ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

Manibhadra veer-श्री मणिभद्र वीर

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उज्जैन शहर के भेरुगढ़ में श्री विक्रमादित्य कि 15वीं
शताब्दी में वि.स. 1541 बसंत पंचमी के शुभ दिन श्रेष्ठीवर्य सुश्रावक धर्मप्रिय एवम सुश्राविका जिनप्रिया कि इसी जगह स्थित हवेली में एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम माणक चन्द्र रखा गया | इसी घर में पद्मावती माता का घर देरासर भी था | शेरावकाल पूर्ण करके जब योवन अवस्था में उन्होंने कदम रखा धारानगरी के भीमसेठ कि पुत्री आनंदरति के साथ उन्हें विवाह के बंधनो में बांध दिया एक बार उज्जैन में लोकशाह पंथ के साधुओं का आगमन हुआ माणकचंद्र उनके संपर्क में आकर मूर्ति पूजा से विमुख हो गया इस घटना से माँ को बहुत दुःख हुआ | जब उनकी माँ को ओलीजी का पारणा था तब माँ ने यह प्रतिज्ञा ली की जब तक माणक सन्मार्ग पार नहीं आयेगा तब तक घी का त्याग करा | इस प्रकार छ: माह व्यतित हुए | इधर उज्जैन नगरी के बाहर बगीचे में आचार्य श्री हेमविमलसुरिजी पधारे माता के आग्रह से माणक आचार्य श्री के पास गया और देखा कि आचार्य श्री कायोत्सर्ग ध्यान में लीन है उनकी परीक्षा हेतु माणक ने जलती हुई लकड़ी से उनकी दाड़ी जला दी फिर भी आचार्य श्री ने क्षमा करा | माणक को अपनी भुल का एहसास हुआ और किये हुए पाप कि क्षमा याचना की आचार्य श्री ने माणक कि मूर्ति पुजा सम्बन्धी समस्त शंकाओ का निवारण किया और महासुदी पंचमी के शुभदिन उन्होंने सद्धर्म को अपनाया एवं बारह व्रतों को धारण किया | वहा से विहार कर के आचार्य श्री आगरा पधारे | संयोग से माणकचंद| भी अपने व्यापर हेतु आगरा गये वहा गुरुदेव के मुख से शत्रुंजय तीर्थ की महिमा सुनकर उन्होंने संकल्प किया जब तक शत्रुंजय तीर्थ कि यात्रा नहीं करूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा वहां से यात्रा हेतु प्रस्थान किया | चलते चलते मगरवाडा के घनघोर जंगल में पहुचे वहां पार डाकुओ ने उनको व्यापारी समझकर घेर लिया और तलवार से प्रहार किया जिससे इनके शरीर के तीन हिस्से हुए प्रथम हिस्सा धड़ गिरा आगलोड में , दूसरा हिस्सा पिंडी गिरी मगरवाडा में एवं मस्तक उछलकर जन्म स्थली उज्जैन (भेरुगढ़) में गिरा | सेठ अंतिम समय में शत्रुंजय के शुभ ध्यान से मरकर व्यंतर निकाय में मणिभद्र देव बने जो एकावतरी तथा सम्यक दृष्टी देव है जो एरावत हाथी पार विराजमान है | कुछ समय के बाद इधर अचानक आचार्य श्री हेमविमलसुरिजी के साधुओं परकिसी ने मेली विद्या का प्रयोग किया जिससे चित भ्रमित हो कर साधुओं का कालधर्म होने लगा | आचार्य श्री ने जब ध्यान लगाया तो अधिष्ठायक देव ने दिव्य संकेत दिया कि आप गुजरात में मगरवाडा गाँव में जाकर अष्ठम ताप पूर्वक साधना करोगे तो यह उपद्रव मिट जावेगा | गुरुदेव वहां पहुचे उनके ध्यान व तप के प्रभाव से मणिभद्र जी साक्षात प्रकट हुए और अपना परिचय दिया कि मैं वही माणक चंद सेठ हूं शुभ ध्यान पुर्वक मृत्यु पाकर मैं मणिभद्र देव के रूप में उत्पन्न हुआ हु | फिर गुरुदेव के मुख से उपद्रव कि बात सुनकर उपद्रवकारी काला गोरा भैरव के साथ युद्ध करके उन्हें परास्त किया व भविष्य में मुनि हत्या न करने की उन्हें प्रतिज्ञा दी | फिर गुरुदेव से विनती करी की मेरी जागृति के लिये आप तपागच्छ के उपाश्रय में मेरी स्थापना करवाइये ताकि आने वाले साधू साध्वी मुझे धर्म लाभ देते रहे और जो भी मुझे सच्चे मन से याद करेगा मैं उसकी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा और जिन शासन की हमेशा रक्षा और सहायता करूंगा इस तरह श्री मणिभद्र यक्षराज की महासुदी पंचमी के दिन स्थापना हुई और तपागच्छ के रक्षक देव प्रसिद्ध हुए |
जहा मस्तक गिरा था वह यही पावन स्थान है उज्जैन भेरुगढ़ में सेठ माणक चन्द्र की हवेली है जो उनकी जन्म स्थली है यहाँ जैनाचार्य श्री हेमविमलसुरिजी के कर कमलो से श्री मणिभद्र जी की प्रतिष्ठा हुई थी | समय के प्रवाह से यह हवेली करीब 600 सालो से काल के थपेड़े खा खाकर जीर्ण शीर्ण हुई | वि.स. २०३९ में चारूप तीर्थ में मणिभद्र देव द्वारा दिये प्रत्यक्ष दर्शन के बाद प.पू. पन्यास प्रवर गुरुदेव श्री अभयसागर जी म.सा. के लिखित आदेश से उनके पट्टधर शिष्य प.पू. आचार्य श्री अशोक सागर सुरीश्वर जी म. सा. ने इस जन्मभूमि हवेली का जीर्णोद्धार तथा नुतन केशरियानाथ दादा के जिनालय का निर्माण करा कर वि.स. २०६६ महासुदी ग्यारस दिनांक 11 फरवरी सन 2010 को इस तीर्थ कि प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई आज इस तीर्थ में यात्रियों के ठहर ने कि उत्तम व्यवस्था है एवं भोजनशाला चालु है कृपया तीर्थ पर पधारकर सेवा का अवसर प्रदान करें
१० इंद्र वैमानिक देवलोक में ।
२ इंद्र ज्योतिष्क देवलोक में ।
२० इंद्र भवनपति निकाय में ।
३२ इंद्र व्यंतर निकाय में ।
१०+२+२०+३२=६४ इंद्र ।
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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THANKS FOR VISITING.

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