ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

पर्युषण महापर्व – कर्तव्य चौथा

पर्युषण महापर्व   कर्तव्य चौथा

कर्तव्य चौथा – अट्ठमतप
सम्यक्त्वी की विधिपूर्वक की नवकारशी जितने तपसे नरकमें दुःख सहन करने में कारणभूत १०० सालके पापकर्मों का नाश हो जाता है| इस मार्ग पर यदि आगे बढ़े तो पोरिसी से १००० साल… एकासणासे १० लाख साल, उपवाससे १० हज़ार करोड वर्ष, छट्ठ से १ लाख करोड़ वर्ष और अट्ठमसे १० लाख करोड़ वर्ष के पाप नष्ट होते हैं| दो इँच की जीभ के रस को पुष्ट करने के लिए अनादिकाल से अभक्ष्य भोजनादि करके किये हुए पाप का प्रायश्चित अट्ठम तप है, जो आहारसंज्ञा को तोडने में भी सुरंग समान है| यह तप नामके अग्नि से एक ही झटकेमें कर्मोके हजारो टन कचरे का निकाल होता है| विशिष्ट तपके प्रभावसे ही नंदिषेण मुनि आदि की तरह ढ़ेर सारी लब्धि प्राप्त होती हैं|
कभी भी नहीं सूखनेवाली, कभी भी जंग नहीं लगनेवाली और मृत्यु पर्यन्त सलामत रहनेवाली जीभ पर नियंत्रण रखे बिना आत्मा की कभी भी जीत नहीं होती| पूर्वधर मंगुआचार्य जैसे भी जीभ पर नियंत्रण न रख सके तो साधना और जीवन, दोनों हार गये| खानेवाला हर समय और सब कुछ खा नहीं सकता| जब कि उपवास करनेवाला हर समय हर खाने की चीज़ का त्याग कर सकता है| यह ही तप की महत्ता है| नींद में शरीर के सभी अंगोको छुट्टी मिलती हैं| परन्तु पेट को तो तपमें ही छुट्टी-आराम मिलता है| इससे पेट की शक्ति बढ़ती है| कहीं ऐसा देखने भी मिला है कि १२ घंटे, २४ घंटे, ३६ घंटे के बाद खानेवाले चूहे में से क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय चूहे की मौत हुई| इस से यह फलित होता है कि तपसे आयुष्य भी टिका रहता है| अधिक भोजन-अजीर्ण इत्यादि गडबड़ें भी तप से दूर होती हैं| केन्सर जैसे रोग में उपवास अचूक ईलाज़ के रूपमें सिद्ध है| कीड़नी फैल, डायाबीटीस, लीवर का बिगाड़, इत्यादि के कारण जिनके लिए डॉक्टर ने बारह घंटे भी जीवित रहने की कल्पना नहीं की थी, वह दादीमॉं, उपवास के सहारे पर ७६ दिन तक जिंदा रहे| तप मात्र लंघन नहीं है, परन्तु शरीर का सत्व और प्रतिकूल संयोगोमें स्थिर रहने की शक्ति-सहिष्णुता का विकास करने का सही उपाय है| जिसकी सहन शक्ति बढ़ती है उसको समाधि सुलभ होती है|
पर्युषण महापर्व   कर्तव्य चौथा
कान इत्यादि दो हैं और कार्य एक है| जीभ एक है और कार्य दो| वाद और स्वाद| दोनोंमें सावधान रहनेवाला मानव ही सर्वजित् है और दोनों में पराजय पाने वाला मानव सर्वहार है| जीभसे अंदर खाना डालने की गडबड से पेटमें आग लगती है और जीभसे बाहर शब्द निकालने की गडबड़ से बाहर आग लगती है| जन्म होते ही अन्य इन्द्रियों का विकास नहीं होने पर भी जीभ पावरफुल होती है और बुढ़ापा-मृत्यु के समय पर भी जब अन्य इन्द्रियों के थक जाने पर भी यह जीभ पावरफुल रहती है| इस रसनेन्द्रिय को जितने के लिए तप है| रसगारव-शातागारव पर सीधा प्रहार करने में तपधर्म ही सक्षम है| बाईस परिषहमें सहने में सबसे कठिन परिषह है क्षुधा परिषह| इसलिए ही तो कहते हैं कि ‘‘भूखा न देखे बासी भात|’’
भूख के दुःख से ही फ्रेंच क्रान्ति… इत्यादि क्रान्ति हुई| सामान्य मानव थोडी भी भूख को सहन नहीं कर सकता| इसलिए ही तप करनेवाले के प्रति सहज सद्भाव बढ़ जाता है| जिस तरह भोजन-समारोह में खाने-पीने की कई आईटम होने पर भी मिष्टान्न की प्रधानता होती है, और ‘आज तो खीरका भोजन था’ ऐसे पूरे भोजन-समारोह की प्रसिद्धि मिष्टान्न से होती है, उसी तरह दानादि अन्य कइँ धर्म होते हुए भी तपधर्म का स्थान प्रधान रहता है यानी कि तपस्वी यदि दानवीर हो फिर भी उसकी विशेष महत्ता तपसे ही प्रसिद्ध होती है|
‘बसमें कितनी भी भीड़भाड़ हो फिर भी कंडकटर की जगह तो हो ही जाती है’ इस दृष्टांत को ध्यान में रखकर पेटभर जिमने के बाद भी जीभ को लुभानेवाली चीज़ मुँहमें डालने को जीव तैयार हो जाता है, यह पेटुपन की लिपटी हुई आदतों के कारण ही तो ज्यादा खानेकी स्पर्धाका आयोजन किया जाता है| एक दिन पुत्र-पिता भोजन-समारोहमें जिमने के लिए आमने सामने बैठे| इशारे से बार-बार पिताके मना करने पर भी पुत्र खाते खाते बीचमें पानी पीता रहा| जिमकर बहार निकलने के बाद पिता ने पुत्र को थप्पड़ लगाते हुए कहा, ‘‘मूर्ख ! यहॉं पानी पीने के लिए आया था क्या ? पानी तो घर पर भी मिल सकता था| यहॉं तो मिष्टान्न खाना चाहिए| मैं इशारे करता रहा फिर भी तेरी समझमें नहीं आया|’’ तब पुत्रने कहा, ‘‘पिताश्री! आपका इशारा मैं समझ गया था, किन्तु विज्ञान कहता है कि जिमते वक्त बीच-बीचमें पानी पीनेसे ज्यादा खा सकते हैं|’’ यह सुनकर पिताजीने दो थप्पड लगाई, और कहा, ‘‘मूर्ख ! यह बात थी, तो मुझे भी पहले से ही कहना था न ?’’ आहारसंज्ञा के ऐसे खेल को खत्म करने के लिए तपधर्म अत्यंत आवश्यक है|
मरीचि के भवमें भगवान महावीरस्वामी शरीर की ममता से भटक गये| वेश, आचार और आखिर विचार से भी भ्रष्ट हुए| इस तरह शरीर का राग जीवको धर्ममें आगे नहीं बढ़ने देता| शरीर के राग को तोड़ने के लिए ‘‘तप’’ अमोघ साधन है| इसलिए ही तद्भव मोक्षगामी होते हुए भी भगवान महावीरस्वामी इत्यादि तीर्थंकर भी उग्र तपश्चर्या करते हैं|
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शरीर की सातों धातु में भीतर फैले हुए पापवासना-विकारों के जन्तु को दूर करने के लिए सप्तधातु को तपाना आवश्यक है| तपसे सातों धातु तप्त होती हैं और विकार के जंतु भी नष्ट होते हैं| अतीतकालमें किये हुए पापों के प्रायश्चितरूप, लगे हुए करारे कर्मो को तोड़ने के लिए और उसके संस्कारों को मिटाने के लिए प्रायश्चितमें तप दिया जाता है| सालभर के पापोकी स्थूल से सफाई करने के लिए परमात्माने अट्ठम तप फरमाया है|
त्रिकम पटेल के बिलकुल उजले कपड़े पर कोयले का काला दाग लगने के कारण त्रिकम पटेल का सिर फिर गया और उसने निर्णय कर लिया कि, ‘‘काले कोयले को उजला कर दुं… फिर दाग ही नहीं लगेगा|’’ कोयले को उजला करने के लिए त्रिकम पटेल तालाब के पास जाकर साबुन का झाग करके कोयले को घिसने लगा| तब वहॉं से एक बनिया जा रहा था| इस तरह कोयले को घिसते हुए त्रिकम पटेल को देखकर पूछा, ‘‘त्रिकम पटेल ! आप क्या कर रहे हो ?’’ त्रिकम पटेलने कहा, ‘‘काले कोयले से उजले कपड़े पर दाग लग जाते हैं| इसलिए कोयले को धुलाई करके उजला बनाता हूँ|’’ बनियेने कहा, ‘‘सचमुच आप त्रि-कम ही हो |’’ पटेलने कहा, ‘‘मतलब ?’’ बनियेने कहा, ‘‘त्रि यानी कि अक्कल यह तीन अक्षर की आप में कमी है| त्रिकमने कहा, ‘‘क्यों ? मुझ में अक्कल नहीं है ?’’ बनियेने जवाब दिया, ‘‘इस तरह साबुन घिसने पर कोयला कभी भी उजला नहीं हो पायेगा| एक काम करो, उस कोयले को अग्निमें जलाने से उसकी जो भस्म होगी वह सफेद होगी ! जो आपके कपड़े को दाग नहीं लगायेगी|’’
तप अग्नि है, जो काले कोयले जैसे कर्मों से काली बनी हुई अपनी आत्मा को शुद्ध और उजली बनाता है| चिलातीपुत्र, दृढ़प्रहारी और अर्जुनमाली जैसे कईं महापुरुष इस बात के दृष्टांत हैं|
कोमलशरीरवाले धन्नाकाकंदी जैसे महानुभावोंने तपके माध्यमसे शरीर का पूरा कस और विषयोंका रस सूखा दिया था|
यदि आपसे अट्ठम न हो सके तो, तीन उपवास – छः आयंबिल, आखिर ६००० गाथा का स्वाध्याय करके भी अट्ठम तप कर्त्तव्य को निभाना चाहिए| तब ही परमात्मा की आज्ञाका सत्यापन किया ऐसा कहा जायेगा| अन्यथा आज्ञाभंग का भयंकर दोष लगता है| शक्ति-भावना अनुसार आंशिक रूपसे भी परमात्मा की आज्ञा का पालन करके आज्ञा सापेक्ष बनना, वही सत्यापन है| जैसे कि प्रतिक्रमण के बाद स्वाध्याय करना चाहिए| स्वाध्याय बिलकुल ही रह न जाये उसके लिए प्रतिक्रमणमें ही सज्झाय को शामिल कर दी गई है|
यहॉं आपको शंका होगी कि यदि संवत्सरी अनुसार अट्ठम तप ही कर्तव्य हो, तो पृथक् पृथक् उपवास… यावत् ६ हजार स्वाध्याय करके अदा करने की जो बात है, वह किस तरह उचित कहलायेगी ?
तो शास्त्रकार परमर्षि इस तरह समाधान देते हैं कि, ‘‘कर्जदार के पास से पैसे निकालने के लिए सयाना लेनदार, कर्जदार की आर्थिक परिस्थिति को नजरके सामने रखता है| यदि कर्जदार संपन्न हो, तो एक ही बारमें-एक साथ में पूरी रकम मॉंगने पर कर्जदार उसे अदा कर देता है| यदि कर्जदार आर्थिक परिस्थिति से निर्बल हो तो एक साथ रकम अदा करने के लेनदारके आग्रहसे कर्जदार या तो आत्महत्या कर लेता है या तो लेनदार का खून कर देता है, या तो ‘‘मैं आप को पैसा नहीं दुंगा, आपसे जो हो सके वह कर लो’’ इस तरह हाथ झाड़कर खडा हो जाता है| इन तीनों परिस्थितियों में लेनदार कुछ प्राप्त नहीं कर सकता| उससे अच्छा तो यह है कि लेनदार पूरी सहानुभूति के साथ कर्जदार की शक्ति को ध्यान में रखकर हप्ते-हप्ते कर्ज लौटाने की बात करें| इससे कर्जदार को शांति की अनुभूति होती है और यथाशक्ति कर्ज अदा करने का प्रयत्न भी करता है|
पर्युषण महापर्व   कर्तव्य चौथा
ठीक उसी तरह ही गुरुभगवंत श्रावक वगैरह के पास संवत्सरी प्रायश्चित अनुसार अट्ठम तप की उगाही करते हैं| यदि वे समर्थ हैं, तो एक साथ अट्ठम करके प्रायश्चित कर लेते हैं| किन्तु यदि समर्थ नहीं हैं और गुरुभगवंत की ओरसे अट्ठम करने के लिए ही आग्रह किया जाए तो… १) देव-गुरु और धर्म के प्रति द्वेषभाव हो जाता है| २) बिना शक्ति के अट्ठम करने से ऐसी अशक्ति के शिकार बनते हैं कि उनकी सभी साधना और आराधनाएँ बंद हो जाती हैं| ३) स्वयं लघुताग्रंथि में बंदी हो जाता है ‘‘मैं अट्ठम नहीं कर सकता… अरेरे.. मैं तो बिलकुल कंगाल… मैं धर्म के लिए थोड़ा भी लायक नहीं हूँ’’ इत्यादि विचारों से अन्य धर्मकार्योमें भी चित्त नहीं लगता और ‘‘अपने से ये सब कुछ नहीं हो पायेगा, भविष्यमें हमारा जो होगा सो होगा’’ ऐसी विचारधारामें कहीं धर्म का त्याग कर ले ऐसी परिस्थिति भी उपस्थित होती है| इसलिए आराधक की शक्ति का विचार करके उस अनुसार पृथक्-पृथक् उपावासइत्यादि का सरल हप्ता बनाया जाए तो वह धर्म में और श्रद्धामें स्थिर रह सकता है और तप का प्रायश्चित भी अदा कर सकता है|
नागकेतु की तरह अट्ठम तप करके निकाचित कर्म को काटने सभी प्रयत्नशील बने| नागकेतु की बात कल्पसूत्र के प्रथम व्याख्यान में आयेगी| अठ्ठम तपसे निकाचित अंतरायभूत कर्म कटने से, मोहनीय कर्म खिसकने से, आत्मा कोमल बनने से जीव प्रवचनश्रवण, पूजा, प्रतिक्रमण, दान वगैरह सभी धर्मो के लिए लायक बनता है|


BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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