श्री कुंथुनाथ भगवान चैत्यवंदन/स्तवन/स्तुति
।। चैत्यवन्दन ।।
कुंथुनाथ कामित दीये ,गजपुरनो राय,
सिरि माता उरे अवतर्या ,शूर नरपति ताय।
काया पांत्रिस धनुषनी,लंछन जस छाग,
केवालज्ञानादिक गुणो, प्रणमो धरी राग।
सहस पंचाणु वरसनु अे,पाली उत्तम आय,
पद्मविजय कहे प्रणमीये, भावे श्री जिनराय।
सिरि माता उरे अवतर्या ,शूर नरपति ताय।
काया पांत्रिस धनुषनी,लंछन जस छाग,
केवालज्ञानादिक गुणो, प्रणमो धरी राग।
सहस पंचाणु वरसनु अे,पाली उत्तम आय,
पद्मविजय कहे प्रणमीये, भावे श्री जिनराय।
।। स्तवन ।।
कुंथुजिन! मनडुं किमही न बाजे,
हो कुंथुजिन! मनडुं किमही न बाजे;
जिम जिम जतन करीने राखुं,
तिम तिम अलगुं भाजे हो
हो कुंथुजिन! मनडुं किमही न बाजे;
जिम जिम जतन करीने राखुं,
तिम तिम अलगुं भाजे हो
…कुं.१
रजनी वासर वसति उज्जड,
गयण पायाले जाय;
साप खाय ने मुखडुं थोथुं,
एह उखाणो न्याय हो.
गयण पायाले जाय;
साप खाय ने मुखडुं थोथुं,
एह उखाणो न्याय हो.
….कुं.२
मुक्तितणा अभिलाषी तपिया,
ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे;
वैरिडुं कांइ एहवुं चिंते,
नाखे अवळे पासे हो.
मुक्तितणा अभिलाषी तपिया,
ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे;
वैरिडुं कांइ एहवुं चिंते,
नाखे अवळे पासे हो.
…कुं.३
आगम आगमधरने हाथे,
नावे किण विध आंकुं;
किहां कणे जो हठ करी अटकुं तो,
व्यालतणी परे वांकुं हो.
आगम आगमधरने हाथे,
नावे किण विध आंकुं;
किहां कणे जो हठ करी अटकुं तो,
व्यालतणी परे वांकुं हो.
…कुं.४
जो ठग कहुं तो ठगतो न देखुं,
साहुकार पण नांहि;
सर्व मांहे ने सहुथी अलगुं,
ए अचरिज मनमांहि हो.
जो ठग कहुं तो ठगतो न देखुं,
साहुकार पण नांहि;
सर्व मांहे ने सहुथी अलगुं,
ए अचरिज मनमांहि हो.
…कुं.५
जे जे कहुं ते कान न धारे,
आप मते रहे कालो;
सुर-नर-पंडितजन समजावे,
समजे न माहरो सालो हो.
जे जे कहुं ते कान न धारे,
आप मते रहे कालो;
सुर-नर-पंडितजन समजावे,
समजे न माहरो सालो हो.
…कुं.६
में जाण्युं ए लिंग नपुंसक,
सकळ मरदने ठेले;
बीजी वाते समरथ छे नर,
एहने कोइ न झेले हो.
में जाण्युं ए लिंग नपुंसक,
सकळ मरदने ठेले;
बीजी वाते समरथ छे नर,
एहने कोइ न झेले हो.
…कुं.७
मन साध्युं तेणे सघळुं साध्युं,
एह वात नहीं खोटी;
इम कहे साध्युं ते नवि मानुं,
एकही वात छे मोटी हो.
मन साध्युं तेणे सघळुं साध्युं,
एह वात नहीं खोटी;
इम कहे साध्युं ते नवि मानुं,
एकही वात छे मोटी हो.
…कुं.८
मनडुं दुराराध्य तें वश आण्युं,
ते आगमथी मति आणुं;
‘आनंदघन’ प्रभु ! माहरुं आणो,
तो साचुं करी जाणुं हो.
मनडुं दुराराध्य तें वश आण्युं,
ते आगमथी मति आणुं;
‘आनंदघन’ प्रभु ! माहरुं आणो,
तो साचुं करी जाणुं हो.
…कुं.९
अर्थ
अर्थ
गाथा १:-
हे कुंथुनाथ परमात्मा! मेरा मन किसी भी प्रकार अपने बस में नहीं रहता है| मैं क्यां करुं? मैं उसे अपने वश में रखने के लिए जितना परिश्रम करता हूं, उतना ही वह दूर भागता है|
हे कुंथुनाथ परमात्मा! मेरा मन किसी भी प्रकार अपने बस में नहीं रहता है| मैं क्यां करुं? मैं उसे अपने वश में रखने के लिए जितना परिश्रम करता हूं, उतना ही वह दूर भागता है|
गाथा २:-
यह मन दिन रात, मस्तीमें एवं उजडे हुए प्रदेशो में, आकाश एवं पाताल में घूमता है, भटकता है, फिरी भी हाथ में कुछ भी नहीं आता है| इस कहावत के न्याय अनुसार हर स्थान नित्य भटकता रहता है|
यह मन दिन रात, मस्तीमें एवं उजडे हुए प्रदेशो में, आकाश एवं पाताल में घूमता है, भटकता है, फिरी भी हाथ में कुछ भी नहीं आता है| इस कहावत के न्याय अनुसार हर स्थान नित्य भटकता रहता है|
गाथा ३:-
हुं कुंथुंनाथ प्रभु, यह मन मित्र की तरह वर्तन करने के बजाय कट्टर शत्रुकी तरह वर्तन करके कईबार तो भल-भले तपस्वीओं को, ज्ञानीओ को एवं ध्यानीओं को पटक देता है, एवं उनकी मुक्ती की अभिलाषा पर पानी डालता है|
हुं कुंथुंनाथ प्रभु, यह मन मित्र की तरह वर्तन करने के बजाय कट्टर शत्रुकी तरह वर्तन करके कईबार तो भल-भले तपस्वीओं को, ज्ञानीओ को एवं ध्यानीओं को पटक देता है, एवं उनकी मुक्ती की अभिलाषा पर पानी डालता है|
गाथा ४:-
शास्रो के महान ज्ञानीओं को भी आगम की सहायता होते हुए भी मन को अंकुश में रखना आता नहीं है, और यदि कभी महाप्रयासपूर्वक उसे अटका भी दें, ते वहॉं से भी किसी भी प्रकार पकड में नहीं आकर साप की तरक मोडमरोड कर छूट जाता है परंतु हाथ में आता नहीं है|
शास्रो के महान ज्ञानीओं को भी आगम की सहायता होते हुए भी मन को अंकुश में रखना आता नहीं है, और यदि कभी महाप्रयासपूर्वक उसे अटका भी दें, ते वहॉं से भी किसी भी प्रकार पकड में नहीं आकर साप की तरक मोडमरोड कर छूट जाता है परंतु हाथ में आता नहीं है|
गाथा ५:-
हे प्रभु यदि इस मन को ठग कहे तो ठग की तरह उसका वर्तन नहीं है| मन ठग की भांती किसी को खुलेआम ठगता हुआ भी दिखता नहीं है, यदि उसे शाहुकार कहें तो उसका वर्तन साहुकार की तरह भी नहीं है, क्योंकि उस पर विश्वास नहीं किया जाता है, जब कि साहुकार पर तो सब बिस्वास करते हैं, इंद्रियो के माध्यम से मन इतनी चपलतापूर्वक कार्य करता है कि दोषारोप मन पर नहीं इंद्रियो पर किया जाता है| मानवजीवन को परमोच्चता एवं परमाधमता की अनुभति कराने के उपरांत भी स्वयं जाने कुछ भी नही करता हो ऐसे दिखावा करके निलऱ्ेप रहता है| मनकी यद महाशठता मुझे आश्चर्यचकित कर देती है|
हे प्रभु यदि इस मन को ठग कहे तो ठग की तरह उसका वर्तन नहीं है| मन ठग की भांती किसी को खुलेआम ठगता हुआ भी दिखता नहीं है, यदि उसे शाहुकार कहें तो उसका वर्तन साहुकार की तरह भी नहीं है, क्योंकि उस पर विश्वास नहीं किया जाता है, जब कि साहुकार पर तो सब बिस्वास करते हैं, इंद्रियो के माध्यम से मन इतनी चपलतापूर्वक कार्य करता है कि दोषारोप मन पर नहीं इंद्रियो पर किया जाता है| मानवजीवन को परमोच्चता एवं परमाधमता की अनुभति कराने के उपरांत भी स्वयं जाने कुछ भी नही करता हो ऐसे दिखावा करके निलऱ्ेप रहता है| मनकी यद महाशठता मुझे आश्चर्यचकित कर देती है|
गाथा ६:-
यह मन ऐसा निरंकुश एवं आत्मकेंद्रित है कि मेरी किसी भी बात को सुना अनसुना कर देता है| क्या बात करूं इस मन की? देव, मानव एवं विद्वान पुरुषो के उपदेश को उसे तनिक भी परवाह नहीं है|
यह मन ऐसा निरंकुश एवं आत्मकेंद्रित है कि मेरी किसी भी बात को सुना अनसुना कर देता है| क्या बात करूं इस मन की? देव, मानव एवं विद्वान पुरुषो के उपदेश को उसे तनिक भी परवाह नहीं है|
गाथा ७:-
श्री आनंदधनजी महाराज कहते है, हे प्रभु! शब्दकोष में लिखा गया है कि मन शब्द नंपुसकलिंगी है| इसलिए में मानता था कु पुरुषत्वविहिन मन में क्या शक्ति होगी? परंतु मन तो भल भले पुरुषसिंहो का पछाड देता है, जो कि पुरुष अन्य अनेक बाबतो में सामर्थ्यशाली है, परंतु वह मन को नहीं जीत सकता है|
श्री आनंदधनजी महाराज कहते है, हे प्रभु! शब्दकोष में लिखा गया है कि मन शब्द नंपुसकलिंगी है| इसलिए में मानता था कु पुरुषत्वविहिन मन में क्या शक्ति होगी? परंतु मन तो भल भले पुरुषसिंहो का पछाड देता है, जो कि पुरुष अन्य अनेक बाबतो में सामर्थ्यशाली है, परंतु वह मन को नहीं जीत सकता है|
गाथा ८:-
जगत में कहा जाता है की जिसने मन को वश किया उसने सब कुछ वश में किया यह बात मिथ्या नहीं है, परंतु जब कोई अचानक कहता है मैंने अपने मन को वश किया है, तो मैं उस बात को मानता ही नहीं, क्योंकि मन को वश करना जटिल से जटिल कार्य है|
जगत में कहा जाता है की जिसने मन को वश किया उसने सब कुछ वश में किया यह बात मिथ्या नहीं है, परंतु जब कोई अचानक कहता है मैंने अपने मन को वश किया है, तो मैं उस बात को मानता ही नहीं, क्योंकि मन को वश करना जटिल से जटिल कार्य है|
गाथा ९:-
हे कुंथुनाथ जिनेश्वर! जिसे महाप्रयासपूर्वक वश किया जा सकता है, ऐसे मन को आपने वश किया है, यह सत्य मुझे आगम से ज्ञात हुआ है, और इसे मैंने अपनी बुद्घी में आर दिया है, परंतु हे आनंदधनजी प्रभो! मेरे मन मेरे वशमें लाने के कार्य में आप मेरे सहायक बने, तथा मेरा मन मेरे वश में कर दीजिये, ताकि मैं मन को कोई वश कर सकता है, यह बात सच है यह प्रत्यक्षतापूर्वक कह सकूं ।
हे कुंथुनाथ जिनेश्वर! जिसे महाप्रयासपूर्वक वश किया जा सकता है, ऐसे मन को आपने वश किया है, यह सत्य मुझे आगम से ज्ञात हुआ है, और इसे मैंने अपनी बुद्घी में आर दिया है, परंतु हे आनंदधनजी प्रभो! मेरे मन मेरे वशमें लाने के कार्य में आप मेरे सहायक बने, तथा मेरा मन मेरे वश में कर दीजिये, ताकि मैं मन को कोई वश कर सकता है, यह बात सच है यह प्रत्यक्षतापूर्वक कह सकूं ।
।।स्तुति।।
कुंथु जिननाथ, जे करे छे सनाथ,
तारे भव पाठ,जे ग्रही भव हाथ ।
अेहनो तजे साथ ,बावल दीअे बाथ,
तरे सुरनर साथ, जे सुणे एक गाथ ।
तारे भव पाठ,जे ग्रही भव हाथ ।
अेहनो तजे साथ ,बावल दीअे बाथ,
तरे सुरनर साथ, जे सुणे एक गाथ ।
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