श्री अजाहरा पार्श्वनाथ
श्री अजहरा पार्श्वनाथ – अजहरा
अयोध्या के सूर्यवंशी राजा की वंश परंपरा में अजयपाल नाम का राजा हुआ, जिसने साकेतपुर नगर को अपनी राजधानी बनाई थी|
एक बार वह राजा शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा के लिए अपने नगर से निकल पड़ा| क्रमश: आगे बढ़ते हुआ वह दीव बन्दर में आया, तभी उसके शरीर में भयंकर व्याधि फ़ैल गई| इस कारण उसे वहीँ पर रुकना पड़ा|
इसी बीच रत्नसार नामक व्यापारी के जहाज समुद्र के तूफ़ान में फंस गए| अपने प्राणों की रक्षा के लिए रत्नसार ने परमात्मा का ध्यान किया| परमात्म-ध्यान की रक्षा के लिए रत्नसार ने परमात्मा का ध्यान किया| परमात्म-ध्यान के प्रभाव से उसे उसी समय दिव्यवाणी सुनाई दी| दिव्य वाणी के संकेतनुसार कल्पवृक्ष के लकड़े के संपूत में रही पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा की जानकारी मिली| दैवी संकेत से उसे ख्याल आया की धर्नेंद्र ने इस प्रतिमा की ७ लाख वर्ष तक पूजा की है, कुबेर देव ने ६०० वर्ष तथा वरुणदेव ने ७ लाख वर्ष तक पूजा की है| अधिष्ठात्री पद्मावती देवी ने यह प्रतिमा अजयपाल राजा को सौपने की बात की|
दैवी प्रभाव से रत्नसार ने समुद्र में से वह प्रतिमा प्राप्त की, उसी समय वह समुद्र भी शांत हो गया|
रत्नसार ने अत्यंत ही आडंबर पूर्वक वह प्रतिमा अजयपाल राजा को प्रदान की| राजा ने प्रभुजी का भव्य स्नात्र मोहत्सव किया| उस स्नात्रजल के प्रभाव से राजा की व्याधि एकदम शांत हो गई| अजयपाल राजा ने वहां अजयनगर बसाया| वहां पर भव्य जिनमंदिर बनवाकर उसमे पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा की|
प्रभुजी की त्रिकाल-पूजा के प्रभाव से राजा की समृद्धि खूब बढ़ गई| छ मास बाद राजा ने शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा की|
अजय राजा के रोग को हरनेवाले ये पार्श्वनाथ प्रभु अजहरापार्श्वनाथ के नाम से प्रख्यात हुए|
४६ सें. मी. ऊँचे केसरवर्णीय सात फणावाले पद्मासन में सुशूभित ये पार्श्वनाथ प्रभु मन की मलिन वासनाओं को दूर करनेवाले है|
यह अजाहरा तीर्थ जूनागढ़ (सौराष्ट्र) जिले में अजहारा तीर्थ जूनागढ़ (सौराष्ट्र) जिले में अजाहरा गाँव में आया हुआ है|
अयोध्या के सूर्यवंशी राजा की वंश परंपरा में अजयपाल नाम का राजा हुआ, जिसने साकेतपुर नगर को अपनी राजधानी बनाई थी|
एक बार वह राजा शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा के लिए अपने नगर से निकल पड़ा| क्रमश: आगे बढ़ते हुआ वह दीव बन्दर में आया, तभी उसके शरीर में भयंकर व्याधि फ़ैल गई| इस कारण उसे वहीँ पर रुकना पड़ा|
इसी बीच रत्नसार नामक व्यापारी के जहाज समुद्र के तूफ़ान में फंस गए| अपने प्राणों की रक्षा के लिए रत्नसार ने परमात्मा का ध्यान किया| परमात्म-ध्यान की रक्षा के लिए रत्नसार ने परमात्मा का ध्यान किया| परमात्म-ध्यान के प्रभाव से उसे उसी समय दिव्यवाणी सुनाई दी| दिव्य वाणी के संकेतनुसार कल्पवृक्ष के लकड़े के संपूत में रही पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा की जानकारी मिली| दैवी संकेत से उसे ख्याल आया की धर्नेंद्र ने इस प्रतिमा की ७ लाख वर्ष तक पूजा की है, कुबेर देव ने ६०० वर्ष तथा वरुणदेव ने ७ लाख वर्ष तक पूजा की है| अधिष्ठात्री पद्मावती देवी ने यह प्रतिमा अजयपाल राजा को सौपने की बात की|
दैवी प्रभाव से रत्नसार ने समुद्र में से वह प्रतिमा प्राप्त की, उसी समय वह समुद्र भी शांत हो गया|
रत्नसार ने अत्यंत ही आडंबर पूर्वक वह प्रतिमा अजयपाल राजा को प्रदान की| राजा ने प्रभुजी का भव्य स्नात्र मोहत्सव किया| उस स्नात्रजल के प्रभाव से राजा की व्याधि एकदम शांत हो गई| अजयपाल राजा ने वहां अजयनगर बसाया| वहां पर भव्य जिनमंदिर बनवाकर उसमे पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा की|
प्रभुजी की त्रिकाल-पूजा के प्रभाव से राजा की समृद्धि खूब बढ़ गई| छ मास बाद राजा ने शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा की|
अजय राजा के रोग को हरनेवाले ये पार्श्वनाथ प्रभु अजहरापार्श्वनाथ के नाम से प्रख्यात हुए|
४६ सें. मी. ऊँचे केसरवर्णीय सात फणावाले पद्मासन में सुशूभित ये पार्श्वनाथ प्रभु मन की मलिन वासनाओं को दूर करनेवाले है|
यह अजाहरा तीर्थ जूनागढ़ (सौराष्ट्र) जिले में अजहारा तीर्थ जूनागढ़ (सौराष्ट्र) जिले में अजाहरा गाँव में आया हुआ है|
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