ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

राणकपुर तीर्थ

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राणकपुर तीर्थ
राणकपुर मंदिर के स्थापक कुंभाराणा के मंत्री(धरणाशाह) धन्नासा पोरवाल ने ३२ वर्ष की उम्र में ३२ संघों के बीच शत्रुंजय तीर्थ पर सोमसुंदरसुरी के हस्ते तीर्थ माला पहनी व ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया।
तीर्थ माला के समय प्रतिज्ञा ली कि राणकपुर में नलिनीगुल्म विमान जिनालय बनाऊंगा।
कुम्भा राणा के पास जमीन लेकर संवत १४४६ में जिनालय का काम शुरू करवाया व १४९६ में प्रतिष्ठा करायी व त्रैलोक्य दीपक नाम रखा। ५० वर्ष तक काम चला।
५वीं सदी में २७०० जैनों के घर थे।
इस जिनालय का ४८४०० योजन फुट का घेराव है।
इस जिनालय में ८२ देरियां व १४४४ खंभे है, हर एक खंभे की कलाकृति(कोरणी) अलग-अलग है।
इस जिनालय में अष्टापद, शत्रुंजय, २४ मंडप, १०० तोरण, ९ भोयरा, ४ विशाल रंग मंडप, ५५२ पुतलियाँ है।
जमीन से ७ फुट मंदिर ऊँचा है।
कहा जाता है कि चितौड़ के राजा धरणाशाह की नक़ल करके जिनालय में एक विशाल बनाया पर वो पूरा नहीं करा सके। इससे वो आज भी अधूरा ही है।
मूलनायक भगवान् के पास एक हाथी व उसके पास एक ५०० वर्ष पुराना रायण का वृक्ष है व उसके सामने १००८ फणों को धारण करने वाले नाग व नागिन युक्त पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा है।
पहले यहाँ ८४ भोयरे थे बाद में ९ भोयरे रहे है, इस जिनालय में अलग अलग २७६ शिल्पियों की सजावट है। हर एक देरासर पर २०-२० प्रकार की गिरि है।
इस जिनालय की प्रतिष्ठा के समय ४ आचार्य, ९ उपाध्याय, ५०० साधु, ७००० अलग अलग के साधु मौजूद थे।

श्री अष्टापद इस समय अलोप है।
अष्टापद अयोध्या के उत्तर कैलाश पर्वत की श्रृंखला में आता था, ऐसा माना जाता है।
भरत चक्रवर्ती ने १-१ योजन की आठ सीढ़ियां बनवाई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम अष्टापद पड़ा।
इस तीर्थ पर तीसरे आरे में भगवान् ऋषभदेव ६ उपवास तपस्या कर १०००० मुनि सहित अनशन करके निर्वाण को प्राप्त हुए।
इस तीर्थ पर सिंह निषधा प्रासाद में अष्ट प्रतिहार्य युक्त २४ तीर्थकर वर्ण, काया प्रमाण रत्नमय प्रतिमा भरत चक्रवर्ती द्वारा चारों दिशा में अनुक्रम से ४,८,१०,२ विराजमान की हुई है।
इस तीर्थ की यात्रा गौतम स्वामीजी ने स्वलब्धि से सूर्य किरणों की सहायता से की थी व जग चिंतामणि सूत्र की रचना भी इस तीर्थ पर की गई।
इस तीर्थ की रक्षा में सगर चक्रवर्ती के ६०००० पुत्र नागेन्द्र के कोप का शिकार हो काल को प्राप्त हुए व तीर्थंकर भक्ति के कारण अच्युत देवलोक में देव बने।
इस तीर्थ पर रावण ने तीर्थंकर्म नामकर्म का उपार्जन किया।
भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद तीर्थ पर ९ योजन लम्बा, आधा योजन चौड़ा और तीन गाऊ ऊँचा जिनालय आदिनाथ भगवान् का बनाया।।
अष्टापद पर्वत पर आदित्ययश से प्रारम्भ करके ५० लाख करोड़ सागरोपम काल तक भरत चक्रवर्ती ने वंश के परम्परा के राजर्षि सर्वार्थ सिद्धि और शिवगति को प्राप्त करेंगे।
दमयंती ने अपने पूर्व भव में अष्टापद तीर्थ के ऊपर २४ तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमाओं के ललाट पर रत्न तिलक लगाये थे। उसके प्रभाव से दमयंती के भव में अपने ललाट पर रात्रि के घोर अंधकार को नाश करने वाला तेज प्रकाश युक्त तिलक प्राप्त हुआ।

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