ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

श्री नाकोडा पार्श्वनाथ – श्री नाकोडा तीर्थ राजस्थान



श्री नाकोडा पार्श्वनाथ
कहा जाता है की पूर्व तीसरी शताब्दी में श्री वीरसेन व नाकोर्सें भागयवान बंधुओ ने अपने नाम पर बीस मील के अन्तर में वीरमपुर व नाकोरनगर ग़ाव बसाए थे | श्री वीरसेन ने वीरमपुर में श्री चन्द्रप्रभ भगवान का व नाकोर्नगर में श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का मंदिर निर्मित करवाकर परमपूजय आचार्य श्री स्थूलिभ्द्रस्वामीजी के सुहास्ते प्रतिष्ठा संपन्न करवाई थी |
वि. सं. ९०९ में वीरमपुर शहर , सुसंपन्न श्रावको के लगभग २७०० घरो की आबादी से जगमगा रहा था |उस समय शेस्ती श्री हराख्चंदजी ने प्राचीन मंदिर का जिनोर्र्द्वर करवाकर श्री महावीर भगवान के प्रतिमा की प्रतीष्टा करवाई थी |एक और मानयतानुसार यह प्रतिमा, भागयवान्सुश्रावक श्री जिनदत को श्री अधिष्टायक देव द्वारा स्वप्न में दिए संकेत के आधार पर नाकोर्नगर के निकट सीन्दरी ग़ाव के पास एक तालाब से प्रकट हुई थी |
वि.सं. ९०९ में वीरमपुर सुसंपन्न श्रावको के लगभग २७०० घरो की आबादी से जगमगा रहा था| उस समय शेष्टि श्री हरखचंदजी ने प्राचीन मंदिर का जिणोरद्वार करवाकर श्री महावीर भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी, ऐसा उल्लेख है| वि.सं. १२२३ में पुन: जिणोरद्वार करवाने का उल्लेख मिलता है| वि.सं. १२८० में आलामशाह ने इस नगर पर भी चढ़ाई की| तब इस मंदिर को भारी श्रति पहुंची| वि. की लगभग १५वि शताब्दी के आरम्भ में इस मंदिर के नवनिर्माण का कार्य पुन: प्रारंभ किया गया| कालिद्रह में स्थित नाकोरनगर की १२० प्राचीन प्रतिमाएं यहाँ लाकर उसमे से श्री पार्श्वनाथ भगवान की इस सुन्दर चमत्कारी प्रतिमा को मुलनायक के रूप में इस नवनिर्मित मंदिर में वि.सं. १४२९ में पुन: प्रतिष्टित की गयी, जो अभी विधमान है| मूल प्रतिमा नाकोरनगर की रहने के कारण इस तीर्थ का नाम नाकोडा प्रचलित हुआ|
सं. १५६४ में ओसवाल वन्सहज गोत्रीय सेठ जुठिल के परपौत्र सेठ सदरंग द्वारा जिणोरदवा होने का उल्लेख है| वि.सं. १६३८ में इस मंदिर के पुनरुध्वार होने का उल्लेख है| लगभग सत्रहवी शताब्दी तक यहाँ की जहोजलाली अच्छी रही| इसके बाद शेष्टि मालाशाह संकलेचा के भ्राता सही नानकजी ने यहाँ के राजकुमार का अप्रिय व्यवहार देखकर गाँव छोड़ने का निर्णय लिया| अत: जैसैलमेर का संघ निकालकर सारे जैन कुतुम्बिजनो के साथ गाँव छोडकर चले गए|
उसके पश्चात इस गाँव की जनसंख्या दिन प्रति दिन घटने लगी| आज जैनियों का कोई घर नहीं है, लेकिन श्रीसंघ द्वारा हो रही तीर्थ की व्यवस्था उल्लेखनीय है| सत्रहवी सदी के बाद सं. १८८६५ में जिणोरद्वार होने का उल्लेख है| इसके पश्चात श्री समय-समय पर आवश्यक जिणोरद्वार हुए|
परमपूज्य श्री स्थूलीभद्रस्वामीजी द्वारा प्रतिष्टित इस तीर्थ की महान विशेषता है| पार्श्वप्रभु की प्राचीन प्रतिमा सुन्दर व अति ही चमत्कारी है| यहाँ मंदिर के अतिरिक्त कोई घर नहीं है| परन्तु यात्रियों का निरंतर आवगमन रहने के कारण यह स्थल नगरी सा प्रतीत होता है| प्रतिवर्ष श्री पार्श्वप्रभु के जन्मकल्याणक दिवस पौष कृष्ण दशमी को विरत मेले का आयोजन होता है|


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