय जो कोई भी काना-मात्रा की या अर्थ की भूल-चूक अन्जाने में हो गई हो, तो मन, वचन, काया से *मिच्छामि दुक्कड़ं l
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
LIKE & COMMENT - https://jintirthdarshan.blogspot.com/
THANKS FOR VISITING.
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.