ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

8 कर्म - कर्म कितने हैं ? और कौन कौन से हैं ?

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प्र. कर्म कितने हैं ? और कौन कौन से हैं ?*
उत्तर :-
*1. ज्ञानावरण कर्म* :-- जिन में ज्ञान को प्रकट न होने देने की प्रकृति हो उन कर्म वर्गणाओं को ज्ञानावरण कर्म कहते हैं । अथवा ज्ञानगुण को विकृत करने की शक्ति हो उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं ।
*इसके 5 भेद हैं ।*
*☆मतिज्ञानावरणकर्म* 
*☆श्रुतज्ञानावरणकर्म*
*☆अवधिज्ञानावरणकर्म*
*☆मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म*
*☆केवलज्ञानावरणकर्म*

*2. दर्शनावरणकर्म* :-- जिन कार्मण वर्गणाओं में अन्तर्मुख चैतन्य प्रकाश को प्रकट न होने देने की प्रकृति हो उन्हें दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
*इसके 9 भेद हैं ।*
*☆चक्षुदर्शनावरण*
*☆अचक्षुदर्शनावरण*
*☆अवधिदर्शनावरण*
*☆केवलदर्शनावरण*
*☆निद्रा*
*☆निद्रानिद्रा*
*☆प्रचला*
*☆प्रचला प्रचला*
*☆स्त्यानगृध्दि*

*3. वेदनीयकर्म*:-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव के सुख - दुःख होने की प्रकृति हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं ।
*इसके 2 भेद हैं ।*
*☆सातावेदनीय कर्म*
*☆असातावेदनीय कर्म*

*4. मोहनीयकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव के सम्यक्त्व और चरित्र भाव गुण के विकृत होने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं ।
*इसके 28 भेद हैं।*
*☆1} दर्शनमोहनीयकर्म- 3*
*1. मिथ्यात्व*
*2 . सम्यग्मिथ्यात्व*
*3 . सम्यक्प्रकृति*
*☆2} चारित्रमोहनीय - 25*
*अनन्तानुबन्धी - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*अप्रत्याख्यानावरण - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*प्रत्याख्यानावरण - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*संज्वलन - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*

*5 . आयुकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव को किसी एक शरीर में रोके रहने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें आयुकर्म कहते हैं ।
*इसके 4 भेद हैं ।*
*☆ मनुष्यायु*
*☆ देवायु*
*☆ तिर्यंचायु*
*☆ नरकायु*

*6 . नामकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में शरीर आदि की रचना होने की प्रकृति हो उन्हें नामकर्म कहते हैं ।!
*इसके 93 भेद हैं ।*
*☆ 1) गति -4*
*देवगति*
*मनुष्यगति*
*तिर्यंचगति*
*नरकगति*
*☆ 9) जाति - 5*
*एकेन्द्रिय*
*द्विन्द्रिय*
*त्रीन्द्रिय*
*चतुरिन्द्रिय*
*पंचेन्द्रिय*
*☆ 14) शरीर - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 17) अंगोपांग - 3*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*☆ 18) निर्माण*
*☆ 23) शरीरबन्धन - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 28) शरीरसंघात - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 34) संस्थान - 6*
*समचतुरस्र संस्थान*
*न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान*
*स्वाति संस्थान*
*कुब्जक संस्थान*
*वामन संस्थान*
*हुण्डक संस्थान*
*☆ 40) संहनन - 6*
*वज्रवृषभनाराच संहनन*
*वज्रनाराच संहनन*
*नाराच संहनन*
*अर्धनाराच संहनन*
*कीलक संहनन*
*असंप्राप्तासृपाटिका संहनन*
*☆ 48) स्पर्श - 8*
*हल्का*
*भारी*
*कठोर*
*मृदु*
*शीत*
*उष्ण*
*स्निग्ध*
*रुक्ष*
*☆ 53) रस -5*
*तिक्त (तीखा )*
*अम्ल (खट्टा )*
*कटु (कडवा )*
*मधुर (मीठा )*
*कषायला (तुरट )*
*☆ 55) गंध - 2*
*सुगंध*
*दुर्गंध*
*☆ 60) वर्ण - 5*
*कृष्ण (काला )*
*पीत (पीला )*
*नील (नीला )*
*रक्त (लाल )*
*श्वेत (सफेद )*
*☆ 64) आनुपूर्वी - 4*
*देवगत्यानुपूर्वी*
*मनुष्यगत्यानुपूर्वी*
*तिर्यंचगत्यानुपूर्वी*
*नरकगत्यानुपूर्वी*
*☆ 65) अगुरुलघु-1*
*☆ 66) उपघात-1*
*☆ 67) परघात-1*
*☆ 68) आतप-1*
*☆ 69) उद्धोत-1*
*☆ 70) उच्छवास-1*
*☆ 72) विहायोगति - 2*
*प्रशस्त विहायोगति*
*अप्रशस्त विहायोगति*
*☆ 73) प्रत्येक शरीर-1*
*☆ 74) साधारण-1*
*☆ 75) त्रस-1*
*☆ 76) स्थावर-1*
*☆ 77) सुभग-1*
*☆ 78) दुर्भग-1*
*☆ 79) सुस्वर-1*
*☆ 80) दुःस्वर-1*
*☆ 81) शुभ-1*
*☆ 82) अशुभ-1*
*☆ 83) सूक्ष्म-1*
*☆ 84) बादर-1*
*☆ 85) पर्याप्त-1*
*☆ 86) अपर्याप्त-1*
*☆ 87) स्थिर-1*
*☆ 88) अस्थिर-1*
*☆ 89) आदेय-1*
*☆ 90) अनादेय-1*
*☆ 91) यशःकीर्ति-1*
*☆ 92) अयशःकीर्ति-1*
*☆ 93) तीर्थंकर-1*

*7. गोत्र कर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में शरीर आदि की रचना होने की प्रकृति हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं ।
*इसके 2 भेद हैं ।*

*☆ उच्च गोत्र*
*☆ नीच गोत्र*

*8. अन्तराय कर्म*:-- जिसके उदय से *दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य* में विघ्न आवे उसे अन्तराय कर्म कहते हैं ।
*इसके 5 भेद हैं*
*☆ दानान्तराय*
*☆ लाभान्तराय*
*☆ भोगान्तराय*
*☆ उपभोगान्तराय*
*☆ वीर्यान्तरा*
*प्र. कर्म कितने हैं ? और कौन कौन से हैं ?*
उत्तर :-
*1. ज्ञानावरण कर्म* :-- जिन में ज्ञान को प्रकट न होने देने की प्रकृति हो उन कर्म वर्गणाओं को ज्ञानावरण कर्म कहते हैं । अथवा ज्ञानगुण को विकृत करने की शक्ति हो उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं ।
*इसके 5 भेद हैं ।*
*☆मतिज्ञानावरणकर्म*
*☆श्रुतज्ञानावरणकर्म*
*☆अवधिज्ञानावरणकर्म*
*☆मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म*
*☆केवलज्ञानावरणकर्म*

*2. दर्शनावरणकर्म* :-- जिन कार्मण वर्गणाओं में अन्तर्मुख चैतन्य प्रकाश को प्रकट न होने देने की प्रकृति हो उन्हें दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
*इसके 9 भेद हैं ।*
*☆चक्षुदर्शनावरण*
*☆अचक्षुदर्शनावरण*
*☆अवधिदर्शनावरण*
*☆केवलदर्शनावरण*
*☆निद्रा*
*☆निद्रानिद्रा*
*☆प्रचला*
*☆प्रचला प्रचला*
*☆स्त्यानगृध्दि*

*3. वेदनीयकर्म*:-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव के सुख - दुःख होने की प्रकृति हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं ।
*इसके 2 भेद हैं ।*
*☆सातावेदनीय कर्म*
*☆असातावेदनीय कर्म*

*4. मोहनीयकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव के सम्यक्त्व और चरित्र भाव गुण के विकृत होने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं ।
*इसके 28 भेद हैं।*
*☆1} दर्शनमोहनीयकर्म- 3*
*1. मिथ्यात्व*
*2 . सम्यग्मिथ्यात्व*
*3 . सम्यक्प्रकृति*
*☆2} चारित्रमोहनीय - 25*
*अनन्तानुबन्धी - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*अप्रत्याख्यानावरण - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*प्रत्याख्यानावरण - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*
*संज्वलन - 4*
*1 . क्रोध*
*2 . मान*
*3 . माया*
*4 . लोभ*

*5 . आयुकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में जीव को किसी एक शरीर में रोके रहने में निमित्त होने की प्रकृति हो उन्हें आयुकर्म कहते हैं ।
*इसके 4 भेद हैं ।*
*☆ मनुष्यायु*
*☆ देवायु*
*☆ तिर्यंचायु*
*☆ नरकायु*

*6 . नामकर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में शरीर आदि की रचना होने की प्रकृति हो उन्हें नामकर्म कहते हैं ।!
*इसके 93 भेद हैं ।*
*☆ 1) गति -4*
*देवगति*
*मनुष्यगति*
*तिर्यंचगति*
*नरकगति*
*☆ 9) जाति - 5*
*एकेन्द्रिय*
*द्विन्द्रिय*
*त्रीन्द्रिय*
*चतुरिन्द्रिय*
*पंचेन्द्रिय*
*☆ 14) शरीर - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 17) अंगोपांग - 3*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*☆ 18) निर्माण*
*☆ 23) शरीरबन्धन - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 28) शरीरसंघात - 5*
*औदारिक*
*वैक्रियिक*
*आहारक*
*तैजस*
*कार्माण*
*☆ 34) संस्थान - 6*
*समचतुरस्र संस्थान*
*न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान*
*स्वाति संस्थान*
*कुब्जक संस्थान*
*वामन संस्थान*
*हुण्डक संस्थान*
*☆ 40) संहनन - 6*
*वज्रवृषभनाराच संहनन*
*वज्रनाराच संहनन*
*नाराच संहनन*
*अर्धनाराच संहनन*
*कीलक संहनन*
*असंप्राप्तासृपाटिका संहनन*
*☆ 48) स्पर्श - 8*
*हल्का*
*भारी*
*कठोर*
*मृदु*
*शीत*
*उष्ण*
*स्निग्ध*
*रुक्ष*
*☆ 53) रस -5*
*तिक्त (तीखा )*
*अम्ल (खट्टा )*
*कटु (कडवा )*
*मधुर (मीठा )*
*कषायला (तुरट )*
*☆ 55) गंध - 2*
*सुगंध*
*दुर्गंध*
*☆ 60) वर्ण - 5*
*कृष्ण (काला )*
*पीत (पीला )*
*नील (नीला )*
*रक्त (लाल )*
*श्वेत (सफेद )*
*☆ 64) आनुपूर्वी - 4*
*देवगत्यानुपूर्वी*
*मनुष्यगत्यानुपूर्वी*
*तिर्यंचगत्यानुपूर्वी*
*नरकगत्यानुपूर्वी*
*☆ 65) अगुरुलघु-1*
*☆ 66) उपघात-1*
*☆ 67) परघात-1*
*☆ 68) आतप-1*
*☆ 69) उद्धोत-1*
*☆ 70) उच्छवास-1*
*☆ 72) विहायोगति - 2*
*प्रशस्त विहायोगति*
*अप्रशस्त विहायोगति*
*☆ 73) प्रत्येक शरीर-1*
*☆ 74) साधारण-1*
*☆ 75) त्रस-1*
*☆ 76) स्थावर-1*
*☆ 77) सुभग-1*
*☆ 78) दुर्भग-1*
*☆ 79) सुस्वर-1*
*☆ 80) दुःस्वर-1*
*☆ 81) शुभ-1*
*☆ 82) अशुभ-1*
*☆ 83) सूक्ष्म-1*
*☆ 84) बादर-1*
*☆ 85) पर्याप्त-1*
*☆ 86) अपर्याप्त-1*
*☆ 87) स्थिर-1*
*☆ 88) अस्थिर-1*
*☆ 89) आदेय-1*
*☆ 90) अनादेय-1*
*☆ 91) यशःकीर्ति-1*
*☆ 92) अयशःकीर्ति-1*
*☆ 93) तीर्थंकर-1*

*7. गोत्र कर्म* :-- जिन कर्म वर्गणाओं में शरीर आदि की रचना होने की प्रकृति हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं ।
*इसके 2 भेद हैं ।*

*☆ उच्च गोत्र*
*☆ नीच गोत्र*

*8. अन्तराय कर्म*:-- जिसके उदय से *दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य* में विघ्न आवे उसे अन्तराय कर्म कहते हैं ।
*इसके 5 भेद हैं*
*☆ दानान्तराय*
*☆ लाभान्तराय*
*☆ भोगान्तराय*
*☆ उपभोगान्तराय*
*☆ वीर्यान्तरा*

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