ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

श्री लोद्रवा पार्श्वनाथ – श्री लोद्रवपुर तीर्थ

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श्री लोद्रवा पार्श्वनाथ

श्री लोद्रवा पार्श्वनाथ – श्री लोद्रवपुर तीर्थ
कहा जाता है की प्राचीन काल में यह लोद्र राजपूतों की राजधानी का एक बड़ा वैभवशाली शहर था| भारत का प्राचीन विश्व-विधालय भी यहाँ था| इस स्थान की विश्व में प्रतिष्ठा थी| एक समय यह राज्य सगर राजा के अधीन था| उनके श्रीधर व राजधर नामक दो पुत्र थे| इन्हिनें जैनाचार्य से प्रतिबोध पाकर जैन-धर्म अंगीकार किया था| इन्होनें यहाँ श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ भगवान का अतिविशाल भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसका उल्लेख विद्धान श्री सहजकीर्ति गणिवर्य द्वारा लिखित “सतदल पद्मयन्त्र” की प्रशसित में है, जो अभी भी इस मंदिर के गर्भद्वार के दाहिनी ओर स्तिथ है| तत्पश्चात सेठ श्री खिमसी द्वारा जिणोरद्वार का कार्य प्रारम्भ होकर उनके पुत्र श्री पुनसी द्वारा सम्पूर्ण होने का उल्लेख है|
कालक्रम से यहाँ के रावल भोजदेर व जैसलजी (काका-भतीजा) के बीच हुए भयंकर युद्ध के कारण पूरा शहर विध्वंस हुआ, तब इस मंदिर को क्षरति पहुंची| विजयी जैसलजी ने अपनी नयी राजधानी बसाकर उसका नाम जैसलमेर रखा| यहाँ के राज-सम्मान प्राप्त संपन्न श्रावकों द्वारा जैसलमेर किले में मंदिरों का निर्माण करवाया गया| उस समय श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा यहाँ से जैसलमेर ले जाकर नवनिर्मित मंदिर में पुन: प्रतिष्टित करवायी थी, अभी वहां विधमान है|
दानवीर धर्मनिष्ठ सेठ श्री थीरू शाह इस प्राचीन मंदिर का पुन: जिणोरद्वार का कार्य प्रारम्भ कर संघ लेकर शत्रुंजय यात्रार्थ पधारे| यात्रा से लौटर तब तक जिणोरद्वार का कार्य सम्पूर्ण हो चूका था| अब वे सुन्दर, अलौकिक व अपने आप में विशिश्ष्ठा पूर्ण ऐसी प्रतिमा की खोज में थे| दैवयोग से पाटण के प्रभुभक्त दो कारीगर अपने जीवनकाल की कृतियों में सर्वोत्कुष्ट सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की अलौकिक, व अति सुन्दर दो प्रतिमाएं लेकर मुलतान जा रहे थे| तब विश्राम के लिए यहाँ रुके| रात में दैविक शक्ति से इनको स्वप्न आया की यहाँ के सेठ थीरूशाह को ये प्रतिमाएं दे देना| उदार थीरूशाह को भी स्वप्न में इन प्रतिमाओं को लेने के लिए प्रेरणा मिली| दुसरे दिन दोनों एक दुसरे को ढूँढने निकले व मिलने पर सेठ ने दोनों प्रतिमाओं के बराबर सोना देकर प्रतिमाएं प्राप्त की| कारीगर लोग अत्यंत खुश हुए| जिस काष्ठ के रथ में कारीगर प्रतिमाएं लाये थे, वह अभी भी यहाँ विधमान है|
जैसलमेर पंचतीर्थी का यह प्राचीनतम मुख्य तीर्थ स्थान है| यहाँ की शिल्पकला बहुत ही निरागे ढंग की है| पश्चिम राजस्थान के कारीगरों ने हर स्थान पर विभिन्न ढंग की शिल्पकला का नमूना प्रस्तुत करके राजस्थान का गौरव बढाया है| प्राचीन कल्पवृक्ष के दर्शन सिर्फ यहीं पर होते है|
किसी जमाने में भारत के बड़े शहरों में इसकी गिनती थी| तब ही भारत का बड़ा विश्वविधालय यहाँ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था|


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