ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

आत्म-चिंतन” भाग – 1

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आत्म-चिंतन” भाग – 1

केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद तीर्थंकरों” ने सतत ज्ञान-गंगा बहाई है.

पूरे “शास्त्र” पढ़ने का सार है :

आत्मा” का उत्थान!
जैन साहित्य जो संसार भर के सभी धर्मों में सबसे सरल(!),
विशाल, श्रेष्ठ, क्लिष्ट परन्तु साथ में लचीला ( यानि फ्लेक्सिबल” ) भी है.

हज़ारों शास्त्र सिर्फ “एक” ही उद्देश्य के लिए लिखे गए
मनुष्य” अपनी “आत्मा” को समझे
क्योंकि पूरे भव-चक्र में “मनुष्य जीवन” मात्र ८ बार ही मिलता है.

भव-चक्र यानि “जीव” जो ८४ लाख योनियों के जन्म-मरण में फंसा है,
उसे मनुष्य जन्म मात्र ४८ बार ही मिलेगा. यदि वो मोक्ष नहीं गया,
तो फिर ८४ लाख जीव योनियों में भटकता रहेगा, फिर कभी मोक्ष नहीं जा सकेगा.

इसी बात को “ध्यान” में रखते हुए तीर्थंकर, केवली, पूर्वधर, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं ने “लाखों” ग्रन्थ लिखे ताकि ज्यादा से ज्यादा “मनुष्य” अपने जीवन” को सार्थंक कर सकें.

कलिकाल सर्वज्ञ” “श्री हेमचन्द्राचार्य” जी ने ३.५ करोड़ “श्लोक” लिखे हैं और श्री हरिभद्र सूरी” ने १४४४ ग्रन्थ” लिखे हैं. परन्तु “जैनी” होने का “दावा” करने वाले क्या अपने “पूरे जीवन” में मात्र १०० श्लोक या १ ग्रन्थ भी पढ़ने की इच्छा” रखते हैं?

नहीं” पढ़ने का कारण हैं, आत्मा” नाम के तत्त्व की घोर उपेक्षा”

कई लोगों के बारे में तो यहाँ तक कहा जा सकता है मानो उन्होंने” प्रतिज्ञा ले रखी हो कि
आत्मा” नाम का “फितूर” जानना ही नहीं है.

विशेष:
पूरे ब्रह्माण्ड में सिर्फ और सिर्फ एक ही तत्त्व (वस्तु) ऐसी है तो अपने आप” को देख सकती है. और वो है
आत्मा.”

यहाँ किसी को भ्रम हो सकता है कि मैं तो अपने आप को आईने में रोज देख रहा हूँ. पर ये आप नहीं हो, आप के शरीर से जब आत्मा “निकल” जायेगी, तो क्या वही “शरीर” खुद को देख सकेगा? इसका मतलब देखने” वाला कोई और है जिसको अभी तक आपने नहीं देखा.

आत्म-चिंतन : भाग – 2

५०० शिष्यों के नायक इंद्रभूति” (गौतमस्वामी) को इस बात का संशय था कि

आत्मा” है या नहीं!

(कहे जाने वाले बड़े बड़े सम्प्रदायों; जिनके लाखों फोल्लोवेर्स हों,
उनकी भी यही स्थिति हो सकती है).

मात्र ये एक “संशय” उनके पूरे ज्ञान” को “झकझोर” रहा था (फीलिंग इरिटेटेड).

(जैसे परीक्षा में टिपिकल प्रश्न का उत्तर देते समय मात्र उसका एक पॉइंट ही विद्यार्थी को उलझन में डाल देता है और यदि वो प्रश्न भी पहला ही हो तो फिर परीक्षार्थी पूरा पेपर ही अच्छी तरह नहीं दे पाता…).

और भगवान महावीर से उस शंका” का निवारण होते ही, उनके शिष्य भी बन गए!

शंका” मात्र एक…. और जिसने वो शंका मिटाई, उसका “शिष्य” बन जाना…खुद के ५०० शिष्यों के होते हुए !

सोचो, कितनी शर्म आई होगी.
मानो कि ये “घटना” आपके लिए ही घटी हो – मतलब आप ही “इंद्रभूति” थे और आप के ही ५०० फोल्लोवर्स थे…..(आजकल फेसबुक में भी आपके कई फोल्लोवर्स होते हैं…),

उनके मन में आप के प्रति क्या विचार आया होगा!…..कि आज तक हम उस आदमी को फॉलो कर रहे थे जिसे जड़ और चेतन का भी ज्ञान नहीं था!

परन्तु “गौतमस्वामी” ने अत्यंत विनयपूर्वक” उसे ना सिर्फ उनके स्पष्टीकरण को “स्वीकार” किया, बल्कि खुद को “पूरा” “भगवान महावीर” को “सौंप” दिया.

आप सोच रहे होंगे कि क्या ऐसे गौतम स्वामी को आत्मा” जैसी बात का भी ज्ञान नहीं था?

प्रश्न की पूर्वभूमिका:

भगवान महावीर द्वारा “आत्मा” की शंका का निवारण करने के कारण और ‘आत्मा’ के बारे में यही ज्ञान हमारे आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं की पट्ट परंपरा के कारण हमें और हमारे पूर्वजों को प्राप्त होता रहा है.

आत्म-चिंतन :

क्या आपको ये “ज्ञान” हो गया है की आप ये मनुष्य जीवन आत्मा” की उन्नति के लिए जी रहे हैं?

क्या ऐसा कभी “एहसास” (feeling) हुआ है कि आत्मा” (soul) का “अस्तित्व” (existence) इस शरीर”(body) में है,

यदि हाँ, तो समझ लेना आत्मा के “उद्धार” (moksh) की तैयारी शुरू हो गयी है.

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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