ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

कषाय

No automatic alt text available.

कषाय : जो आत्मा को कसे अर्थात दुख़ दे उसे कषाय कहते
हैँ। कषाय २५ होती हैं, पर मुख्य रूप से ४ हैं –
क्रोध, मान, माया और लोभ ।

क्रोध 

साधारणतया क्रोध गुस्से को कहते हैं। मन-वचन-काय द्वारा
किसी के प्रति गुस्से, घृणा या अनादर का भाव क्रोध
है। इसके अन्य रुप जैसे नफरत करना, बैर पालना, ईर्ष्या करना
आदि हैं। क्रोध अग्नि के समान दाह देने वाला है। जिसके मन में
क्रोध उत्पन्न होता है उसके मन की शांति खो
जाती है, परिणामों की विशुद्धता खो
जाती है । क्रोध मे व्यक्ति की बुद्धि
नेष्ट हो जाती है। क्रोधी
की तुलना हत्यारे से दी जा
सकती है। क्रोध को दूसरे का अस्तित्व सहन
नही होता। क्रोध की प्रवृत्तिं है कि
दूसरा मिटना चाहिए चाहे दूसरे को मिटने में स्वयं को क्यों न मिटाना
पड़े। क्रोधी व्यक्ति की प्रवृत्ति इस
प्रकार की होती है कि दूसरे
की दोनों आँख फूटनी चहिये। चाहे
उसके लिये अपनी एक आँख क्यों न फूट जाये।
यह आत्मघाती है। अरे भाई, संसार मे सब
आत्माएं बराबर हैं। हर द्रव्य स्वतन्त्र है और अपने
अस्तित्व गुण से हमेशा रहने वाला है। आप किसी
को मिटा नही सकते फिर दूसरे को मिटाने
की सोचना भी पाप है। पर
क्रोधीं को ये समझ में नहीं आता। आ
जाए तो वह क्रोधी ही क्यों रहे?
दूसरी बात – क्रोध आत्मा का विभाव है, स्वभाव
नहीँ। इसे हम उदाहरण द्वारा समझते हैं-
स्वभाव की क्या पह्चान है?
जो सदाकाल रहे व एक सा रहे व जिसके लिये किसी
निमित्त की आवश्यकता न हो वह स्वभाव और जो
स्वभाव के विपरीत हो वह विभाव। जैसे
पानी का स्वभाव क्या है? शीतलता, यदि
पानी को शीतल रखना हो तो उसे
किसी बाहरी निमित्त की
आवश्यकता नहीं है। वह सदाकाल
शीतल रह सकता है पर जब हम पानी
को उबालते हैं तो उबला या गर्म पानीं :
१. ज्यादा देर तक गर्म नहीं रखा जा सकता
२. गर्म रखने या करने मे बाहरी संयोग अर्थात
अग्नि की आवश्यकता होती है
३. यदि हम ज्यादा देर तक गर्म रखने का प्रयास करेंगे तो वह
भाप बन कर उड जायेगा
४. पानी को अग्नि से उतारते ही वह
पुनः शीतलता की ओर भागने लगता है
इन सब बातों से सिद्ध है कि उष्णता पानी का विभाव
है, स्वभाव नहीं। उसी प्रकार क्रोध
भी आत्मा का विभाव है
स्वभाव नहीं।
१. कोई भी ज्यादा देर तक क्रोधित नहीं
रह सकता
२. क्रोधित होने के लिये बाहरी संयोग
की आवश्यकता होती है
३. बाहरी संयोग हटते ही
शीघ्र ही शाँत होने लगते है
आप सब विचार करें कि २४ घंटे में कितनी देर
क्रोधित रह सकते है व कितनी देर शांत




मान
मान अर्थात घमंड या अहंकार। मान समझता है कि मै ऊँचा,
बाकि जग नीचा। मान कह्ता है, मैं श्रेष्ठ हूँ जबकि
सब आत्माएं बराबर हैं, कोई बड़ी या
छोटी नहीं है। क्रोध को दूसरे का
अस्तित्व स्वीकार्य नहीं होता और
मान को दूसरे का अस्तित्व अपने बराबर स्वीकार
नही होता। क्रोध कह्ता है दूसरा मिटना चाहिये, मान
कह्ता है दूसरा झुकना चाहिये। क्रोध मिटाना चाहता है, मान
झुकाना चाहता है।
मानी व्यक्ति यूँ चलता है मानो वह चौड़ा और
गली संकरी । सबको अपने से
हीन समझता है। इसके अतिरिक्त अपने को दूसरों
से श्रेष्ठ समझना तो मान है ही अपने आपको
दूसरोँ से हीन मानना भी मान है।

“माया ”

छल-कपट को माया कहते हैं। क्रोध मिटाना चाहता है,मान झुकाना
चाहता है, माया लूटना चाहती है। माया न तो दूसरे को
मिटाती है न झुकाती है बल्कि अवसर
पड़ जाए तो खुद झुक सकती है। पर उसका
उद्देश्य है-लूटना। कैसे? आप की जेब का माल
उसकी जेब मे आ जाये। दूकानदार इसका सर्वोत्तम
उदाहरण हैं। मायाचारी जीव के मल में
कुछ और होता है, वह कहता कुछ और है और करता उससे
भी अलग है। छल-कपट लोभी
जीवों को बहुत होता है।

“लोभ ”
लोभ बहुत खतरनाक कषाय है। इसे तो पाप का बाप कहा जाता
है। कोई चीज देखने पर ,यह मुझे मिल जाये,
लोभी सदा यही सोचा करता है।
कषायें बुरी चीज हैं पर ये उत्पन्न
होती क्यों हैं और मिटे कैसे?
मिथ्यात्व (उल्टी मान्यता) के कारण परपदार्थ या तो
इष्ट (अनुकूल) या अनिष्ट (प्रतिकूल) मालूम पडते हैं,
मुख्यतया इसी कारण कषाय उत्पन्न
होती है। जब त्तत्त्वज्ञान के अभ्यास से
परपदार्थ न तो अनुकूल ही मालूम हो और न
प्रतिकूल, तब मुख्यतया कषाय भी उत्पन्न न
होगी।


BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
LIKE & COMMENT - https://jintirthdarshan.blogspot.com/
THANKS FOR VISITING.

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.