परमात्मपने का कार्य निश्चित करें :-
कहते हैं कि राई की ओट में पर्वत छिपा रहता है,
किन्तु उस राई की ओट को भी कोई सदगुरू ही हटा सकता है।
यह पर्दा आत्मा पर नहीं, बल्कि आपकी आँख पर पड़ा होता है।
आपका आत्मदेव तो सदाकाल निर्वस्त्र ही रहता है,
आपका आत्मदेव तो सदाकाल प्रत्यक्ष ही है,
आपका आत्मदेव तो सदाकाल हाथ में रखी वस्तु के समान स्पष्ट सामने है।
बस आपके अन्तरंग में उसको देखने की क्षमता या द्रष्टि आनी चाहिए।
सदगुरू इस आत्म-द्रष्टि का ज्ञान बताकर आपके खुद के उस आत्मदेव से आपका का मिलन करा देता है।
शिष्य के ज्ञान के लिए गुरू की उपस्थिति मात्र पर्याप्त होती है.
क्योकि आत्मज्ञान में सदगुरू की अनिवार्यता होती ही है।
इसीलिए आत्मा की उपलब्धि में सदगुरू का महत्व सर्वोपरि रहता है.
सच्चे ज्ञानार्थी को सदगुरु ही सहायता करता है,
सच्चे ज्ञानार्थी को सदगुरु ही मार्ग दिखाता है,
किन्तु निज चैतन्य परमात्मा की उपलब्धि तो स्वयं की पात्रता के बिना नही होती है.
शिष्य की पात्रता के लिए आवश्यक हैं –
1. उसकी मुमुक्षुता,
2. सच्ची श्रध्दा,
3. चैतन्य की लगन
4. तत्व पर केन्द्रित बुद्धि
5. समर्पण-भाव
6. विनम्रता
7. तथा खुद के समस्त ज्ञान को कुज्ञान मानकर त्यागना.
जहां ये सभी विशेष गुण मिल जाते हैं,
वहीं आपके परमात्मपने का कार्य निश्चित ही हो जाता है.
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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