ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

चैत्यवंदन

Chaityavandan Sutra
भगवान तुम्हारे दर्शन से,
सम्यक् दर्शन मिल जाता है।
तुम चरणों मे वंदन से,
निज अंतर मन खिल जाता है।

मंदिर शांति का धाम है। यहां आकर मनुष्य को शांति प्राप्त होती है। जिन चैत्य अत्यंत व्यापक, सार्थक शब्द है। जहां आकर हमे आत्मतत्व प्राप्ति की राह मिलती है। असंख्य भव्य जीवों ने यहां आकर आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर मोक्षपद को प्राप्त किया।

चैत्यवंदन, जिनबिम्ब आदि वंदन करने से शुद्ध भाव की वृद्धि होती है। यही शुभ भाव की वृद्धि से उत्तरोत्तर सम्यक दर्शन आदि विशुद्ध धर्म की प्राप्ति और भविष्य में सर्व कर्म मुक्ति का महत्वपूर्ण कार्य भी चैत्यवंदन से सिद्ध होते है।

चैत्य का दूसरा अर्थ चित्त यानि अन्तःकरण या मन भी है। अन्तःकरण का भाव अथवा अन्तःकरण क्रिया, उसका नाम चैत्य है। अरिहंतों की प्रतिमाएं अनंतःकरण की प्रशस्त समाधि को पैदा करने वाली होने से " चैत्य " कहलाती है।

पूर्वाचार्यो ने " चैत्यवंदन " को इस तरह परिभाषित किया है। " चैत्यवंदनतः सम्यक, शुभ भाव प्रजायते। तस्मात् कर्मक्षयः सर्व, ततः कल्याणम खुते "।

अर्थात- चैत्य अर्थात जिन मंदिर अथवा श्री जिनबिम्ब के सम्यक रीति से वंदन करने से शुभ भाव उत्पन्न होते है। शभ भाव से कर्मो का क्षय होता है। कर्मक्षय से सर्व कल्याण की प्राप्ति होती है। मन, वचन, काया की प्रशस्त प्रवृत्ति का नाम ही " वंदन " है।

मन से ध्यान करना, वचन से स्तुति करना तथा काया से अष्टद्रव्य से पूजा आदि करना भी वंदन कहलाता है। यह सब क्रिया करने भव भव में जिनधर्म की प्राप्ति होती है, अंत में जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःखों से छुटकारा मिलकर मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। चैत्यवंदन यानी अरिहंतो की प्रतिमाओं का वंदन पूजन, स्तुति, जप करने से सम्यक दर्शन आदि आत्म गुणों की प्राप्ति और कर्मक्षय की सिद्धि होती है।

मूल गाथा मे मंगलाचरण से प्रारंभ किया गया है। उसी प्रकार विवेचन के प्रारंभ मे हम " धर्म तीर्थ स्थापक सभी तीर्थंकरो के चरणो मे कोटि कोटि वंदन " और " विद्यादेवी सरस्वती माता को प्रणाम " ।

आगमों के अनुसार चैत्यवन्दन भाष्य का प्रारम्भ करते है।

तीन लोक के नाथ तीर्थंकर परमात्मा ने धर्मतीर्थ कि स्थापना कर जगत् के जीवो पर महान उपकार किया है। जगत् मे जो कुछ भी शुभ और सुख है वह परमात्मा का ही प्रभाव है ।

तीर्थंकर परमात्मा का उपकार हम किसी भी हाल मे नहि चूका सकते है। ऐसे तारक परमात्मा के प्रति कृतज्ञता भाव अभिव्यताक करने के लिए उनका रोज़ स्मरण, वंदन करना अपना प्रथम अनिवार्य कर्तव्य है।

इस कल मे परमात्मा साक्षात् नहीं है अतः उनकी भक्ति का माद्यम (medium) जिन प्रतिमा है। ऐसे तारक जिनेश्वर परमात्मा के दर्शन-वंदन-पूजन संबंधी जानकारी को हमें पराम् पूज्य देवेंद्रसूरिजि ने बताया है चैत्यवंदन भाष्य की रचना कर के।

इस ग्रन्थ मे जिन मन्दिर मे प्रवेश से लेकर बाहर निकल ने तक मार्ग बतलाया है।

प्रमार्जन त्रिक:-

जिस भूमि पर बेठकर चैत्यवंदन करना हो ,उस भूमि पर जीव-रक्षा के लिए सर्व प्रथम अपने उत्तरासंग से तीन बार भूमि का प्रमार्जन कर लेना चाहिए । पौषधव्रतधारी को भूमि का प्रमार्जन चरवले से एवं सधु-साध्वीजी भगवंतों को ओघे से प्रमार्जन करना चाहिए ।

प्रमार्जनत्रिक का मुख्य उद्देश जयणा धर्म का पालन करना । बिन पूंजे-प्रमार्जन किए कहीं पर भी बैठ जाने से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा की संभावना रहती है।उन जीवों की रक्षण के लिए इस त्रिक का अवश्य पालन करना चाहिए ।

त्रिदिशि त्याग त्रिक :-

जिनेश्वर भगवंत के मुख पर दृष्टि स्थापित कर ऊपर,नीचे और आसपास अथवा पीछे , दाईं तथा बाईं ओर इन तीन दिशाओं में देखने का त्याग करना चाहिए ।

चैत्यवंदन करते समय इस त्रिक के माध्यम से ऊपर-नीचे और आसपास की अथवा पीठ पीछे , अपनी बाईं और दाईं ओर की दिशाओं में देखना छोड़ देना चाहिए और अपनी दृष्टि प्रभु पर स्थिर कर देनी चाहिए । दृष्टि घूमेगी तो मन भी घूमेगा , अत: मन को स्थिर करने के लिए अपनी दृष्टि को स्थिर करना बहुत जरुरी है ।

तीन प्रकार के चैत्य वंदन

(1) जघन्य
(2)मध्यम
(3)उत्कृष्ट

(1) जघन्य चैत्यवंदना :-

"नमो जिणाणं" बोलते हुए जो अंजलि बद्ध प्रणाम किया जाता है उस एक पद रुप नमस्कार द्वारा , 1 श्लोक द्वारा , यावत् 108 श्लोक द्वारा और 1 नमुत्थुणं सूत्र द्वारा इस प्रकार पाँच प्रकार से जो प्रभु की स्तवना करते हैं , वह जघन्य चैत्यवंदना है ।

(2)मध्यम चैत्यवंदन :-

नमुत्थुणं सूत्र व अरिहंत चेइयाणं बोलकर 1 नवकार का कायोत्सर्ग कर,उपर जो एक थोय(स्तुाति) बोली जाती है , उसे मध्यम चैत्यवंदन कहते हैं ।

अथवा

दो दंडक सूत्र और दो स्तुति द्वारा मध्यम चैत्यवंदन होता है । इसमें शक्रस्तव (नमुत्थुणं) व चैत्यस्तव (अरिहंत चेइयाणं) ये दो दंडक तथा अध्रुव व ध्रुव दो स्तुति बोलें ।

भिन्न-भिन्न तीर्थंकर अथवा चैत्य संबंधी स्तुति को अध्रुव स्तुति और लोगस्स के माध्यम से 24 प्रभु के नाम की सत्त्वना को ध्रुवस्तुति कहते है

हाल में यह विधि प्रचलित नहीं है , अथवा

दंड अर्थात नमुत्थुणं आदि 5 सूत्र मिलकर 1 दंडक और 4 थोय के जोड़े में से प्रथम तीन वंदना स्तुति व अंतिम चौथी को अनुशास्ति स्तुति कहते हैं । इस प्रकार वंदना व अनुशास्ति के युगले को "थुइ जुअलं" कहते हैं ।इस प्रकार 4 थोय के 1 जोड़ावाले चैत्यवंदन को मध्यम चैत्यवंदना कहते हैं ।

(3)उत्कृष्ट चैत्यवंदना :-

नमुत्थुणं आदि पाँच दंडक सूत्र अथवा पाँच बार नमुत्थुणं और स्तुति चतुष्क के दो युगल द्वारा 8 थोय , स्तवन , जांवति चेइयाइं , जावंत केवि साहू , एवं जय वीयराय इन तीन प्रणिधान सूत्रों द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है । पौषध के देववंदन में यह चैत्यवंदन होता है ।

उत्कृष्ट चैत्यवंदन करने के लिए पौषध/समामिक में रहना जरुरि नहिं । यह करने के लिए 30 minute लगते है अनुकुलता हो ता सामायिक ले , एक सामायिक 48 minutes का होता है। यह जिनालय/मंदिर में भि कर सकते है ।

वर्तमान काल मे तों पूर्वाचार्यों के अनुसार चैत्यवंदन की जो विधि प्रचलित हो , उसके अनुसार चैत्यवंदना करनी चाहिए ।

आलंबन त्रिक :-
आलंबन अर्थात् सहायक वस्तु या माध्यम जिससे हम परमात्मा का स्मरण या आराधना कर सके ।आंलबन में तीन तरिके :
(1) वर्ण
(2) अर्थ
(3) प्रतिमा
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(1) वर्ण/सूत्र आलंबन:-

चैत्यवंदन करते समय चैत्यवंदन के जो भी सूत्र है उनका स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए । सूत्रों में आनेवाले ह्रस्व - दीर्घ अक्षर, संपदा (विराम स्थल) आदि का पूरा-पूरा ख्याल रखना चाहिए अर्थात् सूत्रों का उच्चारण नतो बहुत जोर से चिल्लाते हए करना चाहिए और न ही अत्यंत मंद स्वर से,अपने भावों में अभिवृद्धि हो,उस ढंग से उत्साह-उल्लास के साथ सूत्रों का उच्चारण करना चाहिए ।आस-पास में अन्य भक्तजन चैत्यवंदन आदि कर रहे हों तो उन्हें बाधा,अंतराय रुप न हो,इस ढंग से सूत्रों का उच्चारण करना चाहिए ।

सूत्रों के सही उच्चारण को वर्ण आलंबन कहते हैं।

चैत्यवंदन(देववंदन) संबधी सूत्रों में किस सूत्र में कितने अक्षर है।

सूत्र अक्षरसंख्या
नवकार 68
खमासमण 28
इरियावहिय 199
शक्रस्तव 297
चैत्यस्तव 229
नामस्तव 260
श्रुतस्तव 216
सिद्धस्तव 198
तीन प्रणिधान सूत्र 152
कुल =1647

जग चिंतामणि” चैत्यवंदन सूत्र का रहस्य

जो भी मनुष्य “अष्टापद तीर्थ” की यात्रा खुद के बलबूते (लब्धि) से कर लेता है वह उसी भव में मुक्त हो जाता है” –
भगवान महावीर के ये वचन सुनकर श्री गौतम स्वामी अपनी
लब्धि से “सूर्य” की “किरणों” के सहारे “अष्टापद” पर्वत पर
आकाश मार्ग से पहुंचे.
अष्टापद तीर्थ पर बहुत से “तापस” अपनी तपस्या के जोर से
सिद्धि प्राप्त करते हुवे कुछ सीढ़िया चढ़ सके थे, परन्तु ऊपर
पहुँचने में खुद को असहाय पा रहे थे. (एक एक सीढ़ी १ योजन ऊँची
थी, इसलिए).
श्री गौतम स्वामी की लब्धि को देखकर वे आश्चर्य चकित हुवे
जब उन्होंने बड़े आराम से तीर्थ के दर्शन कर लिए.
(जिन मंदिरों के दर्शन की महत्ता यहाँ पर सिद्ध हो जाती है –
यहाँ पर चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां उन के शरीर के माप के
अनुसार ही श्री भारत चक्रवर्ती ने भरवाई हैं और सभी
तीर्थंकरों की नासिका एक ही सीध में है. क्योंकि सभी के
शरीर का माप एक सा नहीं था, इसलिए स्थापना के समय
जमीन से “ऊंचाई” एडजस्ट करके सभी की नासिका एक ही
सीध में रहे, ऐसा किया गया).
सभी ने श्री गौतम स्वामी को अपना “गुरु” बनाने का निर्णय
किया. पर गौतम स्वामी ने कहा “मेरे भी गुरु हैं” – उन्हीं के पास
चलो.
जाने से पहले सभी १५०० तापसों को “तत्त्व” समझाकर दीक्षा
दी और अपनी लब्धि से “परमान्न” ( खीर ) का पारणा
करवाया.
उसी “अष्टापद तीर्थ” पर श्री गौतम स्वामीजी ने
“जगचिन्तामणि” चैत्यवंदन सूत्र की रचना की है.
किसी पहाड़ पर तीर्थ के जब हम दर्शन करने जाते हैं, तो हमारे
भाव” खूब ऊँचे होते हैं. फिर गौतम स्वामी जी द्वारा ऐसे दुर्गम
तीर्थ पर चढ़कर दर्शन करना जिससे उसी भव में “मोक्ष” की
गारंटी” हो गयी हो और फिर वहीँ “जग चिंतामणि” चैत्यवंदन
सूत्र की रचना करना – तो उसका “प्रभाव” कितना अधिक
होगा!
अष्टापद तीर्थ” पर “जग चिंतामणि” सूत्र की रचना करते समय
उन्हें “पालिताना” के श्री आदिनाथ भगवान याद आये,
गिरनार” तीर्थ के श्री नेमिनाथ भगवान याद आये, भरुच” के
श्री मुनिसुव्रतस्वामी याद आये, “टिन्टोइ” के श्री पार्श्वनाथ
भगवान याद आये और “सांचोर” के श्री महावीर स्वामी याद
आये. इससे हम इस सूत्र की ही नहीं, इन सब तीर्थ स्थानों की
भी महिमा समझ सकते हैं.
इसी स्तोत्र में वो आगे बात करते हैं अपने मन के उत्कृष्ट भावों
की :

१. तीनों लोकों में स्थित ८,५७,००,२८२ जिन मंदिरों को
प्रणाम करता हूँ.

२. जगत में १५,४२,५८,३६,०८० शाश्वत प्रतिमाओं को प्रणाम
करता हूँ.
ऐसे उत्कृष्ट भाव वाला सूत्र हमारे आचार्यों ने २५०० वर्षों से
संभालते हुवे हमें दिया है, जिसका उच्चारण करने मात्र से हम इतने
करोड़ जिन मंदिरों और अरबों प्रतिमाओं को ये सूत्र बोलने
मात्र से नमस्कार कर पाते हैं.

जगचिंतामणी -सुत्र

इस सूत्र का उपयोग भिन्न भिन्न समय पर किये जाने वाले चैत्यवंदन के प्रसंग पर होता है।इसकी पहली गाथा में चौवीस जिनवरों की स्तुति की गयी है, दूसरी गाथा में तीर्थंकर किस भूमि में पैदा होते हैं, उनका संघयण ( शरीर रचना ) कैसा होता है�उनकी उत्कृष्ट और जघन्य संख्या कितनी होती है तथा उस समय केवलज्ञानी और साधु कितने होते हैं, इसका वर्णन किया है।तीसरी गाथा में पांच सुप्रसिद्ध तीर्थों के मूल-नायकों को वंदन किया है।उसमें पहला नाम 1. शत्रुंजयगिरि का है जहाँ श्री आदिनाथ भगवान बिराजते है।दूसरा नाम श्री उज्जयन्तगिरि अर्थात् गिरनार का है जहाँ श्री नेमिनाथ प्रभु बिराजमान हैं।तीसरा नाम सत्यपुर अर्थात् साँचोर का हैं, जहाँ पर श्री महावीर जिनेश्वर विराजित है।चौथा नाम भृगु कच्छ अर्थात् भरूच का हैं जहाँ श्री मुनिसुव्रतस्वामि बिराजमान है।और पांचवां नाम मथुरा का है कि जहाँ पर एक समय श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भव्य चमत्कारिक मूर्ति बिराजमान थी।चौथी गाथा में शाश्वत चैत्यों की संख्या गिनकर उनकी वंदना की गयी है तथा पाँचवीं गाथा में शाश्वत बिम्बों की संख्या गिनकर उनकी वंदना की है।
यह चैत्यवंदन छन्दोबद्ध होने से सुन्दर- पद्धति से गाया जाता है।इसकी भाषा अपभ्रंश है।





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