सम्यग्दर्शन
सम्यग=सच्चा, दर्शन=देखना अर्थात जो वस्तु जैसी है उसे उसी प्रकार देखना सम्यग्दर्शन है ! ऐसा श्रद्धांन बनाना है की मै आत्मा हूँ शरीर नहीं! ये शरीर मेरा स्वरुप नहीं है , मेरी एक पर्याय है ,जो की कर्मोदय से प्राप्त हुआ है! स्त्री,पुत्र ,धन ,धान्य आदि कर्म के उदय से,लाभांतराय के क्षयोपाशम से साता वेदनीय के उदय से प्राप्त हुए है,ये 'मेरे' नहीं है! जो जैसा होता है उसे वैसा ही देखा जाए तो उसे सम्यग्दर्शन कहते है! शरीर की वृद्धावस्था होने पर मात्र शरीर को ही वृद्ध मानना ,अपने आप (आत्मा)को वृद्ध नहीं मानना ,क्योकि वह कभी वृद्ध नहीं होता , वह मात्र ज्ञाता द्रष्टा है है,यह सम्यग्दर्शन है ।आत्म स्वरुप की प्रतीति, आत्म स्वरुप का विश्वास, वीतराग एवं वीतराग प्ररुपित तत्त्वों पर आस्था होना सम्यगदर्शन है।
सम्यगज्ञान
सम्यगज्ञान - सच्चा ज्ञान ।
आत्मा का ज्ञान, आत्मा के विशुद्ध स्वरुप का ज्ञान सम्यगज्ञान है। सम्यग्ज्ञान से ही आत्मा यह निश्चय करती है की अनंत अतीत में भी पुदगल का एक कण मेरा अपना आत्मप्रदेश रूप नहीं हो सका, तब अनंत अनागत में वह मेरा कैसे हो सकेगा और वर्तमान के क्षण में तो उसके अपना होने की आशा ही कैसे की जा सकती है ? मैं-मैं हूँ और पुदगल पुदगल है।सिद्ध स्वरूपापेक्षा आत्मा कभी पुदगल नहीं हो सकती और पुदगल कभी आत्मा नहीं हो सकता। इस प्रकार का बोध होना सम्यग्ज्ञान है।आत्म विज्ञान की उपलब्धि सम्यग्ज्ञान है।आत्म विज्ञान हो जाने के पश्चात अन्य भौतिक ज्ञान का विशेष बोध ना होने पर भी आत्मा के मोक्ष प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। ज्ञान की अल्पता हानिकर नहीं है, उसकी विपरीतता ही भयंकर है।आत्मज्ञान यदि कण भर है तो भी वह मण भर भौतिक ज्ञान से अधिक श्रेष्ट है।
सम्यगचारित्र
सम्यग्चारित्र अर्थात सच्चा चारित्र ।
आत्मा के अस्तित्व पर सही प्रतीति हो जाने पर और आत्मा के स्वरुप का सही सही ज्ञान हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं किया जायेगा तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नहीं हो सकेगी। प्रतीति और उपलब्धि के साथ आचार आवश्यक और अनिवार्य है।हमने विशवास कर लिया की आत्मा है और यह भी जान लिया की आत्मा पुदगल से भिन्न है, परन्तु जब तक उसे पुदगल से पृथक करने का प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक अभिष्ट सिद्धि नहीं हो सकती।
सम्यग्दर्शन होने का फल यह है की आत्मा का अज्ञान, ज्ञान में परिणत हो गया। इसी तरह सम्यग्ज्ञान का फल यह है की आत्मा अपने विभाव को छोड़कर स्वभाव में पूर्ण स्थिर होने का प्रयत्न आरम्भ कर दे।विभाव मोह-जनित विकल्प और विकारों को छोड़कर स्व-स्वरुप रमण की परिपूर्णता में लीं हो जाना- सम्यग्चारित्र का ( पूर्ण) फल है। सारांश यह है की आत्म तत्त्व पर विश्वास हो, वह विश्वास विचार में बदले और विचार आचार में बदले तभी साधना परिपूर्ण होगी। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्ष के साधन बनते हैं, पृथक रूप से नहीं, यह ध्यान में रखना चाहिए।
सम्यग=सच्चा, दर्शन=देखना अर्थात जो वस्तु जैसी है उसे उसी प्रकार देखना सम्यग्दर्शन है ! ऐसा श्रद्धांन बनाना है की मै आत्मा हूँ शरीर नहीं! ये शरीर मेरा स्वरुप नहीं है , मेरी एक पर्याय है ,जो की कर्मोदय से प्राप्त हुआ है! स्त्री,पुत्र ,धन ,धान्य आदि कर्म के उदय से,लाभांतराय के क्षयोपाशम से साता वेदनीय के उदय से प्राप्त हुए है,ये 'मेरे' नहीं है! जो जैसा होता है उसे वैसा ही देखा जाए तो उसे सम्यग्दर्शन कहते है! शरीर की वृद्धावस्था होने पर मात्र शरीर को ही वृद्ध मानना ,अपने आप (आत्मा)को वृद्ध नहीं मानना ,क्योकि वह कभी वृद्ध नहीं होता , वह मात्र ज्ञाता द्रष्टा है है,यह सम्यग्दर्शन है ।आत्म स्वरुप की प्रतीति, आत्म स्वरुप का विश्वास, वीतराग एवं वीतराग प्ररुपित तत्त्वों पर आस्था होना सम्यगदर्शन है।
सम्यगज्ञान
सम्यगज्ञान - सच्चा ज्ञान ।
आत्मा का ज्ञान, आत्मा के विशुद्ध स्वरुप का ज्ञान सम्यगज्ञान है। सम्यग्ज्ञान से ही आत्मा यह निश्चय करती है की अनंत अतीत में भी पुदगल का एक कण मेरा अपना आत्मप्रदेश रूप नहीं हो सका, तब अनंत अनागत में वह मेरा कैसे हो सकेगा और वर्तमान के क्षण में तो उसके अपना होने की आशा ही कैसे की जा सकती है ? मैं-मैं हूँ और पुदगल पुदगल है।सिद्ध स्वरूपापेक्षा आत्मा कभी पुदगल नहीं हो सकती और पुदगल कभी आत्मा नहीं हो सकता। इस प्रकार का बोध होना सम्यग्ज्ञान है।आत्म विज्ञान की उपलब्धि सम्यग्ज्ञान है।आत्म विज्ञान हो जाने के पश्चात अन्य भौतिक ज्ञान का विशेष बोध ना होने पर भी आत्मा के मोक्ष प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। ज्ञान की अल्पता हानिकर नहीं है, उसकी विपरीतता ही भयंकर है।आत्मज्ञान यदि कण भर है तो भी वह मण भर भौतिक ज्ञान से अधिक श्रेष्ट है।
सम्यगचारित्र
सम्यग्चारित्र अर्थात सच्चा चारित्र ।
आत्मा के अस्तित्व पर सही प्रतीति हो जाने पर और आत्मा के स्वरुप का सही सही ज्ञान हो जाने पर भी जब तक उस प्रतीति और ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं किया जायेगा तब तक साधक की साधना परिपूर्ण नहीं हो सकेगी। प्रतीति और उपलब्धि के साथ आचार आवश्यक और अनिवार्य है।हमने विशवास कर लिया की आत्मा है और यह भी जान लिया की आत्मा पुदगल से भिन्न है, परन्तु जब तक उसे पुदगल से पृथक करने का प्रयत्न नहीं किया जाएगा तब तक अभिष्ट सिद्धि नहीं हो सकती।
सम्यग्दर्शन होने का फल यह है की आत्मा का अज्ञान, ज्ञान में परिणत हो गया। इसी तरह सम्यग्ज्ञान का फल यह है की आत्मा अपने विभाव को छोड़कर स्वभाव में पूर्ण स्थिर होने का प्रयत्न आरम्भ कर दे।विभाव मोह-जनित विकल्प और विकारों को छोड़कर स्व-स्वरुप रमण की परिपूर्णता में लीं हो जाना- सम्यग्चारित्र का ( पूर्ण) फल है। सारांश यह है की आत्म तत्त्व पर विश्वास हो, वह विश्वास विचार में बदले और विचार आचार में बदले तभी साधना परिपूर्ण होगी। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्ष के साधन बनते हैं, पृथक रूप से नहीं, यह ध्यान में रखना चाहिए।
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