*आतम सदैव न्यारा है,*
*इस जड़ शरीर से!*
*ये रहस्य जान लो,*
*तुम वीर प्रभु से !!*
*तुम पुण्य पाप से परे,*
*हो सिद्ध के समान!*
*अनुभूति आत्मा की करो,*
*स्वयं बनो भगवान!!*
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मैं मन नही, मैं तन नही, जड़ वचन भी मैं हूँ नही!
त्रय योग से, सब कर्म से, जो भिन्न चेतन, मैं वही!!
(अज्ञात)
-----
भूल स्वयं के वैभव को यह ,
प्राणी गति-गति जाता है ।
सुख की गंध न पाता फिर भी,
मृग सम दौड़ लगाता है ।।
तृष्णा दाह निरन्तर दहती,
सेवन विषय सुहाता है।
सन्निपात का रोगी सा ,
दुख पाकर भी मुसकाता है।।
सपने सी माया दुनिया की,
ज्ञानी को कभी न छलती है।
दिन दूनी और रात चौगुनी ,
समता कान्तिमान दमकती है।
( अज्ञात)
-----
शुभ अशुभ विभाव भाव, यह नहीं तेरा स्वभाव।
राग- द्वेष पुण्य- पाप आदि सब विभाव भाव।।
अष्ट कर्म वेदना से तू है परेशान आज।
कर्म के ही बीज फिर से बो रहा कमाल है।।
(अज्ञात)
BEST REGARDS:-
ASHOK SHAH & EKTA SHAH*इस जड़ शरीर से!*
*ये रहस्य जान लो,*
*तुम वीर प्रभु से !!*
*तुम पुण्य पाप से परे,*
*हो सिद्ध के समान!*
*अनुभूति आत्मा की करो,*
*स्वयं बनो भगवान!!*
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मैं मन नही, मैं तन नही, जड़ वचन भी मैं हूँ नही!
त्रय योग से, सब कर्म से, जो भिन्न चेतन, मैं वही!!
(अज्ञात)
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भूल स्वयं के वैभव को यह ,
प्राणी गति-गति जाता है ।
सुख की गंध न पाता फिर भी,
मृग सम दौड़ लगाता है ।।
तृष्णा दाह निरन्तर दहती,
सेवन विषय सुहाता है।
सन्निपात का रोगी सा ,
दुख पाकर भी मुसकाता है।।
सपने सी माया दुनिया की,
ज्ञानी को कभी न छलती है।
दिन दूनी और रात चौगुनी ,
समता कान्तिमान दमकती है।
( अज्ञात)
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शुभ अशुभ विभाव भाव, यह नहीं तेरा स्वभाव।
राग- द्वेष पुण्य- पाप आदि सब विभाव भाव।।
अष्ट कर्म वेदना से तू है परेशान आज।
कर्म के ही बीज फिर से बो रहा कमाल है।।
(अज्ञात)
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