तीन सूत्र शाश्वत कहे गए हैं - नमस्कार सूत्र , करेमि भंते सूत्र एवं नमुत्थुणं सूत्र ।
जिस प्रकार इस लोक का न कोई आदि ( शुरुआत ) था , न कोई अंत है , यानि अनादि - अनंत है , उसी प्रकार नवकार भी अनादि कालों से है और अनंत काल तक रहेगा ।
ऐसा भी पढ़ा है की यह शब्द की अपेक्षा से गणधर द्वारा , अर्थ की अपेक्षा से तीर्थंकर द्वारा रचित हो सकता हक़ किन्तु भाव से तो शाश्वत ही है यानि इसका कोई रचनाकार नही है। शब्द और अर्थ की अपेक्षा से शायद इसलिए कहा क्योंकि जब किसी को नही आता होगा , तब किसी ने तो उसका पुनरावर्तन हो सकता है , किया हो ।
साधु पद के 27 गुण , उपाध्याय पद के 25 गुण । ये केवल स्थूल गुण हैं। साधु का ही प्रमोशन होकर उपाध्यय अथवा आचार्य पदवी का वहन होता है । यानि उपाध्याय भी पहले साधू थे । उनके तब 27 विशेष गुण थे । अब उपाध्याय हैं , तो पाठक के तौर पर विशेष 25 गुण हैं।
लोए का अर्थ लोक से है । उर्ध्व लोक ( देव लोक ) एवं अधो लोक ( नरक लोक ) में तो वैसे साधु साध्वी जी नही विचरते । अतः शायद यहाँ मध्य लोक के अढ़ाई द्वीप समझना चाहिए ।
णमो का अर्थ है नमस्कार हो , वंदन हो । यह विनय का द्योतक है । णमो अरिहंताणं और अरिहंताणं णमो का एक ही अर्थ है किन्तु फिर भी णमो शब्द पहले हैं। यह सिखाता है की गुणों को आत्मसात् करना है तो पहले झुकना पड़ेगा ।
नवकार का
बीजाक्षर
“णं” है.
(ध्यान की गहराई में ये प्रकट हुआ है)
“मंगलाणं च सव्वेसिं “
इस पद में भी
बीजाक्षर
“णं” है.
कुछ जैन सम्प्रदाय
“नमो” अरिहंताणं नहीं कहकर “णमो” अरिहंताणं
पद बोलते हैं.
चूँकि “णं” का प्रयोग नवकार में बार बार होता है
इसलिए पूरी श्रद्धा से मात्र एक नवकार भी “गुणे”
(गिने नहीं – गिनना मात्र संख्या पूरा करना है ,
गुणे – गुणना मन के भावों को पहले से अच्छा करना है,
जो “अब तक” किया है )
मात्र एक नवकार गुणने से अच्छा फल प्राप्त होता है,
तो हर श्रावक नवकार को ज्यादा ही गुणना चाहेगा.
विशेष :
“णं” का गहरा और शांतिपूर्वक
उच्चारण करते समय
कुछ “वायु” मुंह से बाहर निकलती है
(जिसे अशुभ कर्म, विचार, अशक्ति वगेरह जानें)
फिर जीभ तुरंत मुंह के “ऊपर के भाग” को टच करती है.
और फिर ध्वनि “नाभि-चक्र” तक पहुँच कर
वापस ऊपर की ओर उठती है.
वो गूँज (ध्वनि)
ह्रदय और गले से होती हुई
वापस मुंह तक पहुँचती है
और वहां से होकर वापस नाभि चक्र में जाकर
“स्थित” हो जाती है.
चूँकि “णं” का उच्चारण
पूरा होने पर मुंह बंद रहता है
इसलिए जो “शक्ति” प्रकट हुई है
वो “साधक” के पास सुरक्षित रहती है.
दूसरे बीजाक्षर ह्रीं, श्रीं इत्यादि अधिकतर मंत्र से पहले लगते हैं.
परन्तु “णं” बीजाक्षर शब्द के अंत में लगता है
जो उस शब्द के प्रभाव को साधक में स्थिर कर देता है.
“णं” के बारे में और जानिये :
नमुत्थुणं सूत्र का भी
बीजाक्षर
“णं” है.
उसमें 44 बार
“णं” का प्रयोग हुआ है.
और भी अनेक सूत्र हैं
जिनमें “णं” बीजाक्षर का प्रयोग हुआ है.
१. करेमि भंते में ७ बार
२. इरियावहियं में १ बार
३. अन्नत्थ में १४ बार
४. लोगस्स में में ७ बार
५. उवसग्गहरं में २ बार
६. जय वीयराय में ६ बार
७. कल्लाण कंदं में ५ बार
८. सिद्धाणं बुद्धाणं में ७ बार
९. इच्छामि ठामि में ५ बार
१०. नाणंमि दंसणंमि में ६ बार
११. सुगुरु वंदना में २ बार
१२. वंदित्तु में १४ बार
४३गाथा के अनुसार,
कहीं पर वंदित्तु ५० गाथा का भी है.
इससे ये बात प्रकट होती है
कि जैन धर्म के सूत्रों में “णं” अक्षर का प्रयोग खूब हुआ है.
इस बार संवत्सरी पर्व पर कल्पसूत्र जी का वाचन सुनो
तब गौर करना कि
उसमें “णं” बीजाक्षर का प्रयोग कितनी बार होता है…..
तेणं कालेणं तेणं समएणं ….”
श्री णमोकार महामन्त्र का प्रति दिन जाप करे
श्री णमोकार मन्त्र कि आराधना आप की मनोकामना पूर्ण कर
शाश्वत सुख को देने वाली हो
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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