ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

दादा का बच्चा हूँ.. में एक भक्त सच्चा हूँ ।। बोलिये श्री नाकोड़ा भैरवनाथ की जय हो ।।

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श्री नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ का इतिहास

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लो आपका इंतजार हुआ खत्म .. नाकोड़ा तीर्थ में विराजित श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु और श्री नाकोड़ा भैरवनाथ के लाइव दर्शन करिये 🙏

विपुल जी कोठारी का आभार दर्शन कराने के लिए 🙏

जुड़िये 👉 Https://www.fb.com/nakodaji
किदवंतियों के आधार पर श्री जैन श्वेताम्बर नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ की प्राचीनतम का उल्लेख महाभारत काल यानि भगवान श्री नेमीनाथ जी के समयकाल से जुड़ता है किन्तु आधारभूत ऐतिहासिक प्रमाण से इसकी प्राचीनता वि. सं. २००-३०० वर्ष पूर्व यानि २२००-२३०० वर्ष पूर्व की मानी जा सकती है । अतः श्री नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ राजस्थान के उन प्राचीन जैन तीर्थो में से एक है, जो २००० वर्ष से भी अधिक समय से इस क्षेत्र की खेड़पटन एवं महेवानगर की ऐतिहासिक सम्रद्ध, संस्कृतिक धरोहर का श्रेष्ठ प्रतीक है । महेवानगर के पूर्व में विरामपुर नगर के नाम से प्रसिद्ध था । विरमसेन ने विरमपुर तथा नाकोरसेन ने नाकोडा नगर बसाया था । आज भी बालोतरा- सीणधरी हाईवे पर नाकोडा ग्राम लूनी नदी के तट पर बसा हुआ है, जिसके पास से ही इस तीर्थ के मुलनायक भगवन की इस प्रतिमा की पुनः प्रति तीर्थ के संस्थापक आचार्य श्री किर्तिरत्नसुरिजी द्वारा वि. स. १०९० व १२०५ का उल्लेख है । ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है की संवत १५०० के आसपास विरमपुर नगर में ५० हज़ार की आबादी थी और ओसवाल जैन समाज के यंहा पर २७०० परिवार रहते थे । व्यापार एवं व्यवहार की द्रष्टि से विरमपुर नगर वर्तमान में नाकोडा तीर्थ इस क्षेत्र का प्रमुख केंद्र रहा था ।
तीर्थ ने अनेक बार उत्थान एवं पतन को आत्मसात किया है । विधमियों की विध्वनंस्नात्मक- वृत्ति में वि.सं. १५०० के पूर्व इस क्षेत्र के कई स्थानों को नष्ट किया है, जिसका दुष्प्रभाव यंहा पर भी हुआ । लेकिन सवंत १५०२ की प्रति के पश्चात पुन्हः यंहा प्रगति का प्रारम्भ हुआ और वर्तमान में तीनो मंदिरों का परिवर्तित व परिवर्धित रूप इसी काल से सम्बंधित है । इसके पश्चात क्षत्रिय राजाके कुंवर का यंहा के महाजन के प्रमुख परिवार के साथ हुये अपमानजनक व्यवहार से पीड़ित होकर समस्त जैन समाज ने इस नगर का त्याग कर दिया और फिर से इसकी कीर्ति में कमी आने लगी और धीरे धीरे ये तीर्थ वापस सुनसान हो गया । पहाड़ो और जंगलों के बीच आसातना होती रही । संवत १९५९ – ६० में साध्वी प्रवर्तिनी श्री सुन्दरश्रीजी म.सा. ने इस तीर्थ के पुन्रोधार का काम प्रारंभ कराया और गुरु भ्राता आचार्य श्री हिमाचलसूरीजी भी उनके साथ जुड़ गये । इनके अथक प्रयासों से आज ये तीर्थ विकास के पथ पर निरंतर आगे बढता विश्व भर में ख्याति प्राप्त क्र चूका है । मुलनायक श्री नाकोडा पार्श्वनाथजी के मुख्या मंदिर के अलावा प्रथम तीर्थकर परमात्मा श्री आदिनाथ प्रभु एवं तीसरा मंदिर सोलवें तीर्थकर परमात्मा श्री शांतिनाथ प्रभु का है । इसके अतिरिक्त अनेक देवल – देवलियें ददावाडियों एवं गुरूमंदिर है जो मूर्तिपूजक परंपरा के सभी गछो को एक संगठित रूप से संयोजे हुए है । इसी स्थान से जन्मे आचार्य श्री संजय मुनि महाराज सा का प्रताप भी सब जगह फैला है ।
तीर्थ के अधिनायक देव श्री भैरव देव की मूल मंदिर में अत्यंत चमत्कारी प्रतिमा है, जिसके प्रभाव से देश के कोने कोने से लाखों यात्री प्रतिवर्ष यंहा दर्शनार्थ आकर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करते है । श्री भैरव देव के नाम व प्रभाव से देशभर में उनके नाम के अनेक धार्मिक, सामाजिक और व्यावसायिक प्रतिन कार्यरत है । वेसे तीनो मंदिर वास्तुकला के आद्भुत नमूने है । चौमुखजी कांच का मंदिर, महावीर स्मृति भवन, शांतिनाथ जी के मंदिर में तीर्थकरों के पूर्व भवों के पट्ट भी अत्यंत कलात्मक व दर्शनीय है ।
निर्माणः संवत के झरोखे से नाकोडा पार्श्वनाथ

1-    संवत १५१२ में लाछाबाई ने भगवन आदिनाथ मंदिर का निर्माण करवाया2-    संवत १५१९ में सेठ मलाशाह द्वारा भगवान शांतिनाथ मंदिर का निर्माण कराया3-    संवत १६०४ में भगवान शांतिनाथ मंदिर में दूसरा सभा मंडल बना4-    संवत १६१४ में नाभि मंडप बनाया गया5-    संवत १६३२ में आदिनाथ मंदिर में प्रवेश द्वार निर्मित हुआ6-    संवत १६३४ में आदिनाथ मंदिर में चित्रों और पुतलियों सहित नया मंडप बनाया गया7-    संवत १६३८ में इसे मंदिर की नीव से जीर्णोधार करवाया गया8-    संवत १६६६-६७ में भुमिग्रह बनाया गया । १९६७ में ही आदिनाथ मंदिर में पुनह श्रृंगार चौकियों का निर्माण करवाया गया9-    संवत १६७८ में श्री महावीर चैत्य की चौकी का निर्माण करवाया10-  संवत १६८१ में तीन झरोखों के साथ श्रृंगार चौकी बनवाई गई11-  संवत १६८२ में नंदी मंडप का निर्माण हुआ12-  संवत १९१० मुलनायक शांतिनाथ भगवन की दूसरी नवीन प्रतिमा प्रतिति13-  संवत १९१६ में चार देवलियां बनाई गई14-  संवत २०४६ में श्री सिध्चकजी का मंदिर बनाया गया15-  संवत २०५० में मंदिर के अग्रभाग में संगमरमर का कार्य और नवतोरण व स्तंभों का कार्य निरंतर जारी
तीर्थ का अर्थ और महत्व
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वह भूमि कभी बहुत सोभाग्यशाली हो उठती है, जो तीर्थ स्थल बन जाती है । जन्हा जाने पर एक पवित्र भाव आने वाले के ह्रदय में सहज पैदा हो जाता है । श्रधा और आस्था से मन भर जाता हो, ऐसी जगह केवल भूमि हे नहीं होती, व्यक्ति, पेड़-पोधे, पशु-पक्षी, नदी, नदी-तट, पहाड़, झरना, मूर्ति, मंदिर, तालाब, कुआ, कुंद आदि भी हो सकते है । घर में माता पिता को तीर्थ कहा गया है । भारत में आदिकाल से तीर्थों की परंपरा रही है । तीर्थ एक पवित्र भाव है । सभी धर्मसरणियों में तीर्थ को स्थान दिया गया है । चाहे सनातन धर्म हो, जैन-बोद्ध धर्म हो, ईसाई धर्म हो अथवा इस्लाम धर्म हो, सभी में तीर्थों की स्थापना की गई है । तीर्थ, धर्म से कम, आस्था से अधिक संचालित होता है, इसलिए तीर्थों के प्रति सभी धर्मों के लोग श्रधा भाव से जुड़ते चले आ रहे है । तीर्थ संस्कृत भाषा का शब्द है । आचार्य हेमचंद ने इसकी व्युत्पति करते हुए लिखा है – “तिर्यते संसार समुद्रोनेनेति” तीर्थ प्रवचनाधारश्तुर्विधः संघः । अर्थार्थ जिसके द्वारा संसार समुद्र को तैर क्र पार किया जाय, वह तीर्थ है । जैनियों में तीर्थकर होने की प्रथा है । कोई भी जैन साधक, साध्वी, श्रावक और श्राविका अपनी जितेन्द्रियता के आधार पर प्रथम प्रवचन में जिस स्थान और क्षण में अपना शासन (मतलब) लोगों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में समर्थ हो जाते है, वही तीर्थ कहा जाता है और ऐसे निर्माता को ‘तीर्थकर’ नाम से अभिहीत किया जाता है । जैनियों चौबीस तीर्थकर यह पद प्राप्त कर चुके है ।
सनातन धर्म में स्थलों को तीर्थ मानने की परंपरा आधिक है । भारत में कोई भी नदी और नदी तट ऐसा ऐसा नहीं होगा, वंहा तीर्थ न स्थापित होगा । तीर्थ में स्नान और देव दर्शन का भी महत्व है । जल में स्नान को भाव बाधा से मुक्ति का साधना माना है । “तीर्थ शब्द का व्यावहारिक अर्थ है- माध्यम, साधन । तदनेंन तीर्थेन घटेत । ” अर्थात मार्ग, घाट आदि जिसके माध्यम से पार किया जाये । इसके अनुसार ‘तीर्थ’ एक घाट है, एक मार्ग है, एक माध्यम है, जिसके द्वारा भव-सरिता को जीव पार कर सकता है । इसी मार्ग को दिखाने वाला तीर्थकर है । तीर्थ सदैव अध्यात्मिक मार्ग दिखाने का कार्य करता है । व्यक्ति तीर्थ में जाकर एक पवित्र शुद्धता बोध कर सके, इसलिए तीर्थ शब्द पवित्र स्थान और तीर्थ यात्रा का उपयुक्त स्थान मंदिर आदि का बोधक होता है ।
तीर्थ शब्द का अर्थ है- तरति पापादिकं यस्मात इति तीर्थम अर्थात जिससे व्यक्ति पाप आदि का दुष्कर्मो से तर जाय- वह तीर्थ है । महाभारत में कहा है- जिस प्रकार मानव शरीर के सिर, दाहिना हाथ आदि अंग अन्य अंगो से अपेक्षाकृत पवित्र मानें जाते है, उसी प्रकार प्रथवी के कुछ स्थल पवित्र माने जाते है । पवित्रता ही तीर्थ का अवचछेक तत्त्व है, लक्षण है । तीर्थ की पवित्रता तीन कारणों से मान्य होती है – जेसे स्थान की विलक्षणता या प्राकृतिक रमणीयता के कारण, जल के किसी विशेष गुण या प्रभाव के कारण अथवा किसी तेजस्वी तपःपुत ऋषि मुनि के वंहा रहने के कारण । धर्म शास्त्र में कहा गया है, वह स्थान या स्थल या जलयुक्त या जलयुक्त स्थान जो अपने विलखण स्वरुप के कारण पुण्यार्जन की भावना को जाग्रत कर सके। इस प्रथ्वी पर स्थित भौम तीर्थों के सेवन का यथार्थ लाभ तभी मिल सकता है, जब इनसे चित शुद्ध हो मन का मैल मिटे, इसलिए आचार्यों ने सत्य, क्षमा, इन्द्रिय संयम, अंहिसा, विनम्रता, सभी के प्रति प्री व्यवहार, आदि मानस तीर्थों का विधान भी किया गया है । मानस तीर्थ और भौम तीर्थ दोनों का समन्वय जरुरी है । भारत में सैकड़ो ऐसे तीर्थ है । मुसलमानों को पवित्र तीर्थ स्थल मकका मदीना है । बोधों के चार तीर्थ स्थल है – लुम्बिनी, बोध गया, सारनाथ एवं कुशीनरा । इसाइयों का जेरुसलेम सर्वोच्च पवित्र स्थल है । जैन परंपरा में भी तीर्थ के दो र्रोप माने गए है – जंगमतीर्थ और स्थावर तीर्थ ।
स्थावर तीर्थ के भी दो रूप माने गए है – एक सिद्ध तीर्थ (कल्याण भूमि) और – दूसरा चमत्कारी या अतिशय तीर्थ । सिद्ध तीर्थ में वे स्थान माने जाते है, जहा किसी न किसी महापुरुष के जन्मादिक कल्याणक हुए हों, वे सिद्ध, बुद्ध ओर मुक्त हुए हो अथवा उन्होंने विचरण किया हो । उन स्थानों पे उनकी स्मृति स्वरुप वहॉ मंदिर, स्तूप, मूर्तियाँ स्थापित की गई हों । ऐसे स्थानों पे सिद्वाचल, गिरनार, पावापुरी, राजगृह, चम्पापुरी और सम्मेत शिखर आदि मैं जाते है । चमत्कारी तीर्थ वे क्षेत्र माने जाते है, जन्हा कोई भी महापुरुष सिद्ध तो नहीं हुये है, किन्तु उस क्षेत्र में स्थापित उन महापुरषों / तीर्थकरों की मूर्तियों अतिशय चमत्कार पूर्ण होती है, और उस क्षेत्र के मंदिर बड़े विशाल, भव्य एवं कलापूर्ण होते है । ऐसे स्थानों में आबू, रणकपुर, जैसलमेर, नाकोडा, फलौदी, तारंगा, शंखेश्वर आदि माने जाते है ।
तीर्थों का महत्व
तीर्थ स्थानों का महत्व त्रिविध रूप में विभाजित किया जाता है –
1- ऐतिहासिक
2- कला और
3- चमत्कार
1- ऐतिहासिक – इन तीर्थ सीनों का लोक मानस पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है, उससे उन स्थानों की प्रसिधी बढती जाती है । एतिहासिक द्रष्ठी से ज्यों ज्यों वह व्यक्ति या स्थान पुराना होता जाता है त्यों त्यों प्राचीनतम के प्रति विशेष आग्रहशील होने के कारण उसका महत्व भी प्रतीति कर के अपने को गौरवशाली, धन्य, क्रत्पुणय मानते है । नाम की भूख मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है । इस नाम्लिप्सा से विरल व्यक्ति ही ऊपर उठ पाते है । इसलिए वहां के कार्यकलापों को स्थायित्व देने और कीर्ति को चिरजीवित करने के लिए मूर्तियों, मंदिरों और चरण पादुकाओं पर लेख और प्रशस्तियाँ खुदवाई जाती है । उसमे उनके वंश, परिवार और गुरुजनों के नामों के साथ उनके विशी कार्यों का भी उल्लेख किया जाता है । इस द्रष्टि से आगे चलकर वे लेख और प्रशस्तियाँ इतिहास के महत्वपूर्ण साधन बन जाते है । उन तीर्थ स्थानों पे जो कोई विशी कार्य किया जाता है उसका गौरव उनके वंशजों को मिलता है । अतः उनके वंशज तथा अन्य लोग धार्मिक भावना में या अनुकरणप्रिय होने के कारण देखा – देखी अपनी ओर से भी कुछ स्मारक या स्मृति चिन्ह बनाने का प्रयत्न करते है । इस तरह धार्मिक भावना को भी बहुत प्रोत्साहन मिलता है । और इतिहास भी सुरक्षित रहता है ।
2- कला – इन तीर्थों और पूजनीय स्थानों का दूसरा महत्त्व कला की द्रष्टि से है । अपनी अपनी शक्ति और भक्ति के निर्माण करना वाले अपनी कलाप्रियता का परिचय देते है । इससे एक ओर जहाँ कलाकारों को प्रबल प्रोत्साहन मिलता है वही दूसरी ओर कला के विकास में भी बहुत सुविधा उपस्थित हो जाती है । इस तरह समय पे स्थापत्य कला, मूर्तिकला ओर साथ ही चित्रकला के अध्ययन करने की द्रष्टि से उन स्थानों का दिन प्रतिदिन अधिकाधिक महत्त्व बताया जाता है । सभी व्यक्ति गहरी धर्म भवना वाले नहीं होते है, अतः कलाप्रेमी व्यक्ति भी एक दर्शनीय ओर मनोहर कलाधाम की कारीगरी को देखते हुए उनके प्रति अधिकाधिक आकर्षित होने लगते है । जैन हे नहीं जैनेतर लोगो क लिए भी वे कलाधाम दर्शनीय स्थान बन जाते है । इस द्रष्टि से ऐसे स्थानों का सार्वजनिक महत्व भी सर्वाधिक होता है। सम-सामायिक ही नहीं, किन्तु चिरकाल तक वे जन-समुदाय के आकर्षण केंद्र बने रहते है । आबू रणकपुर के मंदिर इसी द्रष्टि से आज भी आकर्षण के केंद्र बने हुए है ।
3- चमत्कार – तीसरा भी एक पहलू है – चमत्कारों से प्रभावित होना । जन समुदाय अपनी मनोकामनाओं को जहाँ से भी, जिस तरह से भी पूर्ति की जा सकती है उसका सदैव प्रयत्न करते रहते है, क्योंकि जीवन में सदा एक समान स्थिति नहीं रहती । अनेक प्रकार के दुःख, रोग और आभाव से पीड़ित होते रहते है । अतः जिसकी भी मान्यता से उनके दुःख दुःख निवारण और मनोवांछा पूर्ण करने में याताकाचित भी सहायता मिलती है जो सहज ही वह की मूर्ति, अद्धिता आदि के प्रति लोगो का आकर्षण बता जाता है ।
जिनज्ञा के विरूद्घ कुछ लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडम्
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Shri Valmiki Parshvanath Bhagwan

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भगवान आदिवीर की प्रतिमा १८०० वर्ष प्राचीन

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भगवान आदिवीर की प्रतिमा १८०० वर्ष प्राचीन

🚩 जय जिनशासन ! सृष्टि का सर्वाधिक प्राचीन धर्म
कर्नाटक में मिली दुनिया की एकमात्र आदिवीर भगवान की प्रतिमा जिसका आधा अंग आदिनाथ भगवान का और आधा अंग महावीर भगवान का है । यह प्रतिमा आदिवीर भगवान की है । प्रतिमा का आधा अंग आदिनाथ भगवान का है और आधा अंग महावीर भगवान का है ! प्रतिमा का जो लांचंण है उसमे आधा बैल है और आधा सिंह है । प्रतिमा को तीसरी आख भी है जो थोडीसी आदिनाथ के अंग की तरफ है ।

यह प्रतिमा कम से कम 1800 वर्ष पुरानी है क्यों की वहा एक प्राचीन शिलालेख मिला है जो बताता है की आचार्य भद्रभाहू और चंद्रगुप्त मौर्य और 700 मुनी उत्तर से दक्षिण की तर्फ जाते समय उनका चातुर्मास हुआ था l

कर्नाटक में मिली अदभुद एवं आलौकित जैन प्रतिमा l

✍🏼 सौजन्य : अहिंसा क्रांति अखबार की रिपोर्ट
हलिंगली (कर्नाटक) में खुदाई के दौरान प्राचीन जैन प्रतिमा प्राप्त भगवान आदिनाथजी व भगवान महावीर जी की संयुक्त आधा बैलमुख व आधा शेरमुख चिन्ह युक्त लगभग दूसरी या तीसरी सदी की भारत में पहली बार इस तरह की "आदिवीर" भगवान की प्राचीन प्रतिमा मिली है ।
इससे पूर्व में भी यहाँ से प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त हो चुकी है। संभवत: यहां प्राचीन समय मे विशाल जिनालय होगा । इसी स्थान से एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ था जिसमे आचार्य भद्रबाहु के साथ चंद्रगुप्त मौर्य उत्तर से दक्षिण भारत की और विहार करते समय चातुर्मास किये जाने का उल्लेख है l

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वासक्षेप क्या है एवं यह क्यों दिया जाता है ?

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वासक्षेप क्या है एवं यह क्यों दिया जाता है ? 
वासक्षेप की परंपरा का उद्भव कहाँ से होता है ?

वासक्षेप गुरू भंगवतों से किस प्रकार से लेवे ?

वासक्षेप चन्दन लकड़ी का चूरा ( बुरादा) होता है । गुलाब जल,प्रभु का अभिषेक जल भी इसमें सम्मिलित होता है ।

औरों के लिए यह मिट्टी है किन्तु एक जैन श्रावक के लिए यह गुरु द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद एवं ऊर्जा का केंद्र है l

जब तीर्थंकर प्रभु को केवलज्ञान होता है , एवं वे प्रथम शिष्य को दीक्षा देते हैं , तब इंद्र वासक्षेप का थाल लेकर प्रभु के पास खड़ा रहता है । प्रभु अपने शिष्यों और श्रावकों के मस्तक पर वह डालते हैं , वहीँ से यह परंपरा चालू हुई , ऐसा आचार्य हेमचन्द्र सूरीश्वर जी ने भी अपने ग्रन्थ में लिखा है ।

आ अवसर्पिणी काळ में सबसे पहेले वासक्षेप आदिनाथ भगवाने गणधर भगवंत ( पुंडरीक स्वामी ) के शिर पल डाला था। तब से वासक्षेप डालने की शरुआत हुई है ।

विनीता नगरी में आदिनाथ भगवाने संघपति पद पर देशना दी थी। बाद में भरत चक्रवर्तीने विनीता नगरी से शत्रुंजय तीर्थ का छली पालित संघ निकाला था। तब आदिनाथ भगवाने भरत चक्रवर्ती को वासक्षेप डाल के संघपति पद दिया था ।

महावीर स्वामी भगवाने श्री गौतम स्वामी को सबसे पहले वासक्षेप डाला था। बाद में सभी गणधर भगवंत को डाला था ।

वासक्षेप अर्थात वास ( सुगन्धित ) चूर्ण एवं क्षेप यानि डालना ।

गुरु महाराज दीपावली के दिनों में, नवरात्रि के दिनों में , ओली पर्व के दिनों में , सूरि मंत्र की आराधना के समय इस वासक्षेप को मंत्रोच्चार के साथ प्रभावक बनाते हैं ।

जब गुरु महाराज वासक्षेप देते हैं तो कहते हैं – नित्थार पारगा होह ” यानि इस संसार से तेरा निस्तारा हो , तेरा कल्याण हो ।
प्रश्न : वासक्षेप की परंपरा का उद्भव कहाँ से होता है ?

उत्तर : तीर्थंकर परमात्मा जब गणधर भगवंतों को संयम- दीक्षा प्रदान करते हैं , उस समय इंद्र महाराज वास ( सुगन्धित ) चूर्ण का एक थाल लेकर खड़े रहते है । दीक्षा देते समय प्रभु इस वासक्षेप को शिष्य के मस्तक पर आशीर्वाद रुपी चिन्ह के रूप में डालते हैं ।

तीर्थंकर परमात्मा आशीर्वाद देते हैं - "नित्थारगपारगाहोह" यानि इस संसार सागर से तुम्हारा शीघ्र निस्तारा हो ! यही परंपरा आज भी चली आ रही है एवं गुरु भगवंत वासक्षेप देते समय यह आशीर्वाद प्रदान करते हैं । शिष्य इसे तहत्ति कहकर स्वीकार करते है ।

★ त्रिकाल परमात्मा पूजा में सुबह वासक्षेप पूजा......

प्रभु चरणोमें सदा वास रहे
प्रभु चरणोमें सदा स्थान रहे
प्रभु चरणका सदा शरण रहे
दिनभर शुभ आचरण रहे

★ सामायिक पौषध मे श्रावक श्राविकाओ कल्पसूत्र या आगम प्रत की या कोई यंत्र की वासक्षेप पूजा नहीं कर सकते ।

★ परमात्मा की वासकेप पुजा सुबह सामायिक के कपडों में मुखकोश बांधकर, परमात्मा को स्पर्श किएँ बिना की जा सकती हैं ।

★ प्रभु वीर ने २ बार श्री सुधर्मा स्वामीजी को वासक्षेप किया ।

★ ज्ञानपंचमी के दिन जिनालय में जाकर बच्चों द्वारा ज्ञान के साधन: पुस्तक काँपी, पैन, पैसिल आदि चढवाकर ज्ञान की वासक्षेप से पुजा जरूर कराये ।

"वासक्षेप गुरू भंगवतों से किस प्रकार से लेवे ...... हमे अपने गुरु के आशीर्वाद मिले इसलिए उनसे वासक्षेप लेते है ।

परीक्षा में पास हो जाउं, धंधा अच्छा चले , मुसाफरी में विघ्न न आये , योग्य पति व पत्नी मिल जाय, लग्नजीवन बराबर चले , संतान का सुख मिल जाय , संतान का ब्याह हो जाय, संतानको नोकरी मिल जाय - ऐसी अनेको संसारिक इच्छाऐ पूरी हो जाये इसलिए गुरुभंगवतों से वासक्षेप लेने (डलवाने) बहुत आते है । यह उचित नही है । गुरुभगवंत 'भव संसार से मुक्ति मिले , आपको मोक्ष मिले ' इस प्रकार से आशिर्वाद देते है । आने वाला व्यक्ति मात्र अपनी इच्छापूर्ति जितना ही आशीर्वाद लेकर चला जाता है और बाकि के आशीर्वाद का फल उसको नहीं मिलता है । सो रूपये की प्रभावना हो रही हो और मात्र ऐक रूपया लेकर रवाना हो जाना कहाँ तक उचित है ।

गुरु भगवंतो के पास वासक्षेप के लिए जब भी जाए तब ज़रूर से गुरू पूजन - ज्ञान पूजन द्रव्य रख कर करे । गुरुभंगवत पक्षपात नही करते है कि किसी ने ज़्यादा द्रव्य अर्पण किया तो उसे अधिक आशीर्वाद दे ओर कम द्रव्य रखा हो तो कम सभी को समान आशिर्वाद प्रदान करते है । फिर भी अलग अलग जीव अपनी इच्छा व योग्यता अौर भाव के अनुरूप फल पाते है । इसलिए अपनी शक्ति के अनुरूप ज़रूर से द्रव्य को रखकर वासक्षेप करवाना चाहिए ।

गुरुभंगवत वासक्षेप के माध्यम से आशीर्वाद देते है , तब तहत्ति कहना चाहिये इसका अर्थ यह होता है कि आपको गुरूभंगवत की बात स्वीकारी है ।

गुरूभंगवत के व संघ के वासक्षेप से गुरुपूजन करने से अल्प लाभ की प्राप्ति होती है । गुरु भंगवत के वासक्षेप से उनका ही पूजन-करना उचित नहीं लगता है इसलिए शक्य हो तो अपने वासक्षेप से ही पूजन करना चाहिये ।

परीक्षा में पास होने के लिए वासक्षेप न करवा के परीक्षा में चोरी करने का मन न हो इस हेतु से वासक्षेप करवाना उचित है ।

धंधा अत्छा चले उस लिये वासक्षेप न करवा कर धंधे में नीतिमत्ता आये इसलिए वासक्षेप करवाना उचित है ।

बहुत कमायी आवे इस लिए वासक्षेप न करवा कर संतोष आये इसलिए वासक्षेप करवाना उचित है ।

दुश्मन पर विजय मिले इस लिए वासक्षेप न करवा कर क्षमा रखने का सामर्थ्य मिले इसलिए वासक्षेप करवाना उचित है ।

लग्नजीवन अच्छा व्यतित हो इस लिए
वासक्षेप न करवा कर सदाचारी ब्रह्मचारी बने इसलिए वासक्षेप करवाना उचित है ।

संसार बढे इसलिए वासक्षेप न करवा कर
धर्म बढे इसलिए वासक्षेप करवाना उचित है । ......✍🏻

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नव-अंगी पूजा

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नव-अंगी पूजा के ऊपर इस लेख में 9 बार ही तिलक, नये केसर को लेकर के उद्देश्य से जैसे प्रथम चार अंग को दो नहीं एक मान कर, वैसे ही कटोरी से तिलक 9 बार लेना, 13 बार नहीं, यह कहा गया था, प्रभु-स्पर्श तो तेरह बार होना स्वाभाविक है, क्योंकि 13 स्थान पर तिलक करना होता है, पर जैसे अंग नौ 9 ही माने जाते है, तो तिलक के लिए कटोरी से चन्दन भी 9 ही बार उठाना चाहिए ।अक्सर 13 बार, नया केसर उंगली में नये सिरे से लेकर, तिलक करते देखा जाता है। प्रथम चार अंग अंगूठा, घुँटन, कांडा, और कंधे, दो होने के कारण मगर एक अंग मानते हुए भी दो बार प्रतिमाजी के नया केसर ले कर, स्पर्श कर के 13 बार तिलक हो जाता है, जो की अनुचित है, यह लिखा गया था। इस बात पर किसी ने कोई किताब का चित्र दिया कि 13 बार कर सकते है, किसी ने प्रतिमा जी की ऊंचाई को लेकर प्रश्न किये की अगर प्रतिमा बड़ी हो,तो एक बार में पूजा कैसे संभव दांयी और बांयी तरफ ?

"नवांगी पूजा हो सके तो 9 ही बार तिलक ले कर प्रभु को स्पर्श, करना चाहिए, पर, जो कभी उंगली में केसर खुटता हुआ लगे, तब आप फिर से केसर ले सकते हो ।"

बस,जवाब तो इस ☝🏻 समझायी गई बात में ही छिपा हुआ है, पर जो कोई भावपूर्ण समझना चाहें तो ।

हमारा जैन धर्म, भावों पर ही मूल आधारित है।

यह हम सभी जानते है कि, नवाांगी पूजा करते समय हमारे भाव, प्रथम चार अंगो के लिए जो की हमारे शरीर में दो दो के रूप में है , दांयी और बाई तरफ, उन प्रत्येक चार अंग को चार ही मान कर, पूजा का नाम नवांगी दिया गया है, आगमनुसार, तेरांगी नहीं, तो फिर उन प्रथम चार अंगों को दांये और बाए में विभाजित कर के 8 (आठ) बार स्पर्श करने के भाव का उपयोग, रोज के लिए, रूटिन बनाकर क्यूँ ? और कूल मिलाकर 13 बार अलग अलग तिलक कर के प्रभुस्पर्श के उपयोग के भाव, रोज के लिए क्यूँ ?

कई बार कई जगह प्रतिमाजी की ऊंचाई बहुत होती है, और कुछ तीर्थस्थानों पर उन ऊंचाई के अंग तक पहुंचने के रास्ते बनाए होने पर भी दाएं से बाए जाने में थोड़ा समय लगता है ,जहां उंगली पर लगा केसर सूखा हुआ महसूस होता है, उस वक़्त हम इस भाव के साथ जो केसर उंगली पर फिर से लें, कि....

"है प्रभु, आपके प्रथम चार अंगो को, जो की दो - दो है, भाव से उन्हें एक ही मान कर, उनका तिलक कर रही हूं पर केसर के खुट्ने पर वापिस उंगली में केसर ले रही हूं, अन्यथा आपके दोनों तरफ के अंग को एक ही मानती हूं।"
यह भाव जरूरी है, क्यों की तभी हम "नवांगी" पूजा के भाव को, 9 रूप में, समझ सकते है, नहीं तो इस पूजा का नाम "तेरांगी" भी हो सकता था। और कभी कोई कारणवश जो 13 बार स्पर्श करना पड़े तो क्या उसे नियम बनाकर रूटीन में भी लाना चाहिए ? फिर अलग अलग तिलक कर के हम अंगो को विभाजित क्यूँ करते है ? और सिर्फ मान लिया की नहीं, एक ही अंग है, तो एक साथ केसर ले कर एक बार में क्यूँ नहीं पूजा करते, अगर ये संभव है तो ?

जैन धर्म भाव के ऊपर ही मूल आधारित है, यह हम क्यूँ भूल जाते है ?

बाकी बहस का कोई शेष नहीं। बहस में हम भी पूछ सकते है की आप भी हमे वह आगम और शास्त्र का आधार दिखाइए जहां यह लिखा हो की नव-अंगी पूजा में हम प्रभुस्पर्श 13 बार जान-बुझ कर प्रथम चार अंगों को अलग अलग रूप में विभाजित कर के, अलग अलग तिलक, रूटिन से रोज़, कर ही सकते है। आगम अनुसार ही विगत इसलिए क्योंकि टिका और बाकी किताबें, सभी संघ के अलग अलग आचार्य श्री जी अपनी अपनी मान्यता अनुसार ही लिखते है। पर जरूरत है तो जिनवाणी और आगमवाणी को ही मूल रूप से समझने की और भावों को मूल-रुप से व्यक्त करने की l

अन्जान भाव से, जिन-आज्ञा विरुद्ध कुछ लिखा गया हो, तो मन, वचन, काया से, भावपूर्ण मिच्छामी दुक्कडम l

 अब आगे जानते है *प्रत्येक ९ दोहे के साथ, कि प्रभु के प्रतिमाजी की नवांगी पूजा क्यों की जाती है, और नवांगी पूजा करते समय हमारे भाव क्या होने चाहिए ?
1⃣ नवांगी पूजा का *प्रथम दोहा जो प्रथम अंग की पूजा करते समय बोलते है :
जल भरी सम्पुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत,
ऋषभ चरण अंगुठड़े, दायक भवजल अंत ।। १ ।।

प्रश्न १. प्रभु के चरणों के अंगूठे की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है 

उत्तर १. प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तथा आत्म कल्याण हेतु, जन-जन को प्रतिबोध देने के लिए, अपने चरणों से विहार किया था, अतः दोनो चरणों के दोनो अंगूठे की पूजा, एक ही बार में, पहले दायाँ फिर बायां, तिलक करके की जाती है ।

🙏🏼 पहले अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे युगलिक ने आपके चरण अंगूठे पर अभिषेक व तिलक करके विनय दिखाकर अपना आत्मकल्याण किया था, वैसे आज मै भी अपने आत्मकल्याण हेतु आपके चरण अंगूठे पर अभिषेक व तिलक कर रहा हूँ, मुझ में भी विनय, नम्रता व पवित्रता का प्रवाह हो ।

नवांगी पूजा का दूसरा दोहा जो दूसरे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
*जानु बङे काउसग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश*,
*खड़ा खड़ा केवल लह्यु, पूजो जानु नरेश। २*

प्रश्न २. प्रभु के दोनो पैर के घुटनों की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है 

उत्तर २. प्रभु ने साधना काल मे अपने घुटनों के बल खडे रह कर अप्रमत-भाव के साथ साधना की थी और केवलज्ञान को प्राप्त किया था । इन्ही घुटनों के बल से, देश-विदेश विहार करके, कई भव्यात्माओं का कल्याण किया था । इसी लिए दोनो पैर के दोनो घुंटनो पर, एक ही बार में, पहले दांई और फिर बांई और, तिलक करके पूजा की जाती है ।

🙏🏼 दूसरे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे आपने अप्रमत भाव से साधना कर के केवलज्ञान प्राप्त किया, घुंटनो के बल से देश-विदेश विहार कर के, कई भव्यात्माओं का कल्याण किया, वैसे ही घुंटनो का बल मेरा भी होजो । मेरे भी प्रमाद दूर होजो और अप्रमत भाव से मै भी साधना कर, अपना आत्मकल्याण कर सकूं, यह शक्ति मुझे भी प्राप्त होजो । यही भाव से पहले दायाँ घुटन व फिर बायां घुटन की एक ही बार में पूजा करनी चाहिए ।

नवांगी पूजा का तीसरा दोहा जो तीसरे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान,
कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवी बहुमान ।। ३ ।।

प्रश्न ३. दोनो हाथ (कर) के दोनो कांडा (कलाई) की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है 

उत्तर ३. प्रभु ने दिक्षा लेने से पूर्व १ वर्ष तक स्वेच्छा से, अपने निर्मल कर-कांड़ा के बल से, अलंकार, वस्त्ररुपी वर्षिदान देकर निर्धनता को दूर किया था और केवलज्ञान प्राप्ति के बाद देशना एवं दिक्षा देकर अनेक मुमुक्षो को रजोहरण दान दिया था । इसलिए, उनके कर-कांड़ो के शक्ति की पूजा, कांडो पर तिलक करके की जाती है ।

🙏🏼 तीसरे अंग की पूजा करते वक्त हमारे भाव :
प्रभु के दोनो कर-कांडो (कांडा यानि बाहु कलाई की पूजा, एक ही बार में, पहले दांई फिर बांई तरफ, इस भाव के साथ करनी चाहिए कि, हे प्रभु, मेरी कृपणता व लोभवृत्ति का नाश हो और आपके कांड़ो की तरह बल मुझे भी प्राप्त हो व यथाशक्ति दान देने के भाव मुझमें भी जाग्रत हो ।

4⃣ नवांगी पूजा का चौथा दोहा जो चौथे अंग की पूजा करते वक़्त बोलते है :
मान गयुं दोय अंश थी, देखि वीर्य अनन्त,
भुजा-बले भव्-जल तरया, पूजो खन्ध-महंत ।। ४ ।।

प्रश्न ४. दोनो कंधे की पूजा क्यों और किस भाव से की जाती है 

उत्तर ४. प्रभु ने अपने अनंत ज्ञान और अनंत शक्ति की वज़ह से व भुजा-बल के प्रताप से, संसार रूपी सागर को पार किया इसलिए, कन्धों को मान का त्याग-रुप समझा गया है ।

🙏🏼 चौथे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
हे प्रभु, जैसे आपने अपने कंधों से मान व अहंकार रूपी बोझ को उतारा, त्यागा, वैसे ही हम भी आपके कन्धों की पूजा करते वक्त यही प्रार्थना करते है कि हमारी आत्मा भी आप जैसे अनंत गुणों को प्राप्त करें, अनंत शक्ति को प्राप्त करें एवं निराभिमानी बने और हम भी हमारे कन्धों से मान व अहंकार रूपी बोझ को उतारे । पहले दायेँ और फिर बांये कन्धों की पूजा एक ही बार में करते समय, यही भाव हमारे भी होने चाहिए ।

5⃣ नवांगी पूजा का पांचवा दोहा जो पांचवे अंग की पूजा करते वक़्त बोलते है :
सिद्धशिला गुण उजली, लोकान्ते भगवंत,
वस्या तेणे कारण भवी, शिरशिखा पूजंत ।। ५ ।।

प्रश्न ५. मस्तिष्क के उपरी अग्रभाग, शिरशिखा की पूजा क्यों की जाती है 

उत्तर ५. प्रभु ने आत्मसाधना व परहित में सदैव लीन हो कर, केवलज्ञान प्राप्त कर, इस लोक के सबसे अग्रभाग, सिध्दशिला पर, मोक्षरूपी स्थान प्राप्त किया है। इसलिए, प्रभु की प्रतिमा जी के मस्तिष्क के शिखरी अग्रभाग को, सिद्धशिला का प्रतिक माना गया है ।

🙏🏼 पांचवे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
हे प्रभु, जैसे आपने आत्महित साधना से व परहित में सदैव लीन रहकर इस लोक के सब से अग्र स्थान को, प्राप्त किया है, वैसे ही, आपके मस्तिस्क, शिरशिखा को पूज कर में भी यह विनंती करता हूं कि आप जैसी आत्महित साधना करने की व परहित में सदैव लीन रहने की शक्ति, मुझे भी प्राप्त हो, और में भी आप की तरह इस लोक के अग्रिम स्थान, सिद्धशिला को प्राप्त करूं।

6⃣ नवांगी पूजा का छट्ठा दोहा जो छट्ठे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत,
त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ।। ६ ।।

प्रश्न ६ ललाट की पूजा क्यों की जाती है 

उत्तर ६. प्रभु, तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्योदय से, तीनो लोक में, पूजनीय है। तीनो लोक की लक्ष्मी, मोक्ष लक्ष्मी के, तिलक समान है। इसलिए तिलक-स्थान रूपी ललाट की पूजा की जाती है ।

🙏🏼 छट्ठे अंग की पूजा करते वक़्त हमारे भाव :
है प्रभु, आप के ललाट पर तिलक करने के साथ में यह प्रार्थना करता हूं कि, मुझे ऐसा पुण्यबल प्राप्त हो, जिस से में, मेरे ललाट के लेख यानी मेरे कर्म मुझे मिले हुए मेरे सुख में राग, दुख में द्वेष ना करूं, अविरत आत्म-साधना करते हुए आपके जैसा पुण्यनुबन्ध का स्वामी बनुं।

7⃣ नवांगी पूजा का सातवां दोहा जो सातवें अंग की पूजा करते समय बोलते है :
सोल प्रहार प्रभु देशना, कण्ठे विवर वर्तुल,
मधुर ध्वनि सुरनर सुणे, तने गले तिलक अमूल ।। ७ ।।

प्रश्न ७. कंठ कि पूजा क्यों की जाती है 

उत्तर ७. प्रभु ने अपने मधुर और करुणामयी कंठ से देशना दे कर, कई जीवो का उद्धार किया था । इसलिए गले के कण्ठ की पूजा की जाती है ।

🙏🏼 सातवें अंग की पूजा करते समय हमारे भाव :
है प्रभु, आप के मधुर कंठ की पूजा करते हुए मेरी यही प्रार्थना, यही भाव है कि, आपकी वाणी की मधुरता और करुणा को में भी प्राप्त करूं, मुझ में भी ऐसी ही वाणी प्रगटे, जिस से मेरी वाणी से, मेरा और बाकी सभी का भी हित हो ।

8⃣ नवांगी पूजा का आंठवा दोहा जो आंठवे अंग की पूजा करते समय बोलते है :
ह्रदय कमल उपशम बले, बाड़्या राग ने द्वेष,
हिम दहे वन खण्ड ने, ह्रदय तिलक संतोष ।। ८ ।।

प्रश्न ८. ह्रदय की पूजा क्यों की जाती है 

उत्तर ८. प्रभु ने अपने हृदय के राग-द्वेष को नष्ट कर के अपने हृदय में उपशम भाव का प्रवाह किया है। प्रभु के निरस्पृह, कोमल और करुणा से भरे हृदय ने उपकारी और अपकारी सभी जीवो पर समान भाव रखा है। इसी उपशम भाव के गुणों की वज़ह से ह्रदय की पूजा की जाती है ।

🙏🏼 आंठवे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
है प्रभु, जैसे आपने राग द्वेष का नाश कर के उपशम भाव को जागृत किया वैसे ही, में भी, मेरे हृदय में भी, राग द्वेष को नष्ट कर के, सभी के प्रति वात्सल्य भाव, मैत्री भाव, निस्पृहता, प्रेम, करुणा, जागृत कर सकूं, और सभी जीवो के प्रति सम-भाव, उपशम भाव रख सकूं, ऐसी शक्ति प्रदान हो ।

9⃣ नवांगी पूजा का नौवा दोहा जो नौवें अंग की पूजा करते समय बोलते है :
रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विश्राम,
नाभि कमरनी पूजना, करता अविचल धाम ।। ९ ।।

प्रश्न ९. नाभि की पूजा क्यों की जाती है 

उत्तर ९. प्रभुने श्वासोश्वास को नाभि में स्थिर कर के, मन को आत्मा के शुद्ध स्वरूप से जोड़ कर, उत्कृष्ट समाधि सिद्ध कर के, अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र, यह रत्नत्रयी गुणों को प्रगट किया था, और अपने ८ रुचक प्रदेश को कर्म रहित किया था। इसीलिए, रत्नत्रयी के गुण-रूप हम प्रभुजी की प्रतिमा का ९ वा तिलक, नाभि पर करते हैl

🙏🏼 ९ वे अंग की पूजा करते समय हमारे भाव ::
है प्रभु, आपकी निर्मल नाभि पर तिलक कर के पूजा करते हुए मेरी यही प्रार्थना, यही भाव है कि,मुझे भी रत्नत्रयी गुण को प्राप्त करने का सामर्थ्य प्रदान हो। आपकी नाभि के ८ रुचक प्रदेश की तरह, मेरे भी सर्व आत्म-प्रदेश शुद्ध हो l

 उपसंहार दोहा :::
उपदेशक नव तत्त्व ना, तिणे नव अंग जिणंद ,
पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभ वीर मुणींद ।।

अर्थात,
👉🏻हमारे आत्मा के कल्याण हेतु, नव-तत्व के उपदेशक ऐसे आप प्रभु, आपके अंगों की पूजा विधि से, राग से, भाव से करें, ऐसा प. पू. उपाध्याय श्री वीरविजय जी म. सा. ने कहा है।

🙏🏼 मिच्छामी दुक्कड़ं ! पहले भाग में नौ बार तिलक की बात की गई थी उसका तात्पर्य कटोरी से नौ बार, नौ अंग के लिए, चन्दन उठाने से था, प्रभुस्पर्श तो स्वाभाविक रूप से १३ बार होगा ही क्योंकि प्रथम ४ अंग, दो - दो है । कई बार देखते है कि कटोरी में लिया हुआ अधिक चन्दन का उपयोग खपत नहीं हो पाता है और वह नमन - पानी में मिला देना पड़ता है, या कुछ लोग थाली धोते समय पानी में बहा देते है, और एसे भी आशातना लगती है । बाकी तो, वह हम सब के भाव ही है, जो हमें मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त कराने में सहाय करते है । लिखने थोड़ी सी चूक रह गई थी, इसलिए मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडम

 कृपया नवांगी पूजा करते समय यह ध्यान अवश्य खें कि यह दोहे आप *अंतःर्मन में ही बोले, उपर लिखे भावों के साथ । कई बार देखा गया है कि हम *शब्दोच्चारण कर के, और कई बार इतने अधिक जोर से बोलते* है, जिससे गभारे में पूजा कर रहें, अन्य भव्यात्माओं के भावों में *बाधा उत्पन्न होती है, और अन्जाने में *पुण्य उपार्जन के स्थान पर हम अंतराय कर्म का बान्ध कर लेते है । इस विराधना से जरुर बचें, क्योंकि, हे आत्मन्, तुँ ही परमात्मन् ।

॥ समाप्त ॥

यह पोस्ट लिखते समय जो कोई भी काना-मात्रा की या अर्थ की भूल-चूक अन्जाने में हो गई हो, तो मन, वचन, काया से *मिच्छामि दुक्कड़ं l


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ઉત્કૃષ્ટ 170 જિનેશ્વર ભગવાન

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ઉત્કૃષ્ટ 170 જિનેશ્વર ભગવાન 

જ્યારે આપણા ભરતક્ષેત્રમાં બીજા શ્રી અજિતનાથ ભગવાન વિચરતા હતા ત્યારે પાંચે ભરતક્ષેત્ર અને પાંચે ઐરવતક્ષેત્રમાં 1 - 1 ભગવાન વિચરતા હતા. એટલું જ નહિ , દરેક મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં 32 - 32 વિજય આવેલી છે. કુલ પાંચ મહાવિદેહ ક્ષેત્ર હોવાથી બધું મળીને 5 × 32 = 160 વિજય થઈ. તે દરેકમાં પણ 1 - 1 ભગવાન તે સમયે વિચારતા હતા.

તેથી પાંચ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં 160 તીર્થંકર અને 5 તીર્થંકર ભરતક્ષેત્રમાં અને 5 તીર્થંકર ઐરવત ક્ષેત્રમાં. 

અજિતનાથ ભગવાનના સમયે ફુલ 170 તીર્થંકર ભગવાન વિચરતા હતા.
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जैन दर्शन नुसार चार निकाय के देव – देवियाँ होते है ।

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जैन दर्शन नुसार चार निकाय के देव – देवियाँ होते है । … भवनवासी, व्यंतर , ज्योतिष और कल्पवासी ।

देव – देवियाँ भवनों में , स्वर्गो में रहते है ।

देव – देवियाँ उपपाद शैया पर उत्पन्न होते है उनके गर्भ जन्म नहीं होता ।

देव – देवियों के विवाह नहीं होता … विवाह का संस्कार मात्र मनुष्य गति में है …

विवाह मर्यादा मनुष्यों को कम से कम एक-देश संयम धारण करने का पात्र बनती है ।

देव गति में विवाह परंपरा नहीं होती सो देव – देवियाँ बिना विवाह के प्रविचार करते है ।… (Like Live-In Relationship)

देवियाँ मात्र 2nd स्वर्ग तक उत्पन्न होती है … उपर के स्वर्गों से आकर देव , अपनी – अपनी देवी को ले जाते है ।

देवियों की गर्भ धारणा नहीं होती सो देव – देवियों की कोई सन्तान नहीं होती ।

देवियों कि गर्भ धारणा या सन्तान नहीं होती सो किसी देवी को माता कहना उचित नहीं ।

देवियाँ ना तो मंगल – सूत्र पहनती है , ना ही उनके कोई सुहान की निशानी होति है कारण देव – गति में विवाह परंपरा नहीं ।

अपने देव की आयु का क्षय होने पर कुछ देवियाँ दुसरे देवों को स्वीकार कर लेती है … शील पालन नहीं कर पाती ।

देव – देवियों को उपवास , एकाशन आदि व्रत नहीं करते आते क्योंकि उनके कंठ से अमृत झर जाता है … अपने आप … सो देवों के अंश मात्र संयम भी नहीं हो सकता ।

देव – गति में 4th गुणस्थान के ऊपर गुणस्थान प्राप्त करना संभव नहीं ।

तीर्थंकर भगवान की पालखी उठाने का मान प्रथम मनुष्यों को मिलाता है देवों के नहीं कारण देव संयम धारण – पालन नहीं कर सकते … एक- देश संयम भी ।

देव मनुष्य बनने के लिए तरसते है क्योंकि मात्र मनुष्य पर्याय में संयम , दीक्षा , मोक्ष होता है , देवगति में नहीं ।

देव – देवियाँ मात्र सम्यग – दृष्टी जीव के मदत को आते है , जैसे सीता , द्रोपती आदि … मिथ्या दृष्टी जीव के मदत को नहीं ।

पुरुष द्वारा किसी देवी की मूर्ति के वस्त्र बदले जाना यह उस देवी के साथ अप्रत्यक्ष व्यभिचार होता है … जिनालयो में अन्य श्रावक – श्राविका ओं के सामने यह व्यभिचार … उस देवी को पीड़ा देने वाला होता है … और अशुभ कर्मों के बंध का कारण होता है ।

देव – देवियाँ दिव्य वस्त्र पहनते है … जो मैले नहीं होते, पुराने नहीं होते या कभी फटते भी नहीं … मनुष्यों द्वारा देव – देवियों को वस्त्र भेट करना व्यर्थ है … वे उन्हें ग्रहण ही नहीं करते ।

देव – देवियों के आभुषण भी दिव्य होते सो उन्हें साधरण आभूषण आदि भेट देना भी व्यर्थ ही होता है l

मनुष्य देवों से श्रेष्ठ होते है सो मनुष्यों का देव – देवियों का पूजन आदि करना उचित या किसी भी फल को देने वाला नहीं मात्र अशुभ कर्मों का बंध करने वाला ही होता है l

यक्ष – यक्षिणी व्यंतर जाती के देव – देवी होते है l

....

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नौका से तत्वज्ञान कीजिये संज्ञान --

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जीवादि नव तत्वों को हम एक नौका के उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते है।
सरोवर में नौका चल रही है। नौका को खेने वाला एक नाविक है और कुछ यात्री है।नौका में छिद्र होने से उसमें पानी भरने लगा जिससे संतुलन बिगड़ने लगा और संतुलन बिगड़ते देख नाव केछिद्रों को बंद कर दिया और संचित जल को पात्रादि से उलीचना प्रारंभ किया और नौका पानी से खाली होकर लक्ष्य तक पहुंच गयी ।

जीव : - नाविक / यात्री

अजीव : नौका

भाव पुण्य : छोटे छिद्र / धर्मानुराग भाव

द्रव्य पुण्य : -
कम मलिन पानी / पूजा, भक्ति, दान क्रियायें

भाव पाप : -
बडे़ छिद्र / मिथ्यात्व आदि पांच हेतु

द्रव्य पाप :-
गंदला पानी / हिंसादि पंच पाप
ऐसे ही बस / रेल / मकान आदि के उदाहरणों से भी सप्त
तत्वों का स्वरूप समझ जा सकता है ।

भावश्रव : -
नौका में पांच बडे़ छिद्र और सत्तावन छोटे छिद्र से रागादि भाव का आना

द्रव्याश्रव :-
पानी का आना / कर्मों का आना

भावबंध : -
नौका की दीवारें / विकार का एकमेक होना

द्रव्यबंध : -
पानी का एकत्रित होना / कर्मों का जीव से मिलना

भावसंवर :-
छिद्रबद करने के लिए जो लकडी़ व कपडा़ लगाया / भेदज्ञान का प्रयोग करना

द्रव्यसंवर : -
नौका में पानी का आना रूक जाना / नवीन कर्मों का आना रूकना

भावनिर्जरा :-
पात्र से पानी का बाहर निकालना / शुद्ध भाव की बृद्धि होना

द्रव्य निर्जरा :-
थोडा़ थोडा़ पानी का बाहर निकलना / पुराने कर्मों का झड़ना

भाव मोक्ष : -
नाव का पानी से रिक्त होना / पूर्ण शुद्ध अवस्था का प्रकट होना

द्रव्य मोक्ष :
पानी का पृथक हो जाना / सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जाना


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કેસર પૂજા

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પરમાત્મા ના માત્ર સ્પર્શ થી અસંખ્ય ભવો ના પાપ શમી જાય છે

પરમાત્મા ની કેસર પૂજા દ્વારા આ જન્મ તથા જન્મો જન્મ ના પાપ નો નાશ થાય છે

પરમાત્મા ની પૂજા સુરક્ષા કવચ છે

પરમાત્મા ની પૂજા થી ઉપસર્ગ શાંત થાય છે અને અલ્પ કર્મી બની જાય છે
💢💢💢💢💢💢💢💢💢

સ્વદ્રવ્ય થી પરમાત્મા ની પૂજા કરવા શાસ્ત્રકારો ની આજ્ઞા છે

શાસ્ત્ર મુજબ પૂજા નું કેસર ઘરે થી ઘૂંટી ને દેરાસર જવાનું છે
શ્રાવક ના ઘરે પાટલી, ચંદન નું લાકડું અને કેસર તો રાખવું જોઈએ

શ્રાવક ઘરે થી તિલક કરી ને દેરાસર જાય અને દેરાસર ની સામગ્રી બહુ ઓછી વાપરે

શાસ્ત્ર માં તો પગ ધોવા નું પાણી પણ ઘરે થી લઇ જવાનું છે

પછી શ્રાવક જીન પૂજા કરે. જીન પૂજા કરતા ભગવાન ને જોતા સૌ પ્રથમ પ્રભુ ને માથું ( અંજલીબદ્ધ) જુકાવી વંદન કરે

પછી કાળજી પૂર્વક પરમાત્મા ને ત્રણ પ્રદક્ષિણા આપે

ત્યાર બાદ પરમાત્મા ને કેળ ( અર્ધવનત પ્રણામ ) સુધી નમી ને વંદન કરે

ત્યાર બાદ પ્રભુ નો આદેશ માંગી પરમાત્મા ની ભાવ પૂર્વક સ્તુતિ કરે
સંસ્કૃત, પ્રાકૃત ભાષા માં સ્તુતિ બોલવાની આગ્રહ રાખવો
ભક્તામર; સકલારથ વગેરે સ્તુતિ બોલવી

પછી પરમાત્મા ની ત્રણ અવસ્થા ધ્યાવી
પેહલી અવસ્થા - પિંડસ્થ
પરિકર માં રહેલા હથી ને જોઈ ને પરમાત્મા નો જન્મ સમય દ્યાવો

પરિકર માં ફૂલ ની માળા લઇ ને ઉભી રહેલી દેવી ને જોઈ ને પ્રભુ નું રાજ્ય અભિષેક ધ્યાવો

પરિકર માં ઉભી કર્યોત્સર્ગ જીન પ્રતિમા ને જોઈ ને પ્રભુ નું દીક્ષા પણું ધ્યાવું

ત્યાર બાદ બીજી નિસિહી કહી ને પ્રભુ પાસે જીન પૂજા કરવા જાવ

ખાસ સૂચના ⚠ - પરમાત્મા ના ગભારા માં પ્રવેશતા સંપૂર્ણ પણે મૌન રેહવુ.દુહા મન માં જ બોલવા.

અંગુથડે પૂજાતા - વિનય / વિવેક ગુણ
ઢીંચણ પૂજતા - સમતા ગુણ
કાંડે પૂજતા - ઉદારતા ગુણ
ખભે પૂજતા - નમ્રતા
મસ્તકે પૂજતા - મોક્ષ પદ
ભાલે પૂજતા - તેજસ્વીતા ગુણ
કંઠે પૂજતા - મધુરતા ગુણ
હ્રદયે પૂજતા - કરુણા ; કોમળતા ગુણ
નાભિ પૂજતા - સ્થિરતા ગુણ

જીન પૂજા દર રોજ કરવું એ શ્રાવક ની જીવન શૈલી છે
જીન પૂજા કરી ને આ ભવ સાર્થક કરો તેજ અભ્યર્થના🌹

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हे ये पावन भूमि यहाँ बार बार आना है ये शाश्वत भूमि यहाँ यहाँ बार बार आना

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हे ये पावन भूमि यहाँ बार बार आना
है ये शाश्वत भूमि यहाँ यहाँ बार बार आना
नवकारके मंत्रोका तुम जाप जपा लेना
है ये शाश्वत भूमि.........
तेरा प्रांगण पावन है
सिध्धगिरिका आंगण है
तेरा ध्यान धरके यहाँ
परमानंद पाना है .....
है ये शाश्वत भूमि......
तेरी भूमि हरियाली है
शेत्रुंजीने सिंची है
प्रकृतिकी गोदीमें
मंत्रोच्चार करना है
है ये शाश्वत भूमि.....
नवकारसे सिद्धि है
नवकारसे रिद्धि है
नवकार करे भवपार
बेडा पार लगाना है
हे ये शाश्वत भूमि यहाँ बार बार आना
नवकारके मंत्रोका तुम जाप जपा लेना
जय नवकार ...जय गिरिराज

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Jin Darshan



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ધજા ચઢાવવાથી શું લાભ થાય

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ધજા ચઢાવવાથી શું લાભ થાય
તો, ત્રણ ભુવન ના નાથ તીર્થંકર પરમાત્મા ના જિનાલય ની ધજા બદલનારો અતિશય પુણ્ય નો સ્વામી બને છે.
૧) આખી પૃથ્વી પર જેટલા પણ તીર્થો છે એ બધાય ની જાત્રા કરવા જેટલો લાભ જિનાલય ના શિખર ની ધજા બદલવાથી થાય.
૨) જિનાલય ની ધજા બદલનારો પુણ્યશાળી આત્મા અત્યંત શૌર્ય , કીર્તિ અને યશ પામે.
૩) આવા શુભ મંગલ પ્રસંગો એ ચઢતા ભાવો સાથે માત્ર હાજરી પુરાવવાથી પણ આપણે અનેરું પુણ્ય કમાઈ શકીયે.
૪) આ બધાય ઉપરાંત જિનાલય દર્શનં ના વિચાર માત્ર થી ૧ ઉપવાસ નો,
દર્શન કરવા પગ ઉપાડતા ૧૦ ઉપવાસ નો, દૂર થી શિખર/ધજા ના દર્શન કરતા ૧૦૦ ઉપવાસ નો,
પ્રભુજી ના દર્શન માત્ર થી ૧૦૦૦ ઉપવાસ નો,
પ્રભુજી ની અષ્ટ પ્રકારી પૂજા કરતા ૧૦,૦૦૦ ઉપવાસ નો અને
પ્રભુજી ને હાથેથી ગુંથેલી ફૂલ ની સુંદર સુગંધી માળા પહેરાવવાથી ૧ લાખ ઉપવાસ નો આપણ ને લાભ થાય.
આવતી કાલે નીચે મુજબ ના દરેક જિનાલયો ની
સાલ ગિરાહ-ધજા રોહણ નો મંગલ દિવસ છે.
આપ દુનિયા માં ક્યાંય પણ વસતા હોવ તોયે આપ ની આસપાસ ના કોઈ પણ શિખરબંધ દેરાસર નું અથવા તો કોઈ તિર્થ ના મૂળનાયક નું નામ,ધજા તિથિ,સાલ-વિક્રમ સંવત,સરનામું  અથવા તો ફોન નંબર પણ હોય તો નીચે જણાવેલા નંબર પર વ્હોટ્સ અપ/મેસેજ/ઈ મેલ મોકલવા વિનંતી.
આપ ના જિનાલય ની સાલગિરાહ ની પણ અનુકૂળતા મુજબ અગાઉ થી જાહેરાત કરવામાં આવશે,
બોલો જિન શાસન દેવ કી જય.
ધન્યવાદ...🙏

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Jay Jay Shri Parshwanath.... Tulsi Shayam Jinalay, Vadaj,Ahmedabad ..

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8 इंच के नीलम रत्न से बने श्री स्तम्भन पार्श्वनाथ । खंभात (गुजरात)

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8 इंच के नीलम रत्न से बने श्री स्तम्भन पार्श्वनाथ । 
खंभात (गुजरात) 

गत चौबीसी में आषाढ़ी श्रावक ने जो...शंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा भरवाई थी, उसी श्रावक ने ये प्रतिमा जी भी भरवाई थी l

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है ये पावन भूमि .. यहाँ बार बार आना .. आदिनाथ के चरणों में .. आकर के झुक जाना ..

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है ये पावन भूमि .. यहाँ बार बार आना .. 
आदिनाथ के चरणों में .. आकर के झुक जाना .. 

विश्व विख्यात जैन तीर्थ शत्रुंजय (पालीताना ) को शाश्वत तीर्थ, तिर्थाधिराज भी कहा जाता है। इस तीर्थ की महिमा क्या कहें, स्वयं प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु ने 99 बार इस भूमि को पावन किया है। यहाँ का कण कण पवित्र है। अनंत अनंत मुनि भगवंत इस भूमि से (जय तलहटी से ) मोक्ष पधार चुके है। 

गुजरात के भावनगर के पास, पालीताना.. शत्रुंजय नदी के तट पर शत्रुंजय पर्वत की तलहटी में स्थित जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ है।
जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध पालीताना में पर्वत शिखर पर एक से बढ़कर एक भव्य व सुंदर 863 जैन मंदिर हैं। सफ़ेद संगमरमर में बने इन मंदिरों की नक़्क़ाशी व मूर्तिकला विश्वभर में प्रसिद्ध है। 11वीं शताब्दी में बने इन मंदिरों में संगमरमर के शिखर सूर्य की रोशनी में चमकते हुये एक अद्भुत छठा प्रकट करते हैं तथा मणिक मोती से लगते हैं।

पालीताना शत्रुंजय तीर्थ का जैन धर्म में बहुत महत्त्व है। पाँच प्रमुख तीर्थों में से एक शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करना प्रत्येक जैन अपना कर्त्तव्य मानता है।

मंदिर के ऊपर शिखर पर सूर्यास्त के बाद केवल देव साम्राज्य ही रहता है। सूर्यास्त के उपरांत किसी भी इंसान को ऊपर रहने की अनुमति नहीं है।

पालीताना के मन्दिरों का सौन्दर्य व नक़्क़ाशी का काम बहुत ही उत्तम कोटि का है। इनकी कारीगरी सजीव लगती है।
पालीताना का प्रमुख व सबसे ख़ूबसूरत मंदिर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का है। आदिशवर देव के इस मंदिर में भगवान की आंगी दर्शनीय है। दैनिक पूजा के दौरान भगवान का श्रृंगार देखने योग्य होता है।

1618 ई. में बना चौमुखा मंदिर क्षेत्र का सबसे बड़ा मंदिर है। कुमारपाल, मिलशाह, समप्रति राज मंदिर यहाँ के प्रमुख मंदिर हैं। पालीताना में बहुमूल्य प्रतिमाओं आदि का भी अच्छा संग्रह है।


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શત્રુંજય મહાગિરિરાજના પાંચ ચૈત્યવંદન...

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૦૧) જય તળેટીએ - સ્નેહભાવથી ચૈત્યવંદન

૦૨) શાંતિનાથ પ્રભુના જિનાલયે - સમભાવ ચૈત્યવંદન

૦૩) રાયણ પગલાંએ - આત્મભાવ ચૈત્યવંદન

૦૪) પુંડરીક સ્વામીના દેરાસરે - નિર્લેપભાવ ચૈત્યવંદન

૦૫) તીર્થાધિપતિ શ્રી આદિનાથ દાદાના જિનાલયે - પરમાત્મભાવ ચૈત્યવંદન

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અંગલુછણા



પરમાત્મા ના અભિષેક પછી આવે છે અંગલુછણા

પરમાત્મા ના રૂંવાડે રૂંવાડે જ્ઞાન વહે છે

પરમાત્મા ને અંગલુછણા કરતાં પરમાત્મા પાસે જ્ઞાન ની માંગણી કરવી.

પરમાત્મા સમતા રસ ; કરુણા રસ અને ધીરતા રસ માં પ્રભુ તરબોળ છે અને આપણા ને કરવા સમર્થ છે.

પરમાત્મા ને  અંગલુછણા કરતાં આપણા ને જ્યાં સુધી મોક્ષ ના થાય ત્યાં સુધી કાયા ની સંપૂર્ણતા સાંપડે છે
માટે અંગલૂછણા કરવા જોઈએ.

પરમાત્મા ના  અંગલુછણા સ્વચ્છ , નિર્મલ , શ્વેત હોવા જોઈએ.અખંડ જોઈએ.

શક્તિ સંપન્ન શ્રાવક દર મહિને  અંગલુછણા બદલે અને જૂના ને જાયણા માટે વાપરે.( પાણી ગાળવા નું ગરણું તરીકે )

જેમ આપણે આપણા લગ્ન, પાર્ટી,વગેરે પ્રસંગો માં નવા કપડાં ની ખરીદી કરીએ છે તેવી રીતે આપણા પ્રસંગો માં મૂળનાયક ના અંગલુછણા આપવા જોઈએ


અંગલુછણા કેવી રીતે ધોવા ?

અંગલુછણા ને એક મોટી ખથરોટ માં અલ્પ માત્ર માં સાબુ લઈ ને ધોવા જોઈએ.

અંગલુછણા બાથરૂમ માં ધોવાય નહિ

આપણા નાહવા ની ડોલ માં ધોવાય નહિ

અંગલુછણા ને આપણે જ્યાં કપડાં સુકાવ્યે ત્યાં પણ ના સુકાવાય તેની દોરી અલગ જોઈએ

ભેજવાળા વાતાવરણ માં ના સૂકાવાય, તડકો આવતો હોય તેવું જગ્યા એ દોરી જોઈએ.

ધોયેલું પાણી ને ખુલ્લી જગ્યા એ વેડી નાખવું

ગટર માં પાણી નખાઈ નહિ

અંગલુછણા ને ખંખેરાય નહિ ( વાયુકાય જીવો ની હિંસા છે )

પહેલું અંગલુછણા - સમ્યગ દર્શન માટે

બીજું અંગલુછણું - સમ્યગ જ્ઞાન માટે

ત્રીજું અંગલુછણું - સમ્યગ ચરિત્ર માટે 🙏🏻

પરમાત્મા આપણા બધા ને એમની કરુણા ના રસ માં ડુબાડી ને આપડો અનંતો સંસાર ઓછો કરે

જો એની કરુણા હસે ને તો લાખ ભવ એમના શાશન માં નીકળી જશે.

પરંતુ એમની કરુણા નહિ હોય અને એક ભવ પણ અન્ય ધર્મ માં થશે તો આકરો લાગશે.

માટે એની કરુણા જરૂરી છે.

અને આની માટે અંગલુછણા  જરૂરી છે 🙏🏻

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વિશ્વની અદ્ભુત અજાયબી સમાન સુખડના લાકડા મા થી નિર્મિત શ્રી નેમીનાથ દાદા ના પ્રતીમાજી...

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શત્રુંજય નવ-ટુંક ની નરશી-કેશવ ની ટુંક ની ભમતી ની દેરી મા બિરાજમાન વિશ્વની અદ્ભુત અજાયબી સમાન સુખડના લાકડા મા થી નિર્મિત શ્રી નેમીનાથ દાદા ના પ્રતીમાજી....
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બીજ ના ચંદ્ર દર્શન કેમ 🌙



બીજ ના ચંદ્ર દર્શન કેમ 🌙

ચંદ્ર ઉપર ૪ શાશ્વત પરમેશ્વર
( ઋષભ ;  ચંદદ્રાનન; વારિશેન ; વર્ધમાન )
ના જિનાલય છે.
બીજ ના દિવસે આ જીન મંદિર ના દ્વાર ઊઘડે છે. અને જીન મંદિર મા રહેલા જીન ને વંદના કરવાની છે માટે ચંદ્ર દર્શન કરવાના છે.

 બીજી રીતે એ પણ વિચારી શકાય કે આ ચંદ્રની શીતળતા મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિચરી રહેલ પ્રભુ સીમંધર સ્વામીને પણ શીતળતા અર્પી રહ્યો હશે જે આપણા થી બિલકુલ નજીક છે.....

આથી
ભાવના ભાવવાનું છે કે  મને પણ શાશ્વત સુખ મળે ( મોક્ષ ).

શાશ્વતા જિન એટલે

👉દરેક ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણીમાં ભરત , ઐરાવત અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રના તીર્થંકરોમાં " શ્રી ઋષભ , ચંદ્રાનન , વારિષેણ અને વર્ધમાન " એ ચારે નામવાળા તીર્થંકરો અવશ્ય હોય છે. તેથી એ નામો પ્રવાહ રૂપે શાશ્વત છે. તેથી જ શાશ્વત બિબોંના નામ શ્રી ઋષભ , ચંદ્રાનન , વારિષેણ અને વર્ધમાન રાખવામાં આવેલાં છે.

શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્રના ચોથા સ્થાનના બીજા ઉદ્દેશમાં સૂત્ર 307 માં આ ચાર તીર્થંકરોની પ્રતિમા નદીશ્વર દ્વીપમાં હોવાનો ઉલ્લેખ છે , તે નીચે મુજબ છે.

" તે મણિપીઠિકાઓની ઉપર સર્વરત્નમય , પર્યકાસને બિરાજમાન અને સ્તૂપની અભિમુખ ચાર જિન પ્રતિમાઓ રહેલી છે. તેનાં નામો " ઋષભ , ચંદ્રાનન , વારિષેણ અને વર્ધમાન " છે.

ભરતક્ષેત્રમાં જે 24 તીર્થંકરો થઈ ગયા , તેમાં પ્રથમ તીર્થંકરનું નામ શ્રી ઋષભ અને છેલ્લા તીર્થંકરનું નામ વર્ધમાન હતું. તથા ઐરાવત ક્ષેત્રમાં જે 24 તીર્થંકરો થઈ ગયા , તેમાં પ્રથમ તીર્થંકરનું નામ ચંદ્રાનન અને 24માં તીર્થંકરનું નામ વારિષેણ હતું.
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શ્રુત-સ્વરૂપ જ્ઞાનને ઉપમાઓ

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શ્રુત-સ્વરૂપ જ્ઞાનને ઉપમાઓ

૧.સૂર્ય સૂર્ય જેમ અંધકારનો નાશ કરી જગત ઉપર પ્રકાશ ફેલાવે છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન રૂપી સૂર્ય, મોહરૂપ અંધકારનો નાશ કરી સમગ્ર પદાર્થોની વાસ્તવિક સમજ આપવારૂપ પ્રકાશને કરે છે. સૂર્ય જેમ
ઉષ્મા પેદા કરી જગતમાં તાજગી લાવે છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન શ્રદ્ધા અને સંયમરૂપ ઉષ્મા પેદા કરી, કર્મ કચરાનો નિકાલ કરી, આત્મ ઘરમાં તાજગી લાવે છે.

૨.સાગર સમુદ્ર જેમ અગાધ જલના ભંડારરૂપ છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન સુંદર પદોની રચનારૂપ પાણીના ભંડાર
તુલ્ય છે.

૩.ચંદ્ર ચંદ્રની કળા દિન-પ્રતિદિન વધે છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન આત્માની કળાને વધારે છે.

૪.દર્પણ મુખ ઉપર રહેલો ડાઘ દર્પણ દેખાડે છે, તેમ આત્મા ઉપર પડેલા રાગ-દ્વેષના ડાઘને આગમ રૂપી
અરીસો બતાવે છે.

૫.મોરપીંછ મોરપીંછ જેમ બાહ્ય રજને દૂર કરે છે, તેમ શ્રુતજ્ઞાન કર્મરજનો નિકાલ કરે છે.

૬.શંખ શંખ ઉપર કોઈ પ્રકારનું અંજન થઈ શકતું નથી, તેમ જ્ઞાનવાન આત્મા ઉપર રાગાદિનાં
અંજન થઈ શકતાં નથી.

૭.સ્તંભ આખી ઈમારતનો આધાર થાંભલો છે, તેમ દર્શન-જ્ઞાન-ચારિત્રરૂપ મોક્ષમાર્ગનો આધાર
જ્ઞાન છે.

૮.વજ્ર વજ્રરત્ન જેમ શત્રુનો સંહાર કરે છે, તેમ જ્ઞાનરૂપ રત્ન રાગાદિ શત્રુનો વિનાશ કરે છે.

૯.સિંહ સિંહના મુખના દર્શન થતાં જ ક્ષુદ્ર જંતુઓ ભાગી જાય છે, પાસે આવતાં નથી, તેમ જ્ઞાનના એક ટંકારથી આત્માના ક્ષુદ્રભાવો ભાગી જાય છે.

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Palitana salgiri dada Adinath bhagvan ni mota derasar palitana city 258 mi salgiri

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સંયમીના ઉપકરણ...

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ઓધો= આ છે ઓધો, તે મોંઘો, વૈરાગીને મન સોંધો.

દંડાસણ= આ છે દંડાસણ, જીવોને ન થાય વિસામણ (દુઃખ)

સંથારો= આ છે સંથારો, ખરેખર મોક્ષ માર્ગનો સથવારો.

આસન= આ છે આસન, મોક્ષ માર્ગનું (પ્રાપ્તિનું) સિંહાસન.

વેષ= આ છે વિરતિ ધર્મના વેષની વાત, દેવો ઝંખે તો પણ ન મળે એક રાત.

ચરણ= આ છે પવિત્ર ચરણ, કરવું જાઈએ આત્મ સમર્પણ.

પાત્રા= આ છે ગૌતમસ્વામીના પાત્રા, જેથી સુખે પળાય સંયમયાત્રા.

મુહપત્તી= આ છે મુહપત્તિ, મોક્ષ માર્ગની બત્તી.

ચરવળી= આ છે ચરવળી, જીવદયાનું પાલન કરાવે સવળી.

તરપણી= આ છે તરપણી, તેમાં લવાય ફાસુક-નિર્દોષ આહાર પાણી !

નવકારવાળી= આ છે નવકારવાળી, જપતાં જીવન દે અજવાળી.

પોથી= આ છે પોથી, વાંચતા વંદતા જીવન થાય પાત્ર.

👉લેવા જેવું સંયમ. ત્યજવા જેવો સંસાર. પ્રાપ્ત કરવા જેવો મોક્ષ....

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🎋 પ્રભુનો અભિષેક 🎋

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૧) પરમાત્મા નો અભિષેક પ્રાયઃ ક્ષીર સમુદ્ર નો હોય છે.....પરંતુ આપણા ત્યાં જવા ના વિયોગ થી આપડે તેનો અભિષેક થતો નથી માટે આપડે ગાય ના દૂધ માં સાકર ; ઘી ( અલ્પ માત્રામાં ); દહી,પાણી - એમ પાંચ દ્રવ્ય ભેળવી ને અભિષેક કરવો

૨) પરમાત્મા નું જળ પૂજા માટે નું પાણી સચિત્ત હોવું જોઈએ. ઉકાળેલું પાણી ના વપરાય.
જળ પૂજા ને ઉંચુ સ્થાન આપવું !
કારણ દૂધ એ વિગઈ છે.જળ વિગઇ નથી. અને પરમપદ ને આપનારું છે.

૩) પરમાત્મા ના અભિષેક સમયે પ્રભુ ના મસ્તક પર થી જ અભિષેક અખંડ ધારાએ કરવો.
પરમાત્મા ને ભીના નથી કરવાના માટે બીજે બધે પ્રક્ષાલ ટાળવો.

૪) શું ભાવના ભાવવી ?
મારા જીવન માં ચરિત્ર ઉદય માં આવે

૫) અભિષેક વખતે દુહો મન માં બોલવા...

૬) અભિષેક ના દૂધ માં ઔષધી નાખી શકાય છે.
બહાર ના ઔષધી માં કેમિકલ યુક્ત હોય છે માટે પ્રસિદ્ધ જગ્યા ના જ વાપરવા.

૭) ઘરે પણ ઔષધી બની શકે છે.
ઈલાયચી, લવિંગ,કેસર, ખડી સાકર,કપૂર,કોરી ગુલાબ ની પાંદડી બધું મિકસર ના પીસી નાખવું અને પછી અભિષેક માં એક ચમચી નાખી ને વાપરવું....

૮) પરમાત્મા નો અભિષેક કરતી વખતે તેમનો જન્મ કલ્યાણક ધારવું....

જળ પૂજા નો દુહો મોટા ભાગ ના લોકો ખોટો
બોલે છે.
સચ્ચો દુહો -
જ્ઞાન કળશ ભરી હાથ માં સમતા રસ ભરપૂર શ્રી જીન ને નવરવતા કર્મ થાએ ચકચૂર
તેમાં ક્યાંય મારા શબ્દ બોલવાનો નથી....મારા માં સ્વાર્થ આવી જાય અને ચોપડી માં પણ નથી આપ્યું.

પ્રભુ નો અભિષેક સર્વ દુઃખ ને ક્ષય કરનારું છે.
માટે અષ્ટપ્રકારી પૂજા બને તો રોજ કરવી....ના બને તો અઠવાડિએ.....ના બને તો ૧૫ દિવસ માં એક વાર....ના બને તો મહિને એક વાર જરૂર થી કરવી.🎊

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