ज्ञान पंचमी की आराधना...
ज्ञान पंचमी - कार्तिक शुक्ला पंचमी अर्थात दीपावली के पाँचवे दिन मनाई जाती है। इस दिन विधिवत आराधना और ज्ञान की भक्ति करने से कोढ़ जैसे भीषण रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञान पंचमी संदेश देती है की ज्ञान के प्रति दुर्भाव रखने से ज्ञानावर्णीय कर्म का बंध होता है।अत: हमें ज्ञान की महिमा को हृदयंगम करके उसकी आराधना करनी चाहिए।
यथाशक्ति ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए और दूसरों के पठन पाठन में योग देना चाहिए, यह योगदान कई प्रकार से दिया जा सकता है...निर्धन विद्यार्थियों को श्रुत ग्रन्थ देना, आर्थिक सहयोग देना, धार्मिक ग्रंथों का सर्वसाधारण में वितरण करना, पाठशालाएं चलाना, चलाने वालों को सहयोग देना, स्वयं प्राप्त ज्ञान का दूसरों को लाभ देना आदि...ये सब ज्ञानावर्णीय कर्म के क्षयोपशम के कारण है।
विचारणीय है की जब लौकिक ज्ञान प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाली गुणमंजरी को गूंगी बनना पड़ा तो धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान में बाधा डालने वाले का कितना प्रगाढ़ कर्मबंध होगा...?
इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - हे मानव ! तू अज्ञान के चक्र से बाहर निकल और ज्ञान की आराधना में लग...ज्ञान ही तेरा असली स्वरुप है। उसे भूलकर क्यों पर-रूप में झूल रहा है...? जो अपने स्वरुप को नहीं जानता उसका बाहरी ज्ञान निरर्थक है ।
ज्ञान पंचमी के दिन श्रुत की पूजा कर लेना, ज्ञान मंदिरों के पट खोलकर पुस्तकों के प्रदर्शन कर लेना और फिर वर्ष भर के लिए उन्हें ताले में बंद कर देना...ज्ञानभक्ति नहीं है, इस दिन श्रुत के अभ्यास, प्रचार और प्रसार का संकल्प करना चाहिए।
आज ज्ञान के प्रति जो आदर वृति मंद पड़ी हुई है, उसे जाग्रत करना चाहिए और द्रव्य से ज्ञान दान करना चाहिए...ऐसा करने से इहलोक परलोक में आत्मा को अपूर्व ज्योति प्राप्त होगी साथ ही शासन और समाज का अभ्युदय होगा।.
ज्ञान पंचमी से जुडी प्रचलित कथा
भरतखंड में अजितसेन राजा का वरदत्त नामक एक पुत्र था।वह राजा का अत्यंत दुलारा था।उसका बोध(ज्ञान) नहीं बढ़ पाया।अच्छे कलाविदों एवं ज्ञानियों आदि के पास रखने पर वह ज्ञानवान नहीं बन सका।उसकी यह स्थिति देखकर राजा बहुत खिन्न रहता था।सोचता था की मुर्ख रहने पर यह प्रजा का पालन किस प्रकार करेगा ? राजा अजितसेन ने सोचा -" मैंने पुत्र उत्पन्न करके उसके जीवन-निर्माण का उत्तरदायित्व अपने सिर पर लिया है।अगर इस दायित्व को मैं ना निभा सका तो पाप का भागी होऊँगा।" इस प्रकार सोचकर राजा ने पुरस्कार देने की घोषणा करवाई की जो कोई विद्वान उसके राजकुमार को शिक्षित कर देगा उसे यथेष्ट पुरस्कार दिया जाएगा।मगर कोई भी विद्वान् ऐसा नहीं मिला जो उस राजकुमार को कुछ सिखा सकता।राजकुमार कुछ भी ना सीख सका।उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर ही रहा।शिक्षा के अभाव के साथ उसका शारीरिक स्वास्थ भी खतरे में पड़ गया।उसे कोढ़ का रोग लग गया।लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे।सैंकड़ों दवाएँ चलीं, पर कोढ़ ना गया ।ऐसी स्थिति में विवाह-सम्बन्ध कैसे हो सकता था ? कौन अपनी लड़की उसे देने को तैयार होता ?
एक सिंहदास नामक सेठ की लड़की को भी दैवयोग से ऐसा ही रोग लग गया। उस सेठ की लड़की गुणमंजरी भी कोढ़ से ग्रस्त हो गयी।वह लड़की गूँगी भी थी।उस काल में, आज के समान गूंगों, बहरों और अंधों की शिक्षा की सुविधा नहीं थी।कोई लड़का उस लड़की के साथ सम्बन्ध करने को तैयार नहीं हुआ।गूँगी और सदा बीमार रहने वाली लड़की को भला कौन अपनाता ?
एक बार भ्रमण करते हुए विजयसेन नामक एक धर्माचार्य वहाँ पहुँचे।वे विशिष्ट ज्ञानवान थे और दुःख का मूल कारण बतलाने में समर्थ थे।वे नगर के बाहर एक उपवन में ठहरे।ज्ञान की महिमा के विषय में उनका प्रवचन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने कहा-" सभी दुखों का कारण अज्ञान और मोह है।जीवन के मंगल के लिए इनका विसर्जन होना अनिवार्य है।" आचार्य महाराज की देशना पूरी हुई।सिंहदास श्रेष्टि ने उनसे प्रश्न किया -"महाराज ! मेरी पुत्री की इस अवस्था का क्या कारण है ? किस कर्म के उदय से यह स्थिति उत्पन्न हुई है ?" आचार्य ने उत्तर में बतलाया -" इसने पूर्वजन्म में ज्ञानावर्णीय कर्म का गाढ़ बंधन किया है।" वृत्तांत इस प्रकार है -" जिनदेव की पत्नी सुंदरी थी।वह पाँच लड़कों और पाँच लड़कियों की माता थी।सबसे बड़ी लड़की का नाम लीलावती था।घर में संपत्ति की कमी नहीं थी।उसने अपने बच्चों को इतना लाड़प्यार किया की वे ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके।" सुंदरी सेठानी के बच्चे समय पर पढ़ते नहीं थे। बहानेबाजी किया करते और अध्यापक को उल्टा त्रास देते थे।जब अध्यापक उन्हें उपालंभ देता और डांटता तो सेठानी उस पर चिड़ जाती।एक दिन विद्द्याशाला में किसी बच्चे को सजा दी गयी तो सेठानी ने चंडी का रूप धारण कर लिया।पुस्तकें चूल्हे में झोंक दीं और दूसरी सामग्री नष्ट-भ्रष्ट कर दी।उसने बच्चों को सीख दी -" शिक्षक इधर आवे तो लकड़ी से उसकी पूजा करना।हमारे यहाँ किस चीज़ की कमी है जो पोथियों के साथ माथा पच्ची की जाए ? कोई आवश्यकता नहीं है पढने-लिखने की।"
सेठानी के कहने से लड़के पढ़ने नहीं गए।दो-चार दिन बीत गए।शिक्षक ने इस बात की सूचना दी तो सेठ ने सेठानी से पूछा।सेठानी आगबबूला हो गयी।बोली -" मुझ पर क्यों लांछन लगाते हो। लड़के तुम्हारे, लडकियां तुम्हारी।तुम जानो तुम्हारा काम जाने।"
पति पत्नी के बीच इस बात को लेकर खींचतान बढ़ गयी।खींचतान ने कलह का रूप धारण किया और फिर पत्नी ने अपने पति पर कुंडी से प्रहार कर दिया।आचार्य बोले -" गुणमंजरी वही सुंदरी है।ज्ञान के प्रति तिरस्कार का भाव होने से यह गूँगी रूप में जन्मी है।" राजा अजितसेन ने भी अपने पुत्र वरदत्त का पूर्व वृत्तांत पुछा।कहा -" भगवन ! अनुग्रह करके बतलाइये की राजकुल में उत्पन्न होकर भी यह निरक्षर और कोढ़ी क्यों है ?" आचार्य ने अपने ज्ञान का उपयोग कर कहा -" वरदत्त ने भी ज्ञान के प्रति दुर्भावना रखी थी।इसके पूर्व जीवन में ज्ञान के प्रति घोर उदासीनता की वृति थी।श्रीपुर नगर में वसु नाम का सेठ था।उसके दो पुत्र थे - वसुसार और वसुदेव।वे कुसंगति में पड़कर दुर्व्यसनी हो गए।शिकार करने लगे।वन में विचरण करने लगे और निरपराध जीवों की हत्या करने में आनंद मानने लगे।एक बार वन में सहसा उन्हें एक मुनिजन के दर्शन हो गए।पूर्व संचित पुण्य का उदय आया और संत का समागम हुआ।इन कारणों से दोनों भाइयों के चित्त में वैराग्य उत्पन्न हो गया।दोनों पिता की अनुमति प्राप्त करके दीक्षित हो गए, दोनों चारित्र की आराधना करने लगे।" शुद्ध चारित्र के पालन के साथ वसुदेव के ह्रदय में अपने गुरु के प्रति श्रद्धाभाव था।उसने ज्ञानार्जन कर लिया।कुछ समय पश्चात गुरूजी का स्वर्गवास होने पर वह आचार्य पद पर प्रतिष्टित हुआ।शासन सूत्र उसके हाथ में आ गया।उधर वसुसार की आत्मा में महामोह का उदय हुआ।वह खा-पीकर पड़ा रहता, संत कभी प्रेरणा करते तो कहता कि -" निद्रा में सब पापों की निवृति हो जाती है।" निद्रा के समय मनुष्य ना झूठ बोलता है, ना चोरी करता है, ना अब्रह्म का सेवन करता है, ना क्रोधादि करता है, अतएव सभी पापों से बच जाता है, इस प्रकार की भ्रांत धारणा उसके मन में बैठ गयी।
वसुसार अपना अधिक समय निद्रा में व्यतीत करने लगा।वसुदेव ने गुरुभक्ति के कारण तत्त्वज्ञान प्राप्त किया था।अतः वह आचार्य पद पर आसीन हो गए थे।जिज्ञासु संत सदा उन्हें घेरे रहते थे।कभी कोई वाचना लेने के लिए आता तो कोई शंका के समाधान के लिए।उन्हें क्षणभर का भी अवकाश नहीं मिलता।प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक ज्ञानाराधक साधू-संतों की भीड़ लगी रहती।मानसिक और शारीरिक श्रम के कारण वसुदेव थक कर चूर हो जाते थे।सहसा उनको विचार आया की छोटा भाई वसुसार ज्ञान नहीं पढ़ा, वह बड़े आराम से दिन गुजारता है।मैंने सीखा, पढ़ा तो मुझे क्षण भर भी आराम नहीं।विद्वानों ने ठीक कहा है - " पढने से तोता पिंजरे में बंद किया जाता है, और नहीं पढ़ने से बगुला स्वच्छन्द घूमता है।मेरे ज्ञान-ध्यान का क्या लाभ ? अच्छा होता भाई की तरह मैं भी मुर्ख ही होता, तो मुझे भी कोई हैरान नहीं करता।
कहा जाता है की इस प्रकार ज्ञानाराधना से थक कर उसने 3-3 दिन के लिए बोलना बंद कर दिया।कर्मोदय के कारण वसुदेव के अंतःकरण में दुर्भावना आ गयी।उसने ज्ञान की विराधना की।इस प्रकार दीक्षा एवं तपस्या के प्रभाव से उसने राजकुल में जन्म ले लिया किन्तु ज्ञान की विराधना करने से कोढ़ी और निरक्षरता प्राप्त की।आज कार्तिक शुक्ला पंचमी है।इसकी विधिवत आराधना करने से और ज्ञान की भक्ति करने से कोढ़ भी नष्ट हो जाता है, ऐसा महर्षियों का कथन है।
कार्तिक सुदी पंचमी ज्ञान पंचमी दिवस...
ज्ञान की आराधना का दिन है।
बच्चों के द्वारा ज्ञान के साधन-
पुस्तक काँपी ,पैन ,पैसिल आदि चढवाकर ज्ञान की वासक्षेप से पुजा जरूर कराना।
ज्ञान पंचमी की आराधना 5 वर्ष 5 माह में पुरी होती है।
ज्ञान पंचमी की क्रिया -
५१ - लोगस्स का काउस्सग
५१ - प्रदक्षिणा
५१ - खमासमणा
५१ - साथिया
ऊँ ह्रीँ णमो नाणस्स
इस पद की 20 नवकार वाली,
उपवास, आयंबिल, एकासना आदि तप से करे, सामायिक, प्रतिक्रमण, देववंदन आदि करे।
वरदत गुणमंजरी की तरह ज्ञान पंचमी की आराधना करके बल-बुद्धि, वाचा-शक्ति प्राप्त करे। शुभम्अस्तु ।
BEST REGARDS:-
ASHOK SHAH & EKTA SHAHज्ञान पंचमी - कार्तिक शुक्ला पंचमी अर्थात दीपावली के पाँचवे दिन मनाई जाती है। इस दिन विधिवत आराधना और ज्ञान की भक्ति करने से कोढ़ जैसे भीषण रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञान पंचमी संदेश देती है की ज्ञान के प्रति दुर्भाव रखने से ज्ञानावर्णीय कर्म का बंध होता है।अत: हमें ज्ञान की महिमा को हृदयंगम करके उसकी आराधना करनी चाहिए।
यथाशक्ति ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए और दूसरों के पठन पाठन में योग देना चाहिए, यह योगदान कई प्रकार से दिया जा सकता है...निर्धन विद्यार्थियों को श्रुत ग्रन्थ देना, आर्थिक सहयोग देना, धार्मिक ग्रंथों का सर्वसाधारण में वितरण करना, पाठशालाएं चलाना, चलाने वालों को सहयोग देना, स्वयं प्राप्त ज्ञान का दूसरों को लाभ देना आदि...ये सब ज्ञानावर्णीय कर्म के क्षयोपशम के कारण है।
विचारणीय है की जब लौकिक ज्ञान प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाली गुणमंजरी को गूंगी बनना पड़ा तो धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान में बाधा डालने वाले का कितना प्रगाढ़ कर्मबंध होगा...?
इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - हे मानव ! तू अज्ञान के चक्र से बाहर निकल और ज्ञान की आराधना में लग...ज्ञान ही तेरा असली स्वरुप है। उसे भूलकर क्यों पर-रूप में झूल रहा है...? जो अपने स्वरुप को नहीं जानता उसका बाहरी ज्ञान निरर्थक है ।
ज्ञान पंचमी के दिन श्रुत की पूजा कर लेना, ज्ञान मंदिरों के पट खोलकर पुस्तकों के प्रदर्शन कर लेना और फिर वर्ष भर के लिए उन्हें ताले में बंद कर देना...ज्ञानभक्ति नहीं है, इस दिन श्रुत के अभ्यास, प्रचार और प्रसार का संकल्प करना चाहिए।
आज ज्ञान के प्रति जो आदर वृति मंद पड़ी हुई है, उसे जाग्रत करना चाहिए और द्रव्य से ज्ञान दान करना चाहिए...ऐसा करने से इहलोक परलोक में आत्मा को अपूर्व ज्योति प्राप्त होगी साथ ही शासन और समाज का अभ्युदय होगा।.
ज्ञान पंचमी से जुडी प्रचलित कथा
भरतखंड में अजितसेन राजा का वरदत्त नामक एक पुत्र था।वह राजा का अत्यंत दुलारा था।उसका बोध(ज्ञान) नहीं बढ़ पाया।अच्छे कलाविदों एवं ज्ञानियों आदि के पास रखने पर वह ज्ञानवान नहीं बन सका।उसकी यह स्थिति देखकर राजा बहुत खिन्न रहता था।सोचता था की मुर्ख रहने पर यह प्रजा का पालन किस प्रकार करेगा ? राजा अजितसेन ने सोचा -" मैंने पुत्र उत्पन्न करके उसके जीवन-निर्माण का उत्तरदायित्व अपने सिर पर लिया है।अगर इस दायित्व को मैं ना निभा सका तो पाप का भागी होऊँगा।" इस प्रकार सोचकर राजा ने पुरस्कार देने की घोषणा करवाई की जो कोई विद्वान उसके राजकुमार को शिक्षित कर देगा उसे यथेष्ट पुरस्कार दिया जाएगा।मगर कोई भी विद्वान् ऐसा नहीं मिला जो उस राजकुमार को कुछ सिखा सकता।राजकुमार कुछ भी ना सीख सका।उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर ही रहा।शिक्षा के अभाव के साथ उसका शारीरिक स्वास्थ भी खतरे में पड़ गया।उसे कोढ़ का रोग लग गया।लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे।सैंकड़ों दवाएँ चलीं, पर कोढ़ ना गया ।ऐसी स्थिति में विवाह-सम्बन्ध कैसे हो सकता था ? कौन अपनी लड़की उसे देने को तैयार होता ?
एक सिंहदास नामक सेठ की लड़की को भी दैवयोग से ऐसा ही रोग लग गया। उस सेठ की लड़की गुणमंजरी भी कोढ़ से ग्रस्त हो गयी।वह लड़की गूँगी भी थी।उस काल में, आज के समान गूंगों, बहरों और अंधों की शिक्षा की सुविधा नहीं थी।कोई लड़का उस लड़की के साथ सम्बन्ध करने को तैयार नहीं हुआ।गूँगी और सदा बीमार रहने वाली लड़की को भला कौन अपनाता ?
एक बार भ्रमण करते हुए विजयसेन नामक एक धर्माचार्य वहाँ पहुँचे।वे विशिष्ट ज्ञानवान थे और दुःख का मूल कारण बतलाने में समर्थ थे।वे नगर के बाहर एक उपवन में ठहरे।ज्ञान की महिमा के विषय में उनका प्रवचन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने कहा-" सभी दुखों का कारण अज्ञान और मोह है।जीवन के मंगल के लिए इनका विसर्जन होना अनिवार्य है।" आचार्य महाराज की देशना पूरी हुई।सिंहदास श्रेष्टि ने उनसे प्रश्न किया -"महाराज ! मेरी पुत्री की इस अवस्था का क्या कारण है ? किस कर्म के उदय से यह स्थिति उत्पन्न हुई है ?" आचार्य ने उत्तर में बतलाया -" इसने पूर्वजन्म में ज्ञानावर्णीय कर्म का गाढ़ बंधन किया है।" वृत्तांत इस प्रकार है -" जिनदेव की पत्नी सुंदरी थी।वह पाँच लड़कों और पाँच लड़कियों की माता थी।सबसे बड़ी लड़की का नाम लीलावती था।घर में संपत्ति की कमी नहीं थी।उसने अपने बच्चों को इतना लाड़प्यार किया की वे ज्ञान नहीं प्राप्त कर सके।" सुंदरी सेठानी के बच्चे समय पर पढ़ते नहीं थे। बहानेबाजी किया करते और अध्यापक को उल्टा त्रास देते थे।जब अध्यापक उन्हें उपालंभ देता और डांटता तो सेठानी उस पर चिड़ जाती।एक दिन विद्द्याशाला में किसी बच्चे को सजा दी गयी तो सेठानी ने चंडी का रूप धारण कर लिया।पुस्तकें चूल्हे में झोंक दीं और दूसरी सामग्री नष्ट-भ्रष्ट कर दी।उसने बच्चों को सीख दी -" शिक्षक इधर आवे तो लकड़ी से उसकी पूजा करना।हमारे यहाँ किस चीज़ की कमी है जो पोथियों के साथ माथा पच्ची की जाए ? कोई आवश्यकता नहीं है पढने-लिखने की।"
सेठानी के कहने से लड़के पढ़ने नहीं गए।दो-चार दिन बीत गए।शिक्षक ने इस बात की सूचना दी तो सेठ ने सेठानी से पूछा।सेठानी आगबबूला हो गयी।बोली -" मुझ पर क्यों लांछन लगाते हो। लड़के तुम्हारे, लडकियां तुम्हारी।तुम जानो तुम्हारा काम जाने।"
पति पत्नी के बीच इस बात को लेकर खींचतान बढ़ गयी।खींचतान ने कलह का रूप धारण किया और फिर पत्नी ने अपने पति पर कुंडी से प्रहार कर दिया।आचार्य बोले -" गुणमंजरी वही सुंदरी है।ज्ञान के प्रति तिरस्कार का भाव होने से यह गूँगी रूप में जन्मी है।" राजा अजितसेन ने भी अपने पुत्र वरदत्त का पूर्व वृत्तांत पुछा।कहा -" भगवन ! अनुग्रह करके बतलाइये की राजकुल में उत्पन्न होकर भी यह निरक्षर और कोढ़ी क्यों है ?" आचार्य ने अपने ज्ञान का उपयोग कर कहा -" वरदत्त ने भी ज्ञान के प्रति दुर्भावना रखी थी।इसके पूर्व जीवन में ज्ञान के प्रति घोर उदासीनता की वृति थी।श्रीपुर नगर में वसु नाम का सेठ था।उसके दो पुत्र थे - वसुसार और वसुदेव।वे कुसंगति में पड़कर दुर्व्यसनी हो गए।शिकार करने लगे।वन में विचरण करने लगे और निरपराध जीवों की हत्या करने में आनंद मानने लगे।एक बार वन में सहसा उन्हें एक मुनिजन के दर्शन हो गए।पूर्व संचित पुण्य का उदय आया और संत का समागम हुआ।इन कारणों से दोनों भाइयों के चित्त में वैराग्य उत्पन्न हो गया।दोनों पिता की अनुमति प्राप्त करके दीक्षित हो गए, दोनों चारित्र की आराधना करने लगे।" शुद्ध चारित्र के पालन के साथ वसुदेव के ह्रदय में अपने गुरु के प्रति श्रद्धाभाव था।उसने ज्ञानार्जन कर लिया।कुछ समय पश्चात गुरूजी का स्वर्गवास होने पर वह आचार्य पद पर प्रतिष्टित हुआ।शासन सूत्र उसके हाथ में आ गया।उधर वसुसार की आत्मा में महामोह का उदय हुआ।वह खा-पीकर पड़ा रहता, संत कभी प्रेरणा करते तो कहता कि -" निद्रा में सब पापों की निवृति हो जाती है।" निद्रा के समय मनुष्य ना झूठ बोलता है, ना चोरी करता है, ना अब्रह्म का सेवन करता है, ना क्रोधादि करता है, अतएव सभी पापों से बच जाता है, इस प्रकार की भ्रांत धारणा उसके मन में बैठ गयी।
वसुसार अपना अधिक समय निद्रा में व्यतीत करने लगा।वसुदेव ने गुरुभक्ति के कारण तत्त्वज्ञान प्राप्त किया था।अतः वह आचार्य पद पर आसीन हो गए थे।जिज्ञासु संत सदा उन्हें घेरे रहते थे।कभी कोई वाचना लेने के लिए आता तो कोई शंका के समाधान के लिए।उन्हें क्षणभर का भी अवकाश नहीं मिलता।प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक ज्ञानाराधक साधू-संतों की भीड़ लगी रहती।मानसिक और शारीरिक श्रम के कारण वसुदेव थक कर चूर हो जाते थे।सहसा उनको विचार आया की छोटा भाई वसुसार ज्ञान नहीं पढ़ा, वह बड़े आराम से दिन गुजारता है।मैंने सीखा, पढ़ा तो मुझे क्षण भर भी आराम नहीं।विद्वानों ने ठीक कहा है - " पढने से तोता पिंजरे में बंद किया जाता है, और नहीं पढ़ने से बगुला स्वच्छन्द घूमता है।मेरे ज्ञान-ध्यान का क्या लाभ ? अच्छा होता भाई की तरह मैं भी मुर्ख ही होता, तो मुझे भी कोई हैरान नहीं करता।
कहा जाता है की इस प्रकार ज्ञानाराधना से थक कर उसने 3-3 दिन के लिए बोलना बंद कर दिया।कर्मोदय के कारण वसुदेव के अंतःकरण में दुर्भावना आ गयी।उसने ज्ञान की विराधना की।इस प्रकार दीक्षा एवं तपस्या के प्रभाव से उसने राजकुल में जन्म ले लिया किन्तु ज्ञान की विराधना करने से कोढ़ी और निरक्षरता प्राप्त की।आज कार्तिक शुक्ला पंचमी है।इसकी विधिवत आराधना करने से और ज्ञान की भक्ति करने से कोढ़ भी नष्ट हो जाता है, ऐसा महर्षियों का कथन है।
कार्तिक सुदी पंचमी ज्ञान पंचमी दिवस...
ज्ञान की आराधना का दिन है।
बच्चों के द्वारा ज्ञान के साधन-
पुस्तक काँपी ,पैन ,पैसिल आदि चढवाकर ज्ञान की वासक्षेप से पुजा जरूर कराना।
ज्ञान पंचमी की आराधना 5 वर्ष 5 माह में पुरी होती है।
ज्ञान पंचमी की क्रिया -
५१ - लोगस्स का काउस्सग
५१ - प्रदक्षिणा
५१ - खमासमणा
५१ - साथिया
ऊँ ह्रीँ णमो नाणस्स
इस पद की 20 नवकार वाली,
उपवास, आयंबिल, एकासना आदि तप से करे, सामायिक, प्रतिक्रमण, देववंदन आदि करे।
वरदत गुणमंजरी की तरह ज्ञान पंचमी की आराधना करके बल-बुद्धि, वाचा-शक्ति प्राप्त करे। शुभम्अस्तु ।
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