ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

Kapardaji Tirth-श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ – श्री कापरडा तीर्थ

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श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ
श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ – श्री कापरडा तीर्थ
कापारड़ा गाँव की स्थापना कब हुई, उसका पता लगाना कठिन सा है| इसके प्राचीन नाम कर्पंतहेडक, कापडहेड़ा थे, ऐसा उल्लेख मिलता है| चमत्कारिक घटनाओं के साथ वि.सं. १६४७ पौष कृष्ण १० को प्रभु के जन्म कल्याणक के शुभ दिन भूगर्भ से यह प्रतिमा प्रकट हुई थी| जेतारण के हाकिम श्री भानाजी भण्डारी द्वारा निर्मित चौमंजिले अद्भूत भव्य जिनालय में वि.सं. १६७८ वैशाख शुक्ला पूर्णिमा सोमवार के दिन आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरीजी के सुहास्ते इस प्रभु प्रतिमा की प्रतिष्ठा संपन्न होने का लेख प्रतिमा के नीचे उल्लिखित है|
वि.सं. १९७५ के लगभग जब शासनसम्राट आचार्य श्री नेमिसुरीश्वर्जी महाराज का यहाँ पदापर्ण हुआ, तब व्यवस्था में शिल्पलता आने के कारण होती हुई आशातना को देख उन्हें दुःख हुआ| शीघ्र ही अपने पूर्र्ण प्रयास से जिणोरद्वार का कार्य प्रारंभ करवाकर मंदिर की सुव्यवस्था की| वि.सं. १९७५ माघ शुक्ला वसंत पंचमी के दिन आचार्य श्री के सुहस्ते पुन: प्रतिष्ठा संपन्न हुई | पहले इस चौ-मंजिले चतुमुर्ख मंदिर में श्री स्वयंभू पार्श्वनाथ भगवान की एक प्रतिमा ही थी| इस प्रतिष्ठा के समय अन्य १५ प्रतिमाएं भी प्रतिष्टित करवाई गई|
भंडारी गोत्र के श्री भानाजी, राजा गजसिंघ्जी के राज्यकाल में जोधपुर राज्य में जेतारण परगने के हाकिम थे| किसी कारणवश उन पर राजा ने कोपायमान होकर उन्हें जोधपुर जाने के लिए आदेश दिया| भयाकुल श्री भंडारीजी को प्रभु-प्रतिमा का दर्शन करके ही भोजन करने का नियम था| गाँव में तलाश करने पर वहां उपाश्रय में विराजित एक यतिवर के पास प्रभु प्रतिमा रहने का पता लगा| भंडारीजी प्रभु का दर्शन करके जब जाने लगे, तब निमितशास्त्र जानकार यतीजी ने भंडारीजी से जोधपुर जाने का कारण सुनकर कहा की यह आपकी कसौटी है, धैर्य रखना| आपको वहां जाने पर राजा द्वारा सम्मान मिलेगा, क्योंकि आप निर्दोष है| इधर राजा को स्वप्न में संकेत मिला की हाकिम निर्दोष है, सुनी हुई साड़ी बातें झूठी है| राजा द्वारा पूछताछ करवाने पर भानाजी निर्दोष मालुम पड़े, जिससे भानाजी के जोधपुर पहुचाने पर उन्हें राजा द्वारा सम्मान दिया गया व उन्हें पांच सौ रजत मुद्राएं उपहार स्वरुप भेंट दी गई|
भंडारीजी खुश होकर जेतारण जाते वक़्त पुन: यतीजी से मिले व सारा वृतांत कहा| यतीजी ने यहाँ सुन्दर मंदिर बनवाने की प्रेरणा दी| इस पर भंडारीजी ने कहा की उपहार प्राप्त पांच सौ मुद्राएं सेवा में अर्पित है और जो बनेगा, जरुर करूंगा| यतीजी ने प्रसन्नता पूर्वक मुद्राओं को एक थैली में भरकर ऊपर वर्धमान विधा सिद्ध वासक्षेप डालकर भंडारीजी को सौपते हुए कहा की थैली को उलटी न करना, मंदिर की आवश्यकता पूरी होती रहेगी | भंडारीजी फुले न समाये|
भंडारीजी का पूण्य प्रबल था| उनकी इच्छानुसार एक अभूतपूर्व मंदिर का नक्शा बनाया गया व कार्य प्रारम्भ हुआ| भानाजी ने अपने पुत्र श्री नरसिंह को इस कार्य के लिए रखा| कार्य सम्पूर्ण होने ने ही था की नरसिंघजी ने थैली उलटी करके देखना चाहा| ज्यो ही थैली उलटी की साड़ी मुद्राएं बाहर अवगत कराया गया| यतीजी ने कहा की जो होना था हो गया, पिताजी को कापरड़ा बुला लो| यतीजी ने कहा की जो होना था हो गया, पिताजी को कापारड़ा बुला लो| भानाजी को कापारड़ा बुलाकर सारे वृतान्तो से अवगत करवाया | भंडारी जी को अत्यंत दुःख हुआ लेकिन उपाय नहीं था| मंदिर उनकी भावनानुसार पूरा न हो पाया, लेकिन काफी हद तक हो चूका था|
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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