कर्तव्य तीसरा – क्षमापना
एक अमरिकन प्रेसिडेन्ट की पत्नी एक बार पागलों की अस्पताल की मुलाकात लेने गई| वहॉं उस संस्थाके एक सभ्य के साथ उसका मिलाप हुआ| दिखने में वह स्वस्थ, सुघड़ और बुद्धिमान दिखाई देता था| उसमें पागलपन का एक भी चिह्न दिखाई नहीं देता था| वार्तालाप करने की रीत भी सभ्य और अच्छी थी| उसकी ऐसी सभ्यता से प्रभावित होकर उस अमरिकन महिलाने रसपूर्वक पूछ लिया कि- क्या आप यहॉं के सुपरवाइज़र हो, या कर्मचारी हो ? उसने हँसकर और कुछ नाराजगीभरें भावसे कहा- ना जी ! मुझे यहॉं तीन सालसे पागल मानकर कैद कर रखा है|
महिलाने खेदसहित आश्चर्य से पूछा – क्या आप पागल हो ? यह कैसे हो सकता है ? आपमें पागलपनके कोई लक्षण तो दिखाई नहीं देते| एक स्वस्थ बुद्धिमान जैसा ही सलूकभरा आपका व्यवहार है| यदि आप जैसे पागल माने जायेंगे, तो बुद्धिमानमें गिनती किसकी की जाएगी? उसने कहा – मैंने भी यहॉं के डॉक्टर – सुपरवाइजर इत्यादि सभी को कितनी बार कहा है कि मैं पागल नहीं हूँ, किन्तु यहॉं मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं देता है| और मुझे यहॉं से कोई जाने भी नहीं देता|
तब उस महिलाने आश्वासन देते हुए कहा कि – अब आप चिंता मत किजीए| मैं यहॉंके संचालक आदिको सूचना देकर आपको यहॉं से मुक्त करवाऊँगी| युवकने आभार व्यक्त किया| आधे घंटे के बाद जब वह महिला नीचे उतरने लगी तब पिछेसे उस पागलने पूरी शक्ति लगाकर लात लगा दी| महिला भूमिशरण हो गई| बहुत मुश्किलसे खड़ी होकर क्रोधसे पूछा – आपने ऐसे लात क्युँ लगाई ? तब पागलने जोर-जोर से हँसकर-चिल्लाते हुए कहा कि आप जैसे बड़े लोग आपकी अन्य बातों में मुझे मुक्त करवाने को भूल न जाए, बराबर ध्यान रखें इसलिए मैंने आपको लात लगाई| महिला समझ गई| अब तक बुद्धिमान दिखनेवाले इस युवक पर पागलपनकी असर हुई है| इस के पर पागलपन का दौरा कब पडेगा वह कह नहीं सकतें, इसलिए ही उसको पागल मानकर यहॉं रखा गया था|
जैसी परिस्थिति उसकी है, ठीक वैसी परिस्थिति हमारी भी है| जब तक क्रोध की ज्वाला उठती नहीं तब तक शांत और क्षमाशील दिखाई देनेवाले हम छोटी-मोटी बात को लेकर कब धधक उठेंगे वह कह नहीं सकते| क्योंकि हम संस्कारसे-खून से क्षमाशील कहॉं हैं ?
पृथ्वी की तरह हमारे अंतरमें भी लावारस जल रहा है| अहंकार, तिरस्कार, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध इत्यादि इस लावारस के घटक हैं|
यदि हम अपने मनको एक डायरी समझकर और एक एक जानेवाले दिन को एक-एक पन्ना मानकर चलें, तो ऐसा कह सकते हैं कि हमनें अपनी इस डायरीमें एक एक पन्ने पर दूसरों की ब्लेक साईड, भूल, अपराधों को ही नोट करके रखा है| मानो जैसे यह डायरी क्राइम विभाग के अधिकारी की है| उस अधिकारी की डायरी के हर एक पन्ने पर क्या दिखाई देगा ? यही कि आज किसने कब क्या गुन्हा किया है ? हमारी डायरी भी ठीक क्राइम विभाग के अधिकारी जैसी ही है सिर्फ अंतर इतना है कि ओफिसर की डायरी जेबमें रहती है, हमारी डायरी हृदयमें-मनमें रहती है| ड्यूटी पूरी होने के बाद वेश के साथ उस डायरी से भी अधिकारी मुक्त होता है, लेकिन हमारी डायरी तो सतत हमारे साथ ही रहती है, इसलिए हमे मुक्ति कहॉंसे मिलेगी ?
हॉं, हमे भी मुक्ति मिल सकती है| संवत्सरी का दिन यानी कि इस डायरीसे मुक्त होने का दिन| अतीतकाल में बीते हुए सभी प्रसंगों की अप्रसन्नता, द्वेष और कटुता से भर देने वाली यादों से लदी हुई डायरी टुकडे टुकडे करके दफनाने का दिन ! जो इस अवसर को सफल करता है उसका सम्यक्त्व निर्मल होता है| जो इस अवसर को चूक जाते हैं, वे मिथ्यात्वमें डूबे रहते हैं|
दो सगे भाई| दोनों के बीचमें नौं साल का अंतर| माता की जल्दी मृत्यु हो गई थी| पिताजी की मृत्यु के समय बड़े भाईका विवाह हो गया था| छोटा भाई नौंवी कक्षा में पढ़ रहा था| बड़े भाई-भाभी ने पिताजी की मृत्यु के समय छोटे भाईको सभी तरह से संभालने का वचन दिया था| पिताजी की मृत्यु के बाद घरमें मुख्य बने हुए भाई-भाभी ने छोटे भाईकी पुत्र की तरह संभाल करके पढ़ाया-लिखाया| इतना ही नहीं अपनी दुकान इतनी बड़ी नही होने के कारण अच्छे स्थान में नौकरी पर लगाया| और अच्छे खानदान घर की कन्या के साथ विवाह भी करवाया|
किन्तु अब गड़बड़ शुरु हो गई | जेठानी मानती थी कि ’इतने साल तक घरके लिए मैंने मेहनत-मजदूरी की| अब देवरानी की फर्ज है ज्यादा काम करने की|’ देवरानी मानती थी कि ’मैंने पति के साथ नाता जोडा है| सभी की मजदूरी मैं क्युं करुँ ? जेठानी अब तक की हुई सेवा का मुआवज़ा चाहती थी और देवरानी बराबर काम बॉंटने में समझती थी| बस… यह ही एक कारण से दोनोंमें खटपट होने लगी| मनमुटाव होने लगा| व्यापारमें रखने योग्य गिनती घर के काममें शुरु हुई| छोटे मोटे सभी काम का हिसाब होने लगा| दोनों को ऐसा ही लगता था कि खुद अधिक काम करती है और दूसरी आलस-प्रमाद-कामचोरी करती है| स्नेह के अभाव में ईर्ष्या-असूया-संघर्ष होने लगा| दूसरे की हर भूल माफ करने योग्य लगने के बजाय वात्सल्य के अभावमें वे दोनों दूसरे की हर एक भूल माफ करने लायक नहीं, पर बिलकुल न चल सके-सख्त दंड देने लायक लगने लगी|
बात बढ़ती गई| द्वेष की चिनगारी अब अँगारे बनने लगी| दिन में दोनों लडती थीं और रातमें बहकानेवाली बातोंसे अपने अपने पतिके कान भरने लगीं| बारबार कान भरने से परस्पर दोनों भाईओ का प्रेम भी कम होने लगा| बड़े भाईकी उदारता संकीर्ण होने लगी| छोटे भाईका विनय उद्धताई में बदलने लगा| दोनों भाईओ के बीचमें भी चख चख होने लगी| एकबार दोनों बहुओं में बहुत ठन गई| आँसू बहाते बहाते रात्रिमें दोनों अपने-अपने पतिके कान भरने लगीं| इस घरकी पीड़ा से तो नरक की पीड़ा कम है ऐसी बातें हुई | इस झंझटसे मुक्त होने के लिए ’इससे तो आत्महत्या करके मर जाना अच्छा’ ऐसी वेदना प्रकट हुई| अगर अब अलग नहीं हुए तो मायके चले जानेकी धमकी दी गई|
उसमें भी जेठानीने अपने पति के पास बराबर स्वांग रचा| इस घरके लिए अब तक मैंने कितना सारा बलिदान दिया- सख्त मजदूरी की इत्यादि का आँसू बहाते बहाते सविस्तार वर्णन किया| फिर भी आज बदलेमें क्या मिला ? वही मजदूरी ? वही गुलामी ? और उपर से ताना, कटुवचन और अपमान ? जेठानी का अभिनय बड़ा रंग लाया| छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ रोज घरसे थोड़ी दूर आये छोटे कमरे में सोने के लिए जाता था| दूसरे दिन सुबह जब ये छोेटे भाई-भाभी घरमें प्रवेश करने गये तब बड़े भाईने रौद्र स्वरूप प्रकट किया| जा… नालायक… चला जा| तेरी पत्नी के साथ चला जा| आजसे इस घरमें पॉंव भी मत रखना| आज से वह कमरा तेरा.. अब वहॉं ही रहना… यहॉं तेरा कोई हिस्सा नहीं है इत्यादि कहकर घरसे बाहर निकाल दिया| छोटाभाई पत्नी के साथ वापस अपने छोटे कमरे पर आया.. दोनोंका दिमाग चकरा गया था| ऐसे अन्याय, अपमान का बदला किस तरह लें ? पत्नीके भाईने कोर्टमें केस करने की सलाह दी| छोटेभाईने क्रोधके आवेश में, अन्याय के सामने लड़ने के लिए और अपमान का बदला लेने की भावना से कोर्टमें केस किया| दो बिल्ली का झगडा बंदर को रास आता है| दोनों भाईओ की लड़ाई में वकील को मलाई मिलने लगी|
छोटेभाई को सगे-ससुराल वालों से सतत लड़ने की सलाह मिलती रही| वह लडाई में जब शिथिल हो जाता, तब सभी हितस्वी लोग उसका ज़ोश बढ़ाते थे| सचमुच संसारमें पेट्रोल सुलभ है, पानी दुर्लभ ! लड़ाई की अगन लगानेवाले सभी हैं, लेकिन शांति और समाधान के पाठ पढ़ाने वाले कितने ? अन्याय के सामने झुकना वह लाचारी है… कायरता है…. अन्याय करनेवाले को प्रोत्साहन देने जैसा है इत्यादि वचन कहकर सभीने केस चालु रखवाया| तीन साल बीत गये| कोर्टमें केस की सुनवाई होने पर थोडा आगे बढ़ता और वापस तारीख पड़ती| इसमें ही छोटेभाई को बीस हजार का कर्ज हो गया| इस मुकदमे के टेन्शनमें नौकरी पर काम करते करते बार-बार गलतीयॉं होने लगी| कोर्ट के चक्कर में बार-बार छुट्टी लेनी पडी| इसी कारण सेठने भी धमकी दे दी की सही ढंगसे नौकरी करो वर्ना बरतरफ़ कर दीये जाओगे| आखिर उसकी चैन-निंद खत्म होने लगी| सतत चिंता तो रहती ही थी, उसमें भी आसपासवाले नई नई बातें लाकर भड़काने लगे| दुकान में बराबर चित्त नहीं लगने के कारण बड़े भाई का भी धंधा-नफा कम होने लगा| चिंता-टेन्शन-उपाधि बढ़ने लगी| भड़काने वाले लोग बड़े भाईको भी भड़काते रहे| दोनो भाईओं को एक-दूसरे के प्रति इतना द्वेष हो गया था कि एक-दूसरे का नाम लेते ही आग लग जाती थी| अरे इतना ही नहीं सामने मिलते ही रास्ता बदल देते थे|
इतने में पर्वाधिराज पर्युषण आये| छोटेभाई का एक मित्र छोटेभाई को आग्रह करके प्रवचनमें ले गया| छोटाभाई तो नास्तिक की तरह ऐसा मानता था कि- धर्म करने से क्या मिलता है ? बड़ाभाई भी पूजा करता है, लेकिन उसका बर्तन तो राक्षस जैसा ही है| धर्म करनेवाले सभी दंभी हैं – नालायक हैं| फिर भी दोस्त के आग्रहसे प्रवचन श्रवण करने के लिए गया| महाराज साहबने व्याख्यानमें क्षमाभाव को ही मुख्य करके प्रवचन दिया| क्रोध – और द्वेषसे बेचैनी – संताप… बादकी भवपरंपरामें वैर..वैर..वैर के अलावा कुछ नहीं मिलता| प्रभु वीर के प्रति पूर्व भवमें वैर रखने वाला सिंह साक्षात् भगवान वीरको देखते ही किसान के भवमें रजोहरण रखकर भाग गया था| लड़ाई करानेवाले जगतमें सभी मिलेंगे लेकिन शान्त करानेवाले विरल व्यक्ति कितने ? यदि हम ही पानी जैसे बन जाये तो लडाई की आग लगाने वालों की दाल नहीं गलेगी| जीव अन्याय नहीं करता किन्तु अपने ही पूर्वभवमें बॉंधे हुए कर्म अन्याय करते हैं| जीव तो निमित्तमात्र है| जैसे गणितमें एक कदम झूठा होने पर जवाब भी झूठा ही आता है, जैसे शरीरमें एक नाड़ी ब्लोक हो जाने के कारण मौत आ जाती है, जैसे निर्दोष छूट जाने की कगार पर खडे क़ातिल द्वारा एक गलत वाक्य ’मैं मूर्ख थोडा ही हुँ की ऐसी गलती दुबारा करुं ?’ बोले जाने पर फांसी की सजा भुगतनी पडी, ठीक उसी तरह एक जीव के प्रति भी द्वेष-वैर का बंधन होने पर शांति-स्वस्थता और समाधि खत्म हो जाती है| हर तरह से बरबाद होने के बाद भी क्या मिलेगा ? लोगो के सामने मत देखना| आप लड़ोगे तो लोगो को तमाशा देखने को मिलेगा, लेकिन नींद आपकी हराम हो जाएगी| जीवन भी नीरस हो जायेगा और परलोकमें तो दुर्गति निश्चित ही है| क्षमा करनेवाला गुणसेन नौं भवके अंतमें मोक्ष पहुँचा और लाख वर्ष पर्यन्त तपश्चर्या करनेवाला अग्निशर्मा क्षमा नहीं रखने के कारण अनंत संसारमें भटकता रह गया| पाक्षिक-प्रतिक्रमण के पहले वैर-द्वेष-क्लेश के मिच्छामि दुक्कडम् न हो जाए तो साधुपन गँवाना पड़ता है| चौमासी प्रतिक्रमण के पहले यदि क्षमापना न की जाए तो श्रावकपन गँवाना पडता है और यदि संवत्सरी प्रतिक्रमण के पहले क्षमा याचना न की जाए तो सम्यक्त्व गँवाना पडता है| सम्यक्त्व की मौजुदगी में दस-सो-हजारगुना फल देनेवाले दान-शील तप-पूजा-सामायिक-इत्यादि भाव… उसकी गैरहाजरीमें अल्प फल देने के लिए ही समर्थ होते हैं| क्षमा रखनेवाला… देनेवाला… और मॉंगनेवाला उत्तरोत्तर महान है| स्वयं तो चिंता-टेन्शन से मुक्त होते ही हैं साथ-साथ अन्य को भी मुक्त करते हैं|
साधु भगवंत की देशना से छोटेभाई के मनमें घमसान मचने लगा| बड़े भाईके सामने केस करने से क्या लाभ हुआ ? ऐसा विचार करने लगा| पिताजी की मृत्यु के बाद बड़े भाई-भाभी कैसी सावधानीपूर्वक मुझे संभालते थे ये सब याद आया| बड़े भाई-भाभी के उपकार दिखाई देने लगे| और बिचार आने लगा कि कोर्टमें लड़ने के नाम पर पायमाल हो जाने से और नौकरी गँवानी पडेगी तो भूखे मरने के दिन आ जायेंगे, उससे अच्छा तो यह है कि उपकारी बड़े भाईसे माफी मॉंगकर इस बात का निबटारा करुँ| घर जाकर पत्नी को अपने मनकी बात बता दी| पहले तो पत्नी चौंक उठी| इतना लड़ने के बाद अब बात को छोड देने से क्या लाभ होगा ? लोगोंमें कैसी बदनामी होगी ? जिन्होंने हमें अपमानीत करके घरसे बाहर निकाल दिया है – उनकी शरणमें अब कैसे जायें ? इत्यादि बहुत दलील की| पर छोटे भाई को अब शांति ही पसंद थी| उसे द्वेष के मार्गमें भयंकर अंधेरा दिखाई दे रहा था| पत्नी को समझाते समझाते रातको दस बज गये| आखिर क्षमा मॉंगने के लिए पत्नी सहमत हुई| सुबह की प्रतीक्षा किये बिना ही दोनों रात्रिमें ही क्षमा मॉंगने के लिए चलने लगे| (क्षमा मॉंगने की हमारी उत्कृष्ट आराधना निष्फल न हो कर सार्थक बने, इसलिए हम कुछ महत्वपूर्ण बातों का बिचार कर लें|
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