ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

श्री रिषभदेव जी ( आदिनाथ )

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वर्तमान में अवसर्पिणी काल का पंचम आरक प्रवहमान है | सदगुरू सुमति में प्रकट प्रकाश के आधस्त्रोत्र के दर्शन हेतु हमें सुदीर्घ अतीत मे लौटना है | सुषम-दुषम नामक त्रतीय आरक का अधिकांश भाग व्यतीत हो चुका था | चौरासी लाख पुर्व तीन वर्ष और साढे आठ मास शेष थे | उस अवधि में आषाढ क्रष्ण चतुर्थी के दिन अन्तिम से च्यवकर एक महान पुण्यवान आत्मा का अवतरण हुआ | दिशाएं आलोकित हो उठीं | प्रक्रति मुस्कुरा उठी | नरक की निदाघ ज्वालाओं में जल रहे प्राणियों ने भी मुहुर्त्त भर के लिए सुख का अनुभव किया | रात्रि के पश्चिम प्रहर में माता मरुदेवी ने चौदह स्वपन देखे | वे स्वपन इस प्रकार थे -
(१)दुग्ध धवल व्रषभ को अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखा , (२) चार दांतो वाला गजराज ,(३)केसरी सिंह , (४)कमलासन पर विराजित लक्ष्मी ,(५)पुष्प माला ,(६) पुर्ण चन्द्र ,(७)देदीप्यमान सुर्य , (८) लहराती हुई ध्वजा ,(९)स्वर्ण कलश , (१०)पदम-सरोवर , (११)क्षीर सागर , (१२) देव विमान , (१३)रत्नराशि और (१४) धुमरहित अग्नि | तीर्थंकर देव जन्म से ही मति , श्रुत और अवधि -इन तीन ज्ञानों से सम्पन्न होते हैं | महाराज नाभिराय और मरुदेवी के नन्दन रिषभ भी उक्त तीन ज्ञानों के धारक थे |
युवावस्था में यौगलिक परम्परानुसार रिषभदेव का विवाह सहजाता सुमंगला नामक कन्या से हुआ | सुनन्दा नामक एक अन्य कन्या से भी उनका विवाह हुआ | कालक्रम से सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को तथा सुनन्दा ने बाहुबली आदि ९८ पुत्रों और सुन्दरी नामक पुत्री को जन्म दिया | नगर -निर्माण और रज्य -व्यवस्था का सुत्रपात रिषभदेव ने किया | जनता की प्रार्थना पर वही सर्वप्रथम राजा भी बने | कर्मयुग के प्रवर्तन मे रिषभदेव ने भरत , बाहुबली , ब्राह्मी ,सुन्दरी आदि अपने पुत्र -पुत्रियों का सहयोग लिया और उनको विभिन्न दायित्व सौंपे |
८३ लाख पुर्व की अवस्था तक रिषभदेव ग्रहवास में रहे | इस अवधि में उन्होनें संसार को कर्म का पाठ पढाया | कर्म की द्रष्टि से विश्व के व्यवस्थापन के पश्चात रिषभदेव ने आत्मकल्याण और धर्मशासन की स्थापना का संकल्प किया | भगवान के मन: संकल्प को ज्ञात कर जीत व्यवहार के पालन हेतु नौ लौकान्तिक देवों ने उपस्थित हो भगवान के संकल्प का अनुमोदन किया | तत्पश्चात एक वर्ष तक वर्षीदान देकर रिषभदेव ने चैत्र क्रष्णा नवमी के दिन प्रव्रज्या अंगीकार की | भगवान रिषभदेव की प्रव्रज्या अवसर्विणी काल की द्रष्टि से आध्यात्मिक -उत्क्रान्ति का प्रथम क्षण था | रिषभदेव अध्यात्म के शिखरारोहण हेतु मौन और ध्यान में संलग्न रहने लगे | क्योंकि रिषभदेव युग के प्रथम भिक्षु थे , इसलिए वह युग भिक्षु के स्वरुप , मर्यादा और भिक्षाव्रत्ति आदि से अनभिज्ञ था | सो भगवान रिषभदेव पारणक हेतु नगर मे पधारते , तो लोग एक सम्राट के समान उनका अभिनन्दन तो करते , हाथी , घोडे , मणि - माणिक्य उन्हें भेंट करते , परन्तु एषणीय आहार बहराने का किसी को विचार नहीं आता | भगवान भिक्षा हेतु द्वार-द्वार पर जाते , पर भिक्षा प्राप्त न होने से लौट जाते | इससे लोग निराश होते | भगवान उनके द्वारों पर आते हैं , पर बिना कोई भेंट लिए लौट जाते हैं , इससे लोगो के ह्रदय वेदना से भर जाते थे | यह क्रम निरन्तर एक वर्ष तक चलता रहा|
बैसाख शुक्ल त्रतीया के दिन मध्याह्न मे प्रभु भिक्षार्थ पधारे | हस्तिनपुर के राजप्रासाद के समीप आए | बाहुबलि के पौत्र राजकुमार श्रेयांस की द्रष्टि प्रभु पर पडी | प्रभु को देखते ही राजकुमार को जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हो गई | उसने ज्ञान के प्रकाश में जाना कि भगवान एक वर्ष से उपवासी हैं | ज्ञानबल से भिक्षाविधि का बोध उसे प्राप्त हुआ | उसने प्रभु को भिक्षा के लिए प्रार्थना की | एषणीय आहार का सुयोग पाकर प्रभु ने करांजलि फ़ैला दी |श्रेयांस ने इसु रस से भगवान का पारणा कराया | एक हजार वर्षो की साधना के पश्चात फ़ाल्गुन क्रष्ण एकादशी के दिन पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उधान में वट व्रक्ष के नीचे ध्यानस्थ प्रभु रिषभ ने घनघाती कर्मों का क्षय कर केवल-ज्ञान ,केवल-दर्शन प्राप्त किया | त्रिलोकों में आलोक और सुख का प्रसार हो गया | देवों ,देवियों और भरत आदि नरेन्दों ने उपस्थित होकर प्रभु का कैवल्य महोत्सव मनाया |
भगवान रिषभदेव के धर्मशासन में लाखों भव्य जीवों ने आत्म-कल्याण का पथ- प्रशस्त करके निर्वाण रुपी परम लाभ प्राप्त किया | प्रभु रिषभ काल की द्रष्टि से आदि गुरु हैं | उन्होनें विश्व को अकर्मण्यता के अन्धकार से निकालकर कर्म और धर्म के पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया | कर्म और धर्म -इन दोनों द्रष्टियों से वे विश्व के आदि संस्कर्त्ता , प्रवर्तक और सदगुरू हैं | अध्यात्म के आलोक की प्रथम किरण उन्हीं से प्रकट हुई | उनके बाद के तेईसों तीर्थंकर ने उन द्वारा प्रकट सत्य को पुन: -पुन: उदघाटित किया | जो प्रभु रिषभ ने कहा , वही शेष तीर्थंकरो ने भी कहा | वर्तमान मे उपलब्ध आगम वाड:मय भी उसी सत्य का उदघोष है |
भगवान रिषभदेव के रिषभ आदि चौरासी गणधर थे | चौरासी हजार श्रमण , ब्राह्मी-सुन्दरी आदि साढे तीन लाख श्रामणियां ,श्रेयांस आदि साढे तीन लाख श्रावक एवं सुभद्रा आदि पांच लाख चौपन हजार श्राविकाएं प्रभु के धर्म परिवार का अंग थीं | त्रतीय आरक की समा्प्ति में जब तीन वर्ष और साढे आठ मास शेष थे , तब माघ क्रष्ण त्रयोदशी के दिन भगवान रिषभदेव ने दस हजार श्रमणों के साथ अष्टापद (कैलाश ) पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया |
भगवान के चिन्ह का महत्व
व्रषभ -यह प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का चिन्ह है | रिषभ गौ वंश का स्वामी है | इसे शास्त्रों में भार वहन में समर्थ ,कठोर परिश्रमी तथा अत्यन्त बलिष्ठ माना गया है | यह शाकाहारी होने के कारण घास -पात खाकर भी इतना बलवान होता है कि कंधो पर लिए भार को किनारे तक पहुंचाता है | इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें जो उत्तरदायित्व मि्ला है उसे रिषभ की तरह पूरी शक्ति लगाकर पूरा करना है | रिषभ क्रषि का आधार होने के कारण स्रष्टि का परोपकारी जीव है | यह शिवशंकर का भी वाहन है | सरलता , सात्विकता का भी जीवन -संदेश देता है |
RISHABHDEV BHAGAVAN, THE FIRST TIRTHANKAR - 1
"He was the first king of this age and also the first ascetic. Who also was the first ford-maker (Tirthankar), my salutations to hat Rishabh Swami." -Acharya Hem Chandra
According to the Jain measurement of cosmic time one cycle of time has two divisions. These two divisions, ascending time-cycle there is a gradual improvement in physical and mental conditions, including physical strength, health, happiness and simplicity, of beings as well as climatic and life supporting conditions. During the descending time-cycle there is a gradual deterioration in these conditions.
The Age of the Twins
During the first three Aras of the current descending cycle man was completely dependent on nature for all his needs. The wish-fulfilling trees provided all that he needed. Man was simple, peaceful and contented in attitude. The environment was absolutely unpolluted. Water was tasteful, cold, and sweet. Even the sand was sweet as sugar. The air was healthy and exhilarating. The grains and fruits were nutritious and filing. A simple meal of little quantity of fruit and water lasted for days. Filled stomach and satisfied desires acted as antidote to irritation and reduced disputes and other sinful activities. The whole animal kingdom lived in harmony with the nature.
With the passage of time gradual changes occurred and around the end of the third Ara the yield from the Kalpa-vrikshas reduced. The alround deterioration in conditions spelled the beginning of quarrels and disputes. To guard against these disputes and to live in peace and harmony, man formed groups and the Kulkar system was evolved. A number of people collected to form a ‘Kula’ (family) and the head of the group was called ‘Kulkar’. It was the duty of the ‘Kulkar’ to remove discord and establish order. Nabhiraja was the seventh and the last in the line of Kulkars. His wife was Marudeva. This epoch of Kulkar system was known as the epoch of twins (Yugalia). A human couple used to give birth to a twin- one male and one female. This twin would become husband and wife on reaching adulthood. The twins used to lead a happy and contented life and died a natural death together.
To consume what was available was the way of life. As such this period was also known as Bhog-Bhumi-Kaal or the era of free consumption. Upto the time of Kulkar Nabhiraja man lived in this land of abundance.
Birth of Rishabhdev
It was during the last part of the third Ara of the current descending cycle of time that the great and pious soul that was to become Rishabhdev descended into the womb of Marudeva on the fourth day of the dark half of the month of Ashadh during the night.
In the ancient Jain scriptures it is mentioned that during many previous births, the soul that was to be Rishabhdev had done prolonged spiritual practices. As a result of high degree of purity of thoughts and attitude as well as penance, meditation, charity and benevolent deeds it had earned highly pious Karmas.
In his incarnation as Dhanna, the caravan leader, he had offered alms and services to ascetics and others. As doctor Jivanand he had taken ample care of ailing masses as well as ascetics. As king Vajranabh he had supported poor and desolate masses. After many years of public services to ascetics and others. As doctor Jivanand he had taken ample care of ailing masses as well as ascetics. As king Vajranabh he had supported poor and desolate masses. After many years of public service Vajranabh renounced the world and became an ascetic. As a result of unprecedented spiritual practices, including religious studies, penance, tolerance, and meditation, he earned Tirthankar-nam-and-gotra-karma. These pious deeds of earlier births resulted in his taking birth as Rishabhdev.
When this pious soul was conceived, mother Marudeva dreamt of fourteen auspicious things. The first thing she saw in her dream was that a beautiful and large white bull was entering her mouth. The other things she saw in her dream are as follows:
2. A giant elephant having four tusks,
3. A lion,
4. Goddess Laxmi seated on a lotus,
5. A garland of flowers,
6. The full moon resplendent in the sky,
7. The scintillating sun,
8. A fluttering flag,
9. A golden urn,
10. A pond full of lotus flowers,
11. A sea of milk,
12. A space vehicle of gods,
13. A heap of gems,
14. Smokeless fire,
Nabhiraja was an experienced and scholarly person. When he heard about these dreams from Maudeva, he said, "Devi! You will give birth to a highly endowed soul who will show the path of peace and happiness to this world"
Birth Celebrations
On the eighth day of the dark half of the month of Chaitra, around midnight, healthy Marudeva gave birth to twins. This pious birth influenced the surroundings. The sky became filled with a soothing glow, the wind became fragrant and the whole atmosphere became impregnated with unprecedented joy that was hard to describe.
From all around came the fifty six goddesses of directions. They circumambulated the Tirthankar’s mother and bowed before her. They also sang in praise of the child that was to become Tirthankar and then proceeded to perform post-birth cleaning rituals.
At that instant the king of gods of the Saudharm dimension, Saudharmendra Shakra, also came to know that the first Tirthankar has taken birth. He arrived with his large retinue of gods and, bowed before the mother,
"O great mother! I, Saudharmendra Shakra, bow before you and offer my salutations."
After the salutations the mother was put to sleep. Saudharmendra created five look alike bodies of himself. With one body he carefully lifted the baby in his hands. With the second body he took an umbrella in his hands and stationed the body behind the baby. With the third and fourth bodies he took whisks and stationed these bodies on both sides of the baby. With the fifth body he lifted his divine weapon, Vajra, and stationed himself ahead of the baby as a body guard. In this formation the king of gods airlifted the baby to Meru mountain. There, all gods, including their 64 kings with their consorts, ceremoniously performed the post-birth anointing rituals.

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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