जैन संस्कृति में रक्षा बंधन
भगवान विष्णु के वामन अवतार जैसी कथा जैन पौराणिक ग्रंथों में भी मिलती है। उसके अनुसार, उज्जयिनी में श्रीधर्म नाम के राजा के चार मंत्री थे - बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद। इन मंत्रियों ने शास्त्रार्थ में पराजित होने के कारण श्रुतसागर मुनिराज पर तलवार से प्रहार का प्रयास किया तो राजा ने उन्हें देश से निकाल दिया। चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुर के राजा पद्म की शरण में आए। कुछ समय बाद मुनि अकंपनाचार्य 700 मुनि शिष्यों के संग हस्तिनापुर पहुंचे। बलि को अपने अपमान का बदला लेने का विचार आया। उसने राजा से वरदान के रूप में सात दिन के लिए राज्य मांग लिया। राज्य पाते ही बलि ने मुनि तथा आचार्य के साधना-स्थल के चारों तरफ आग लगवा दी। धुएं और ताप से ध्यानस्थ मुनियों को अपार कष्ट होने लगा, पर मुनियों ने अपना धैर्य नहीं तोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक यह कष्ट दूर नहीं होगा, तब तक वे अन्न-जल का त्याग रखेंगे। वह दिन श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था। मुनियों पर संकट जानकर मुनिराज विष्णु कुमार ने वामन का वेश धारण किया और बलि के यज्ञ में भिक्षा मांगने पहुंच गए। उन्होंने बलि से तीन पग धरती मांगी। बलि ने दान की हामी भर दी, तो विष्णु कुमार ने योग बल से शरीर को बहुत अधिक बढ़ा लिया। उन्होंने अपना एक पग सुमेरु पर्वत पर, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और अगला पग स्थान न होने से आकाश में डोलने लगा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। बलि के क्षमायाचना करने पर उन्होंने मुनिराज अपने स्वरूप में आए। इस तरह सात सौ मुनियों की रक्षा हुई। सभी ने परस्पर रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्मृति रक्षा-बंधन त्योहार के रूप में आज तक चल रही है।
BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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