ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

चिंतन धारा

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चिंतन धारा : धर्म धर्म हर कोई कहे ,धर्म ना जाने कोई , अपने को जाने बिना धर्म कहा से होय !! आज मे चिंतन किया की धर्म किसे कहते है ? हमारा जीवन में धर्म का महत्व क्या है ?क्या आप जो कुछ धर्म करते है उससे आपका अंदर से कोई परिवर्तन आया ?क्या धर्म क्रिया करके आपका लक्ष पूर्ण होगा?कभी आप ने अपनी अन्तरात्मा से बाते की?मुझे लगता है की धर्म की परिभाषा ही सबसे पहले समजना जरुरी है।धर्म शब्द ध्रु धातु से पड़ा है जिसका अर्थ होता है धारण करना। अपनी आत्मा को ही जानना मानना और धारणा उसको धर्म कहते है। क्या अपनी आत्मा कभी पर के आश्रय से प्राप्त हो सकती है? बिलकुल नहीं। उसके लिए तो आपको चैतन्य गुफा में गहराई तक जाना पड़ेगा और उसके लिए आत्मिक चिंतन मनन घोलन करना होगा तभी आपका आत्मिक गुफा का प्रवेश द्वार खुलेगा और टंकोत्कीर्ण रत्नत्रय जो आत्मा में ही समाये है ऐसे सम्यक दर्शन , सम्यक्ज्ञान,और सम्यक चारित्र प्रकाश में आएगा और एक समय मात्र की पर्याय में केवलज्ञान प्राप्त कर निजस्वरूप में स्थिर रहते अनादि अनंत शास्वत सुख की अनुभूति कर सकते है। स्वरूप की प्राप्ति के लिए हमें कुछ भी नहीं करना है क्योंकि कुछ भी करने का भाव ही कर्मबंध का कारण है इसलिए हमें जो हु सो हु ,त्रिकाल ध्रुव हु जो अपरिणामी अखंड अभेद है ,जो कारण परमात्मा है ऐसा परम पारिणामिक भाव जो मोक्ष का कारण है ऐसे शुद्धआत्मद्रव्यसामान्य भाव पर ही दृष्टि रखनी पड़ेगी और वो ही स्वभावदृष्टि से परमात्मा बन सकते है। हम पर द्रव्य का परिणमन कर सकते ही नहीं और कोई भी पर्याय भी बदल सकते ही नहीं है इसलिए हमें तो जो हो रहा उसको सिर्फ जानना देखना ही है और वैसा ही वस्तु स्वाभाव है।कितना सरल है कुछ भी नहीं करनेका पुरुषार्थ और हम जीव अज्ञानता से अनादि से वो सब किया जिसका हम सिर्फ ज्ञाता ही थे। तो अब अनादि की भूल सुधार के क्रमबद्ध पर्याय को स्वीकार कर ज्ञायक रहने का पुरुषार्थ करे। कुछ करने का पुरुषार्थ तो अनादि से है और ये पर्याय में कुछ नहीं करने का और ज्ञाता द्रष्टा रहने का पुरुषार्थ करे । सिर्फ ज्ञाता... ज्ञाता... ज्ञाता... ज्ञायक.... ज्ञायक....ज्ञायक...है ना कितना आसान 'धर्म'

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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