जैन दर्शन नुसार चार निकाय के देव – देवियाँ होते है । … भवनवासी, व्यंतर , ज्योतिष और कल्पवासी ।
देव – देवियाँ भवनों में , स्वर्गो में रहते है ।
देव – देवियाँ उपपाद शैया पर उत्पन्न होते है उनके गर्भ जन्म नहीं होता ।
देव – देवियों के विवाह नहीं होता … विवाह का संस्कार मात्र मनुष्य गति में है …
विवाह मर्यादा मनुष्यों को कम से कम एक-देश संयम धारण करने का पात्र बनती है ।
देव गति में विवाह परंपरा नहीं होती सो देव – देवियाँ बिना विवाह के प्रविचार करते है ।… (Like Live-In Relationship)
देवियाँ मात्र 2nd स्वर्ग तक उत्पन्न होती है … उपर के स्वर्गों से आकर देव , अपनी – अपनी देवी को ले जाते है ।
देवियों की गर्भ धारणा नहीं होती सो देव – देवियों की कोई सन्तान नहीं होती ।
देवियों कि गर्भ धारणा या सन्तान नहीं होती सो किसी देवी को माता कहना उचित नहीं ।
देवियाँ ना तो मंगल – सूत्र पहनती है , ना ही उनके कोई सुहान की निशानी होति है कारण देव – गति में विवाह परंपरा नहीं ।
अपने देव की आयु का क्षय होने पर कुछ देवियाँ दुसरे देवों को स्वीकार कर लेती है … शील पालन नहीं कर पाती ।
देव – देवियों को उपवास , एकाशन आदि व्रत नहीं करते आते क्योंकि उनके कंठ से अमृत झर जाता है … अपने आप … सो देवों के अंश मात्र संयम भी नहीं हो सकता ।
देव – गति में 4th गुणस्थान के ऊपर गुणस्थान प्राप्त करना संभव नहीं ।
तीर्थंकर भगवान की पालखी उठाने का मान प्रथम मनुष्यों को मिलाता है देवों के नहीं कारण देव संयम धारण – पालन नहीं कर सकते … एक- देश संयम भी ।
देव मनुष्य बनने के लिए तरसते है क्योंकि मात्र मनुष्य पर्याय में संयम , दीक्षा , मोक्ष होता है , देवगति में नहीं ।
देव – देवियाँ मात्र सम्यग – दृष्टी जीव के मदत को आते है , जैसे सीता , द्रोपती आदि … मिथ्या दृष्टी जीव के मदत को नहीं ।
पुरुष द्वारा किसी देवी की मूर्ति के वस्त्र बदले जाना यह उस देवी के साथ अप्रत्यक्ष व्यभिचार होता है … जिनालयो में अन्य श्रावक – श्राविका ओं के सामने यह व्यभिचार … उस देवी को पीड़ा देने वाला होता है … और अशुभ कर्मों के बंध का कारण होता है ।
देव – देवियाँ दिव्य वस्त्र पहनते है … जो मैले नहीं होते, पुराने नहीं होते या कभी फटते भी नहीं … मनुष्यों द्वारा देव – देवियों को वस्त्र भेट करना व्यर्थ है … वे उन्हें ग्रहण ही नहीं करते ।
देव – देवियों के आभुषण भी दिव्य होते सो उन्हें साधरण आभूषण आदि भेट देना भी व्यर्थ ही होता है l
मनुष्य देवों से श्रेष्ठ होते है सो मनुष्यों का देव – देवियों का पूजन आदि करना उचित या किसी भी फल को देने वाला नहीं मात्र अशुभ कर्मों का बंध करने वाला ही होता है l
यक्ष – यक्षिणी व्यंतर जाती के देव – देवी होते है l
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देव – देवियाँ भवनों में , स्वर्गो में रहते है ।
देव – देवियाँ उपपाद शैया पर उत्पन्न होते है उनके गर्भ जन्म नहीं होता ।
देव – देवियों के विवाह नहीं होता … विवाह का संस्कार मात्र मनुष्य गति में है …
विवाह मर्यादा मनुष्यों को कम से कम एक-देश संयम धारण करने का पात्र बनती है ।
देव गति में विवाह परंपरा नहीं होती सो देव – देवियाँ बिना विवाह के प्रविचार करते है ।… (Like Live-In Relationship)
देवियाँ मात्र 2nd स्वर्ग तक उत्पन्न होती है … उपर के स्वर्गों से आकर देव , अपनी – अपनी देवी को ले जाते है ।
देवियों की गर्भ धारणा नहीं होती सो देव – देवियों की कोई सन्तान नहीं होती ।
देवियों कि गर्भ धारणा या सन्तान नहीं होती सो किसी देवी को माता कहना उचित नहीं ।
देवियाँ ना तो मंगल – सूत्र पहनती है , ना ही उनके कोई सुहान की निशानी होति है कारण देव – गति में विवाह परंपरा नहीं ।
अपने देव की आयु का क्षय होने पर कुछ देवियाँ दुसरे देवों को स्वीकार कर लेती है … शील पालन नहीं कर पाती ।
देव – देवियों को उपवास , एकाशन आदि व्रत नहीं करते आते क्योंकि उनके कंठ से अमृत झर जाता है … अपने आप … सो देवों के अंश मात्र संयम भी नहीं हो सकता ।
देव – गति में 4th गुणस्थान के ऊपर गुणस्थान प्राप्त करना संभव नहीं ।
तीर्थंकर भगवान की पालखी उठाने का मान प्रथम मनुष्यों को मिलाता है देवों के नहीं कारण देव संयम धारण – पालन नहीं कर सकते … एक- देश संयम भी ।
देव मनुष्य बनने के लिए तरसते है क्योंकि मात्र मनुष्य पर्याय में संयम , दीक्षा , मोक्ष होता है , देवगति में नहीं ।
देव – देवियाँ मात्र सम्यग – दृष्टी जीव के मदत को आते है , जैसे सीता , द्रोपती आदि … मिथ्या दृष्टी जीव के मदत को नहीं ।
पुरुष द्वारा किसी देवी की मूर्ति के वस्त्र बदले जाना यह उस देवी के साथ अप्रत्यक्ष व्यभिचार होता है … जिनालयो में अन्य श्रावक – श्राविका ओं के सामने यह व्यभिचार … उस देवी को पीड़ा देने वाला होता है … और अशुभ कर्मों के बंध का कारण होता है ।
देव – देवियाँ दिव्य वस्त्र पहनते है … जो मैले नहीं होते, पुराने नहीं होते या कभी फटते भी नहीं … मनुष्यों द्वारा देव – देवियों को वस्त्र भेट करना व्यर्थ है … वे उन्हें ग्रहण ही नहीं करते ।
देव – देवियों के आभुषण भी दिव्य होते सो उन्हें साधरण आभूषण आदि भेट देना भी व्यर्थ ही होता है l
मनुष्य देवों से श्रेष्ठ होते है सो मनुष्यों का देव – देवियों का पूजन आदि करना उचित या किसी भी फल को देने वाला नहीं मात्र अशुभ कर्मों का बंध करने वाला ही होता है l
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