ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

मरने के बाद अपने जीव की दुर्गति किसी भी स्थिति में ना बने

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मरने के बाद अपने जीव की दुर्गति किसी भी स्थिति में ना बने ,
उसके लिए "अरिहंत" की शरण लेनी होगी. 

"शत्रुंजय" तीर्थ के लिए जा रहे सेठ मानक शा की "हत्या" 
लुटेरों ने की. यदि "अरिहंत" का ध्यान ना होता, तो "आर्त्त ध्यान" करके 
किसी "भूत/प्रेत" गति को प्राप्त होते.

परन्तु नहीं, मर कर बने "माणिभद्र वीर"
जो देवलोक में भी "अरिहंत" की आराधना करते हैं.

स्थान स्थान पर "अरिहंत" की प्रतिमा विराजमान करने का कारण यही है
कि कोई भी जैन तो क्या, कोई भी व्यक्ति "दुर्गति" को प्राप्त ना हो !

सेठ सिद्धराज ढढा पूर्व जन्म में "शत्रुंजय" तीर्थ पर
एक तोते के रूप में थे.
मर कर "जैन" धर्म पाया.

तीर्थ पर रहकर लोगों को भक्ति करते देखा
तो "देवाधिदेव आदिनाथ" पर उसकी भी भक्ति आयी

यदि "तीर्थ" ही ना होता,
तो उसका उद्धार हो जाता?

एक पशु या पक्षी "आत्म-साधना" कर सकता है?

विशेष:

"जानवर" भी "तीर्थ दर्शन" करके "धन्य" हो जाते हैं.
हम जानबूझकर कर सिर्फ अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए
"जैन मंदिर" को छोड़ कर
अन्य सब मंदिर चले जाते हैं.

"दुर्गति" हो सकने की आशंका को
"न्यौता" कौन दे रहा है?

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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