ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

मनुष्यगति के दुःख

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मनुष्यगति के दुःख -
प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य गति के दु:खों के बारे में अच्छी तरह से पता है। जब गर्भ में जीव को नौ मास रहना पड़ता है, तब वह उल्टा टँगकर दुर्गंधित स्थान में पड़ा रहकर नरक सरीखे महान दु:ख को भोगता है। फिर उसको गर्भ से निकलते हुए घोर कष्ट होता है। शिशु अवस्था में असमर्थ होने के कारण कई बार खाने-पीने को न पाकर बार-बार रोना पड़ता है, गिरकर पड़कर दु:ख सहना पड़ता है। अज्ञान के कारण थोडा सा भी सांसारिक दु:ख बहुत ज्यादा पीड़ा देता है।
किसी-किसी व्यक्ति को छोटी सी उम्र में माता-पिता के मर जाने पर बड़े दु:ख से जीवन बिताना पड़ता है। कितने ही लोग जन्म से ही रोग से पीड़ित रहते है और कितने ही अल्प आयु में मर जाते हैं; कितने ही दरिद्रता से दु:खी रहते है, कितने ही इष्टमित्र व इष्टबन्धु के वियोग से, कितने अपने अनिष्टकारी भार्इ, पत्नी, बेटे, मालिक व सेवक के संयोग से दु:खी रहते हैं।
मनुष्य गति में सबसे बड़ा दु:ख इच्छा का होता है। पाँचों इन्द्रियो के भोगेां की घोर तृष्णा होती है। जब किसी को इच्छित पदार्थ नही मिलते हैं, तब उसे घोर दु:ख होता है। जब भी उसके मनवांछित इष्ट और मनेाज्ञ चेतन या अचेतन पदार्थ छूट जाते हैं, तब उनके वियोग से उसे घोर कष्ट होता है। किसी की स्त्री दु:खदार्इ होती है, किसी के पुत्र कपूत होते हैं। किसी के भार्इ कष्टदायक होते होते हैं। चाह की दाह में बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा भी जला करते हैं। इस तरह मानव गति में घोर शारीरिक व मानसिक कष्ट होते हैं।
बहुत थोड़े लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें कुछ सुख देखने में आता है, लेकिन वह ऐसा विनाशीक व अतृप्तिकारी होता है कि उससे जीव की आशा-इच्छा बहुत बढ़ जाती है। वह सुख शीघ्र ही विनष्ट होकर कष्टदायक हो जाता है।
जैसे किसी मृग की मरुस्थल में मृगइच्छा रूपी चमकती बालू से प्यास नही बुझाती है और वह मृग कल्पना में पानी समझ कर इधर-उधर चक्कर लगता जाता है। परन्तु पानी न पाकर और अधिक तृषातुर होकर अपने प्राण गंवाता है, वैसे ही संसारी प्राणी सुख पाने की आशा से पाँचों इन्द्रियो के भोगेां को बार-बार भोगने जाते हैं, भेाग करते हैं, परन्तु विषय सुख की तृष्णा को मिटाने की अपेक्षा बढ़ा लेते हैं, जिससे उनका संताप किसी भी भव में कभी भी नही मिटता है।
असल बात यह है कि यह संसार केले के तने के समान असार व दु:खों का समुद्र है। इसमें जो आसक्त होते हैं, इसमें जो मग्न रहते हैं, ऐसे मूढ़ मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा को चारों ही गति में कहीं पर भी सुख नही मिलता है। वह हर समय शारीरिक व मानसिक दु:खों को ही भोगता रहता है। इच्छा की अग्नि में जलता हुआ वह अनंतबार जन्म मरण करता हुआ चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ दुखी ही रहता है। इस तरह इस असार संसार में अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि जीव हर समय कष्ट ही पाता रहता है, इसीलिये उसका इस संसार में भ्रमण होता रहता है।
जो आत्मज्ञानी सम्यकद्रष्टि जीव होता है, वह संसार से उदास व वैराग्यवान हो जाता है व अतीन्द्रिय आत्मिक सच्चे सुख को पहचान लेता है, वह मोक्षलक्ष्मी का प्रेमी हो जाता है, अतः वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। यदि कर्मो के उदय से कुछ काल किसी गति में उसे रहना भी पड़े, तो वह संसार में लिप्त न होने से, संसार में प्राप्त शारीरिक व मानसिक कष्टो को कर्मोदय विचार कर समताभाव से भोग लेता है। वह हर एक अवस्था में आत्मिक सुख यानी कि निर्बाध सच्चे सुख को स्वतंत्रतापूर्वक भोगता रहता है।

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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