उत्तर : यह संसार दोषमय है । यहां की जाने वाली हर प्रवृत्ति में कही ना कही पाप जुड़ा हुआ ही है ।
हम संसार का कोई भी कार्य पूर्णतया पाप-रहित होकर कर ही नहीं सकते । १८ पापस्थानकों में कोई ना कोई पाप हम से हो ही जाता है ।
कही माया है, कही मोह, कही क्रोध, कही छल । हम छोटी से छोटी बात में भी दुखी हो जाते है, और प्रतिक्रिया रूप किसी ना किसी को दुख दे देते है ।
यहां रहते हुए ना तो हम दोष-रहित राह सकते है और ना ही दोषों को रोक सकते है ।
उदाहरण : हम खुशी खुशी खाना खाने बैठे । खाना भी अच्छा ही दिख रहा है । जिसने बनाया उसने पूरी आत्मीयता से बनाया ।
यहां तक तो सब ठीक है ।
पर पहला कौर मुँह में रखते ही पता चलता है कि सब्जी में नमक ही नहीं डाला गया है ।
हो गया बंटाधार ।
हम तुरंत बोल पड़ते है क्या ऐसी सब्जी बनाई है, इसमे नमक ही नहीं है, एकदम फीकी है ।
फिर नमक मांगते है, और नमक मिलाकर खाना आराम से खा लेते है ।
पहले निवाले मे और दूसरे निवाले में मुश्किल से २ मिनिट का अंतराल होता है ।
पर इस २ मिनिट में हमने खाना बनाने वाले को दुखी कर दिया, स्वयं भी क्रोध के कारण अनमने ढंग से खाना खाया । और अगर समझ बरकरार है तो इस किस्से पर वाद में पछतावा भी कर लेते है ।
क्या हम बिना नमक का खाना नहीं खा सकते थे या यह बात प्यार से नहीं बोल सकते थे ।
पर नहीं हम सामान्यतया ऐसी छोटी - छोटी बातों पर उग्र प्रतिक्रिया ही देते है ।
स्वयं भी दुखी होते है और औरों को भी दुखी करते है ।
इसका कारण इस संसार का वातावरण । हम जिनके साथ रहते है, उठते बैठते है, उन सब से यही सीखते है, या उनको ऐसा करते हुए देखते है । इस तरह से जो दोष औरों में थे, वे हम में भी आ जाते है ।
यानी कि यहां रहकर हम किसी ना किसी दोष को कभी ना कभी, कही ना कही से ग्रहण करते ही रहेंगे ।
हर छोटी से छोटी क्रिया में सूक्ष्म हिंसा भी सम्मिलित है ।
इन सभी बातों से रहित सिर्फ एक जगह है और वो है *मोक्ष* ।
मोक्ष ही वह स्थान जहाँ दोषों का अभाव और और गुणों का सद्भाव है ।
इसलिए हम मोक्ष जाना चाहते है ।
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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