हम अक्सर यह कहते हैं की तीन तिगाड़ा काम
बिगाड़ा लेकिन जिनमंदिर जी में तो तीन का अंक 3...3
बहुत शुभ कहा गया है । जैसे तीन बार
निस्सीहि कहना , तीन प्रदक्षिणा देना आदि।
ऐसी १० चीज़े हैं जो हमें ३-३ बार
करनी / सोचनी/माननी चाहिए । इनको
हम १० त्रिक कहते हैं क्योंकि त्रिक यानी ३
निस्सीहि त्रिक
निसीहि यानि निषेध ।
हमारे मन में अनेको तरह के विचार आते हैं । कभी मनोरंजन
के , व्यापार के , पढाई के , वासना के , परिवार के आदि । उन
सभी पर ब्रेक लगाना आवश्यक है । कम से कम जब हम
मंदिर जा रहे हैं , तो तबतक तो संसार की सभी बातें
भूल ही जानी चाहिए ।
निसीहि का महत्त्व
जैसे एक व्यक्ति ने शौक के लिए एक दिन खाना नही खाया ।
दूसरे व्यक्ति ने गुरुदेव से पच्चक्खान लिया और उपवास किया । दोनों में से
तपस्या का लाभ किसे मिलेगा ?
प्रथम व्यक्ति के लिए भोजन का द्वार खुला है , वह जब चाहे भोजन के
बारे में सोच सकता है खा भी सकता है लेकिन दूसरे व्यक्ति ने
नियम लिया है । खाने के बारे में सोचना भी उसको दोष लगेगा
क्योंकि उसने अपने लिए आहार के लिए दरवाज़ा बंद कर दिया है जबकि
पहले ने वह दरवाज़ा खुला रखा है ।
उसी प्रकार निसीहि कहकर हम
सभी सांसारिक विचारों को good bye कह देते हैं और
तभी वास्तविक मंदिर में प्रभु दर्शन का आनंद आता है -फल
मिलता है ।
पहली निसीहि
यह जिनालय के मुख्य द्वार अथवा मंदिर जी के गेट पर
कहनी चाहिए । इसका अर्थ है - अब बस मैं और मंदिर
यह निसीहि कहकर हम सभी पाप कार्य त्याग
करके मंदिर में प्रवेश करते हैं , मंदिर के रंगाई - पुताई का काम , हिसाब
किताब का कम देख सकते हैं , मंदिरजी में मकड़ी के
जाले या मिटटी - कचरा स्वयं निकाल सकते हैं । यह तब सब
संभव है जब हम मंदिरजी को अपना समझें । हम
पुजारी , ट्रस्टी के सहारे जिनमंदिर जी
की व्यवस्था को छोड़ देते हैं क्योंकि शास्त्र तो प्रथम
निसीहि कहकर हर श्रावक को मंदिर की व्यवस्था
में सहयोग करने की आज्ञा देते हैं ।
दूसरी निसीहि
यह गर्भ गृह में प्रवेश करते समय / प्रदक्षिणा देते समय
बोलनी चाहिए । इसका अर्थ है - अब बस मैं और प्रतिमाओं
का पूजन
यह निसीहि कहते ही हमें जिनालय के कार्य
भी छोड़ देने चाहिए ।
तीसरी निसीहि
परमात्मा की पूजा करने के बाद चैत्यवन्दन प्रारम्भ करते समय
यह तीसरी निस्सीहि
बोलनी चाहिए । इसका अर्थ है -अब बस मैं और परमात्मा।
अब हमें परमात्मा की पूजा की भी चिंता
नही करनी । कोई आंगी चढ़ाता है कोई
साथिया उठाता है उस बारे में भी नही सोचना । केवल
मैं और मेरे परमात्मा । प्रभु का रूप ,प्रभु के गुण ,प्रभु की
वाणी बस यही चिंतन चैत्यवन्दन में करना है
प्रभु से जुड़ना है । मंदिर से पूजा और पूजा से सिर्फ परमात्मा
धीरे धेरे हमने अपने चिंतन का radius केवल प्रभु तक
सीमित रखा है ।
इस प्रकार तीन निसीहि हमारी चिंतन
प्रक्रिया को प्रभु की और केंद्रित करने में बहुत सहायक है
। जिस प्रकार उपवास का पच्चक्खान परा जाता है उसी प्रकार
मंदिर से वापसी के समय आवस्सहि कहा जाता है
की अब आवश्यक कार्य के लिए जाना पड रहा है ।
प्राचीन समय में राजा को भी छत्र , चामर , जूते ,
मुकुट आदि त्यागकर ही जिनमंदिर जी में प्रवेश
करने की आज्ञा थी । हमें भी
मंदिरजी तक ठाठ बाठ से आना चाहिये किन्तु परमात्मा के विनय
स्वरुप मुकुट , पगड़ी आदि का त्याग करना चाहिए यानि बहार
उतारकर जाना चाहिए । केवल आरती के समय पहन सकते
हैं।
स्वयं के पास रही हुई खुद के लिए दवाई , perfume ,
toffee , गले में पुष्प माला आदि त्याग कर ही अंदर जाना
चाहिए ।
पहले के समय में देव देवी की आकृति प्रतिमा के
परिकर में ही उत्कीर्ण किये जाते थे । संभव है
उस समय उनकी अलग प्रतिमा आशातना मानी
जाती होगी । गीतार्थ गुरु भगवंतों द्वारा
इसमें फेरबदल संभव है । हम इसे निष्कारण स्थापना नही
करनी चाहिए / बिना आज्ञा स्थापना नही
करनी चाहिए । इस प्रकार समझने का प्रयत्न करें
काफी चीज़े समय के अनुसार लिखी
जाती है । कोई आज नूतन १०१ आशातना लिखने बैठेगा तो यह
भी लिखेगा की मंदिरजी में फ़ोन का
उपयोग करना , देव देवी की आरती
की बोली अधिक जाना भी आशातना है ।
हम जिनालय में निस्सीहि बोलकर प्रवेश करते हैं । उसका
महत्त्व हमने कल समझा । यानि संसार से खुद को cut off कर दिया ।
अतः मंदिर जी में फ़ोन का उपयोग करना ,अपनी बाते
करना कितना सही है ,कितना गलत ...इसका हमें चिंतन करना
चाहिए
प्रदक्षिणा त्रिक
जिनमंदिर जी में परमात्मा की तीन
परिक्रमा / फेरियां ली जाती हैं। उसे हम प्रदक्षिणा
कहते हैं।
प्रदक्षिणा का उद्देश्य
आज तक हमने संसार की अनंत फेरियां ली हैं ।
उसके केंद्र में क्या रहा ? परिवार , धन , वासना इत्यादि । हमने
ऐसी वस्तुओं को केंद्र बनाकर भ्रमण किया है तो निश्चित संसार
तो बढ़ेगा ही बढ़ेगा ।
जिनालय में हम प्रभु को केंद्र में रखकर हम प्रदक्षिणा देते हैं
की हे प्रभु ! मेरे जीवन का ध्येय , मेरे
जीवन का केंद्र आप रहो ! तभी मैं इस जन्म
मरण की परंपरा से छूट पाउँगा ।
१. सम्यग् दर्शन यानि प्रभु पर श्रद्धा
२. सम्यग् ज्ञान यानि प्रभु की वाणी
की समझ
३. सम्यग् चारित्र यानि प्रभु की वाणी को
जीवन में उतारना
ये तीन गुण मेरी आत्मा में प्रकट हों
,इसी उद्देश्य से मैं तीन प्रदक्षिणा देता हूँ ।
गणधर भगवंत भी तीर्थंकर प्रभु की
प्रदक्षिणा देते हैं । यह एक विनय है , सम्मान है । तीन
लोकों के नाथ ,सब कुछ जानने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा
के प्रति एक अहोभाव है ,कृतज्ञ भाव है।
Scientific तरीके से ददखें तो इस प्रकार प्रदक्षिणा देने से
एक engery से परिपूर्ण magnetic circle बनता है और हमको
भी positive ऊर्जा मिलती है
प्रदक्षिणा देते समय
हम दोहे / नवकार मंत्र आदि बोल सकते हैं। प्रचलित रूप से ये दोहे बोले
जाते हैं
काल अनादि अनंत थी , भव भ्रमणणो नही पार
ते भव भ्रमण निवारवा , प्रदक्षिणा देउँ त्रण वार ||
भमती मा भमता थका, भव भावठ दूर पलाय
दर्शन ज्ञान चारित्र रूप , प्रदक्षिणा त्रण देवाय ||
जन्म मरणादि भय टले , सीझे जो दर्शन काज
रत्नत्रय प्राप्ति भनी , दर्शन करी जिनराज ||
ये दोहे बोलने का उद्देश्य यही है की हमको
प्रतिपल स्मरण रहे की हम प्रदक्षिणा क्यों दे रहे हैं।
संभव हो तो स्मरण अवश्य करें
भमती ( प्रदक्षिणा देने की जगह ) में
नीचे देखकर चलना चाहिए ताकि जीव हिंसा न हो
एवं मार्ग की सभी प्रतिमाओं को भी
नमन करना चाहिए
पूजा की सामग्री पकड़कर प्रदक्षिणा देने में कोई
दोष नही है
प्रदक्षिणा प्रभु की right यानि हमारी left से शुरू
होनी चाहिए
प्रदक्षिणा देते समय धक्का मुक्की नही
करनी चाहिए।
प्रणाम त्रिक
प्रणाम का मतलब है अहोभाव से नमस्कार करना । परमात्मा को देखकर
हम नमस्कार तो करते ही हैं । तो 3 प्रकार का प्रणाम कैसे
और क्यों ?
१. अंजलिबद्ध प्रणाम
अंजलि यानि हाथ और बद्ध यानि सिर पर जोड़ना । परमात्मा को दूर से देखते
ही हमें णमो जिणाणं कहना चाहिए और दोनों हाथ जोड़कर
कपाल (मस्तक) में लगाकर मस्तक झुकाना चाहिए
२. अर्धावनत प्रणाम
अर्ध यानि आधा और अवनत यानि झुका हुआ । जैसे ही हम
मूलनायक के पास , मुलगभारे के पास पहुंचे तो कमर तक का आधा
शरीर झुकाकर प्रणाम करना चाहिए ।
३. पंचांग प्रणिपात प्रणाम
पंचांग यानि दो हाथ , दो घुटने एवं एक मस्तक - इन पांचों अंगों को
ज़मीन पर लगाते हुए वंदन करना । इच्छामि खमासमनो बोलते
हुए ( चैत्यवन्दन के समय ) इस प्रकार का वंदन करते हैं ।
हर मुद्रा का हमारे चिंतन पर प्रभाव पड़ता है । जिस प्रकार
तीन निसीहि में हम धीरे
धीरे संसार को पूर्णतः छोड़ देते हैं क्योंकि सब एक
ही बार में छोड़ देवें ,ऐसी भी
हमारी शक्ति नही । उसी प्रकार थोडा
झुकना ,आधा झुकना और फिर पूरा झुकना ,यह एक क्रम है । प्रणाम तो
विनय का सूचक है । अरिहंतों को प्रणाम करने से घाति कर्मों का क्षय होता
है । अतः यह प्रणाम त्रिक भी अति महत्वपूर्ण है
लोक में भी किसी से कोई काम निकलवाना हो तो
पहले उसकी तारीफ करते हैं , फिर
धीरे धीरे काम निकलवाते हैं प्रभु से हमें
प्रदक्षिणा के द्वारा सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र के रत्न मांगने हैं , तो
पहले जिनालय में प्रवेश कर प्रभु की स्तुति - स्तवना , फिर
प्रदक्षिणा , फिर पूजा और चैत्यवंदन , ऐसा बड़ों से सुना ह
स्तुति किसी भी भाषा में हो , किसी
भी शब्दों में हो , महत्त्व भावों का है । सामूहिक रूप से
बोलना हो निम्न तो बोली ही जाती हैं
दर्शनं देव देवस्य , दर्शनं पाप नाशनं
दर्शनं स्वर्ग सोपानं
दर्शनं मोक्ष साधनं।
प्रभु दर्शन सुख सम्पदा , प्रभु दर्शन नवनिध
प्रभु दर्शन से पामिये , सकल पदारथ सिद्ध
भावे भावना भाविए , भावे दीजे दान
भावे जिनवर पूजिए , भावे केवल ज्ञान।
इसके अलावा परमात्मा के भक्ति गीत , मूलनायक की
स्तुति आदि हम गा सकते हैं म हम प्रयत्न करें की हमारे
गाने से किसी और के दर्शन में , पूजन में ,ध्यान में अन्तराय
( बाधा ) न पड़े
जिनपूजा में ७ प्रकार की शुद्धियाँ पालनी चाहिए
१. अंग शुद्धि - हमारा शरीर मलमूत्र , पसीने ,
थूक , धूल आदि से गन्दा रहता है । अतः स्नान करके ही
पूजा करनी चाहिए ताकि सात्विकता बनाई जा सके
२. वस्त्र शुद्धि - जैसा वेश वैसी वृत्ति । पूजा के वस्त्र यानि
धोती या साडी भी शुद्ध , धुले हुए ,
साफ़ होनी चाहिए
३. मन शुद्धि - पूजा करते हुए मन को शुद्ध रखना चाहिए । काम वासना ,
साधर्मीको से जलन , हिंसा आदि कोई दुर्भाव नही
होना चाहिए ।
४. भूमि शुद्धि - जिनालय की भूमि एवं मूल गभारा , जिनमंदिर
नीव से लेकर शिखर तक स्वच्छ तथा शुद्ध रहना चाहिए ।
५. उपकरण शुद्धि - परमात्म पूजा में इस्तेमाल होने वाले सभी
उपकरण अच्छे धातु ( सोने , चांदी आदि के ) के होने चाहिए ।
उन्हें प्रति समय साफ़ रखना चाहिए
६. द्रव्य शुद्धि - परमात्म पूजा की सामग्री जैसे
जल , चन्दन , चावल आदि अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिए
एवं न्याय से उपार्जित धन के होने चाहिए । जितना हो सके समग्रिन्दिर से
नही बल्कि खुद के घर से लानी चाहिए ।
७. विधि शुद्दि -पूजा , चैत्यवन्दन की विधि विवेक से
करनी चाहिए । गुरुदेवो से ,बड़ों से ,शास्त्रों से
जाननी चाहिए ताकि कोई अविधि या आशातना न हो ।
सभी शुद्धियाँ हमारे मन पर गहराप्रभाव डालती हैं
। हमे पूजा का सही फल चाहिए तो यथाशक्ति पूजा में शुद्धता
भी बरक़रार रखनी चाहिए ।
द्रव्य यानि सामग्री । किसी भी
सामग्री ( जल , चन्दन , फूल , चावल आदि ) के द्वारा प्रभु
की पूजा करना द्रव्य पूजा है ।
हर पूजा का कुछ न कुछ रहस्य है । ये पूजाएं हमें ऊँचे भावों
की तरफ ले जाने में मदद करती हैं । हर द्रव्य
के किसी न किसी गुण से परमात्मा के गुणों को जोड़ा
गया है ।
कई लोग पूजा का विरोध करते हैं की ये हिंसा है या
बर्बादी है । किन्तु वे उसके पीछे के भावों को -
रहस्यों को समझने में असमर्थ रहते हैं ।
पूजा यानि भक्ति भाव पूर्वक समर्पण । पूजा किसी
भी प्रकार से हो सकती है । घण्टा बजाना
भी पूजा है । दर्पण में प्रभु को देखना भी पूजा
है। प्रभु को आभूषण चढ़ाना भी पूजा है । प्रभु के आगे
गीत गाना - नाटक करना भी पूजा है ।
पहले के समय में 32 प्रकार की पूजा , 21 प्रकार
की पूजा होती थी । घटते घटते आज
मुख्या रूप से 8 प्रकार की पूजा होती
होती है । इसका अर्थ यह नही
की बाकी गायब हो गयी । बाकियों का रूप
संक्षिप कर दिया ,छोटा कर दिया , पूजा के बजाये एक कृत्य के रूप में कर दिया
।
अष्ट प्रकारी पूजा यानि जल , चन्दन ,पुष्प ,धुप ,
दीप ,अक्षत , नैवेद्य ,फल ।
वासक्षेप पूजा ,घंट नाद ,चामर वींझना , आंगी चढ़ाना
,भजन गाना , मुकुट पूजा ,दर्पण में प्रभु को देखना आदि भी
पूजाएं ही हैं ।
जल पूजा
प्रभु के अभिषेक के लिए प्रथम जल , दूध , दही ,
घी , शक्कर - इन पाँचों को मिलाकर पंचामृत से प्रभु का अभिषेक
करना चाहिए ।
तत्पश्चात शुद्ध जल से भी पुनः अभिषेक करना चाहिए । जब
प्रभु शिशु होते हैं , तब इंद्र आदि देव देवी उन्हें एक अलग
पर्वत पर ले जाते हैं - मेरु पर्वत । वहां सिंहासन पर शिशु
तीर्थंकर को बिठाकर अनेकों अनेकों कलशों में शुद्ध जल आदि से
अभिषेक करते हैं ।
प्रभु का अभिषेक करते हुए मुखकोश पेहेनना आवश्यक है ताकि
हमारी अशुद्ध सांस प्रभु को स्पर्श न करे । जो अभिषेक करे ,
उसे शांत - मौन रहना चाहिए । पानी के कलाशें दोनों हाथों से
पकड़कर प्रभु के मस्तक पर जलधारा करनी चाहिए ।
जलपूजा के दोहे
जल पूजा जुगते करो
मेल अनादि विनाश
जल पूजा फल मुज होजो
माँगो एम् प्रभु पास।।
ज्ञान कलश भरी आत्मा
समता रस भरपूर
श्री जिन ने न्हवरावता
कर्म होय चकचूर
हे प्रभु ! आपके द्रव्य मेल (शरीर के )और भाव मैल (आत्मा
के) दोनों दूर हो गए हैं। आपको अभिषेक की कोई आवश्यकता
नही । मैं आपको स्नान कराकर अपने कर्मों मैल धोना चाहता
हूँ। जब आपका जन्म हुआ तब मैं देवरूप में नही था म अतः
इस मानव भाव में इस सौभाग्य को प्रलत कर रहा हूँ ।
हे प्रभो ! ये जलतो शुद्ध है । आपकी आत्मा भी
शुद्ध है । मेरी भी आत्मा ऐसी हो
हे प्रभु ! आपकी शरीर पर उतरती
हुई जलधाराएं देखकर लगता है मानो मेरी आत्मा में ज्ञान
रुपी कलश से समता रास की धाराएं बह
रही हो।
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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