मेघकुमार मगध सम्राट राजा श्रेणिक व रानी धारिणी का पुत्र था| राज्य परिवार की परंपरा के अनुसार उसे बचपन में ही पुरुष की 72 कलाएँ सिखाई गई| जब शादी योग्य हुआ तो आठ राज कन्याओं के साथ उसकी शादी हो गई| एक दिन उसने प्रभु महावीर का त्याग, वैराग्य पूर्ण प्रवचन सुना तो उसके मन में दीक्षा लेने के भाव जाग गए| उसने अपने माता पिता से कहा, "आपने दीर्घकाल तक मेरा बड़े ही प्यार से पालन किया है, किन्तु में अब इस संसार के जन्म जरा के दुखों से ऊब चूका हूँ| मेरी भावना प्रभु महावीर के चरणों में संयम धर्म स्वीकारने की है|"
माता पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया, संसार के सुखों का लालच दिया, साधुचर्या के कष्ट बताए, पर मेघकुमार नहीं माना| उसने बड़ी लम्बी चर्चा अपने माता पिता से की|
माता पिता को समझ में आ गया की अब इसे रोकना व्यर्थ है, इस पर त्याग का रंग चढ़ चुका है| फिर माता पिता ने धूम धाम से उसका दीक्षा महोत्सव संपन्न करवाया|
मेघकुमार अब भगवन महावीर का शिष्य बन चूका था| प्रथम दिन था| दिन तो साधुचर्या की उपासना करते करते बीत गया| रात्रि आई| साधू जीवन समता और समानता का नाम है, वहाँ राजकुमार और दरिद्रकुमार में भेदभाव नहीं किया जाता| इस कारण उसे सोने के लिए दरवाजे के पास निचले स्थान का आसन मिला| उपाश्रय में अंधेरा था| रात्रि को अन्य मुनि अपनी शारीरिक ज़रूरतों के कारण बाहर आते तो अँधेरे के कारण हर एक के पाँव की टक्कर उसके आसन के साथ लग जाती इसी कारण से वह सो नहीं पा रहा था|
उसने सोचा, "मैं साधू बनकर फंस गया हूँ| जब मैं राजकुमार था तो सभी मेरा सम्मान करते थे| अब जब मैं गृहत्यागी हो गया हूँ तो कोई मेरा सम्मान नहीं करता| सब मुझे ठोकर मार रहे हैं| चलो रात्रि समाप्त होने दो, सुबह होते ही मैं प्रभु महावीर को कहकर वापस घर चला जाऊंगा|"
इस प्रकार उसके मन में विचारों की उथल पुथल मची हुई थी| सुबह हुई| सभी साधू साध्वी प्रभु महावीर के दर्शनों को पधारे| प्रभु महावीर ने मेघमुनि को देखते ही कहा, "मेघ! क्या तुम साधना के पथ से पीछे हटने का विचार कर रहे हो? युद्ध के मैदान में पँहुच कर वीर हमेशा आगे कदम बढाता है| तुम वीर हो, फिर भी कायर की तरह पीछे हटना चाहते हो| इस थोड़े से संकट से हार गए| लो सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिछले भव की कहानी सुनाता हूँ जिससे तुम्हें पता चले की तुमने पशुभव में भी कितनी धर्म आराधना थी जिसके प्रभाव से तुम्हें यह जीवन और इसके सुख मिले|"
मेघमुनी प्रभु महावीर के संबोधन से सावधान होकर अपने पुर्वभव की कथा सुनने लगा|
"पूर्वभव की बात है, विन्ध्याचल के सघन जंगलों में सुमेरुप्रभ नाम का एक सफ़ेद हाथी रहता था, वह अपने झुण्ड का राजा था| अपने विशाल परिवार का स्वामी था| एक बार उस जंगल में आग लगी| उस जंगल में दावानल के कारण ज्वालाएँ आकाश को चूमने लगी| पशु पक्षी सभी उस स्थान को छोड़ने लगे| सभी जानवर आग में जलने लगे| सुमेरुप्रभ भी अनेक हाथियों के साथ घायल हो गया|
कुछ दिनों बाद आग शांत हो गई| इस विनाश लीला को देख सुमेरुप्रभ चिंतित हो गया|
सुमेरुप्रभ अपना जीवनकाल पूर्ण कर दुसरे जन्म में भी हाथी बना| उसे अपने पूर्वभव की स्मृति थी| इस जन्म में भी आग द्वारा हनी नहीं हो यही सोचकर सुमेरुप्रभ ने नदी के किनारे एक विशाल मण्डप बनाया| लम्बी दुरी तक उसने पेड़ पौधे, झड झंखाड़ उखाड़ कर जंगल को बिलकुल साफ़ कर दिया| कहीं पर घास का एक तिनका भी नहीं छोड़ा| इस प्रकार निर्माण कर सुमेरुप्रभ आनंद के साथ रहने लगा|
एक समय की बात है| जंगल में फिर दावानल सुलग उठा| जंगल के सभी जीव जंतु प्राणों के भय से अपने वैर भुलाकर उस मण्डप में एकत्रित होने लगे| हाथी, सिंह, खरगोश, लोमड़ी सभी को अपने प्राण बचाने की चिंता थी| सुमेरुप्रभ भी वहाँ आ पँहुचा, पर उसका बनाया हुआ मण्डप अब पशु पक्षियों से भर चूका था| वह भी एक किनारे जाकर खड़ा हो गया| उसने किसी प्राणी को कोई कष्ट नहीं पंहुचाया|
जंगल के भयानक दावानल से वह स्थान पूर्ण रूप से सुरक्षित था|
खड़े खड़े अचानक सुमेरुप्रभ हाथी को खुजली होने लगी| उसने अपना आगे का पाँव खुजलाने के लिए उठाया, ज्यों ही वह अपना पाँव नीचे पुन: नीचे रखने लगा तो उसने देखा एक नन्हा सा खरगोश उसके पाँव वाले स्थान पर आकर बैठ गया और दावानल में मृत्यु के भय से थर थर काँप रहा है| कांपते हुए खरगोश को देखकर सुमेरुप्रभ के मन में दया आ गई, उसने करुणावश अपना पाँव ऊपर उठाए रखा, पैर नीचे नहीं रखा| खरगोश इस पाँव के नीचे वाले स्थान में शरण लिए हुए था और हाथी का पाँव अधर में लटक रहा था|
दो दिन तक जंगल जलता रहा| तीसरे दिन आग शांत हुई| सभी जानवर अपने अपने स्थानों पर चले गए| खरगोश का बच्चा भी लौट रहा था| सुमेरुप्रभ ने जब नीचे का स्थान खाली देखा तो उसने अपना पाँव सीधा जमीन पर रखना चाहा, पर पाँव जमीन पर नहीं टिका क्यों की वो अकड़ चूका था| अब हाथी ने जोर देकर रखना चाहा तो भरी शरीर के कारण संभल नहीं सका और भूमि पर गिर गया|
तीन दिन की भूख प्यास के कारण वह पुन: उठ नहीं सका| पर इस हाल में भी उसके मन में अपूर्व शांति थी, क्यों की उसने एक छोटे से जीव पे दया की थी|
प्रभु महावीर ने मेघ के पुर्वभव की साडी कहानी सुनाते हुए कहा, "पूर्वभव में खरगोश पर करुणा करने वाले हाथी तुम थे| पशु के भव में करुणा के कारण तुम्हें राज्य परिवार का सुख और वैभव मिला, और आज संयम मार्ग की इस मामूली सी बाधा से घबरा गए|"
प्रभु महावीर के उपदेश से मेघमुनि पुन: जागृत हो गए और अब संयम पथ पर पुन: बढ़ने लगे| लम्बे समय तक तप एवं साधना की जिसके परिणाम स्वरूप विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए|
माता पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया, संसार के सुखों का लालच दिया, साधुचर्या के कष्ट बताए, पर मेघकुमार नहीं माना| उसने बड़ी लम्बी चर्चा अपने माता पिता से की|
माता पिता को समझ में आ गया की अब इसे रोकना व्यर्थ है, इस पर त्याग का रंग चढ़ चुका है| फिर माता पिता ने धूम धाम से उसका दीक्षा महोत्सव संपन्न करवाया|
मेघकुमार अब भगवन महावीर का शिष्य बन चूका था| प्रथम दिन था| दिन तो साधुचर्या की उपासना करते करते बीत गया| रात्रि आई| साधू जीवन समता और समानता का नाम है, वहाँ राजकुमार और दरिद्रकुमार में भेदभाव नहीं किया जाता| इस कारण उसे सोने के लिए दरवाजे के पास निचले स्थान का आसन मिला| उपाश्रय में अंधेरा था| रात्रि को अन्य मुनि अपनी शारीरिक ज़रूरतों के कारण बाहर आते तो अँधेरे के कारण हर एक के पाँव की टक्कर उसके आसन के साथ लग जाती इसी कारण से वह सो नहीं पा रहा था|
उसने सोचा, "मैं साधू बनकर फंस गया हूँ| जब मैं राजकुमार था तो सभी मेरा सम्मान करते थे| अब जब मैं गृहत्यागी हो गया हूँ तो कोई मेरा सम्मान नहीं करता| सब मुझे ठोकर मार रहे हैं| चलो रात्रि समाप्त होने दो, सुबह होते ही मैं प्रभु महावीर को कहकर वापस घर चला जाऊंगा|"
इस प्रकार उसके मन में विचारों की उथल पुथल मची हुई थी| सुबह हुई| सभी साधू साध्वी प्रभु महावीर के दर्शनों को पधारे| प्रभु महावीर ने मेघमुनि को देखते ही कहा, "मेघ! क्या तुम साधना के पथ से पीछे हटने का विचार कर रहे हो? युद्ध के मैदान में पँहुच कर वीर हमेशा आगे कदम बढाता है| तुम वीर हो, फिर भी कायर की तरह पीछे हटना चाहते हो| इस थोड़े से संकट से हार गए| लो सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिछले भव की कहानी सुनाता हूँ जिससे तुम्हें पता चले की तुमने पशुभव में भी कितनी धर्म आराधना थी जिसके प्रभाव से तुम्हें यह जीवन और इसके सुख मिले|"
मेघमुनी प्रभु महावीर के संबोधन से सावधान होकर अपने पुर्वभव की कथा सुनने लगा|
"पूर्वभव की बात है, विन्ध्याचल के सघन जंगलों में सुमेरुप्रभ नाम का एक सफ़ेद हाथी रहता था, वह अपने झुण्ड का राजा था| अपने विशाल परिवार का स्वामी था| एक बार उस जंगल में आग लगी| उस जंगल में दावानल के कारण ज्वालाएँ आकाश को चूमने लगी| पशु पक्षी सभी उस स्थान को छोड़ने लगे| सभी जानवर आग में जलने लगे| सुमेरुप्रभ भी अनेक हाथियों के साथ घायल हो गया|
कुछ दिनों बाद आग शांत हो गई| इस विनाश लीला को देख सुमेरुप्रभ चिंतित हो गया|
सुमेरुप्रभ अपना जीवनकाल पूर्ण कर दुसरे जन्म में भी हाथी बना| उसे अपने पूर्वभव की स्मृति थी| इस जन्म में भी आग द्वारा हनी नहीं हो यही सोचकर सुमेरुप्रभ ने नदी के किनारे एक विशाल मण्डप बनाया| लम्बी दुरी तक उसने पेड़ पौधे, झड झंखाड़ उखाड़ कर जंगल को बिलकुल साफ़ कर दिया| कहीं पर घास का एक तिनका भी नहीं छोड़ा| इस प्रकार निर्माण कर सुमेरुप्रभ आनंद के साथ रहने लगा|
एक समय की बात है| जंगल में फिर दावानल सुलग उठा| जंगल के सभी जीव जंतु प्राणों के भय से अपने वैर भुलाकर उस मण्डप में एकत्रित होने लगे| हाथी, सिंह, खरगोश, लोमड़ी सभी को अपने प्राण बचाने की चिंता थी| सुमेरुप्रभ भी वहाँ आ पँहुचा, पर उसका बनाया हुआ मण्डप अब पशु पक्षियों से भर चूका था| वह भी एक किनारे जाकर खड़ा हो गया| उसने किसी प्राणी को कोई कष्ट नहीं पंहुचाया|
जंगल के भयानक दावानल से वह स्थान पूर्ण रूप से सुरक्षित था|
खड़े खड़े अचानक सुमेरुप्रभ हाथी को खुजली होने लगी| उसने अपना आगे का पाँव खुजलाने के लिए उठाया, ज्यों ही वह अपना पाँव नीचे पुन: नीचे रखने लगा तो उसने देखा एक नन्हा सा खरगोश उसके पाँव वाले स्थान पर आकर बैठ गया और दावानल में मृत्यु के भय से थर थर काँप रहा है| कांपते हुए खरगोश को देखकर सुमेरुप्रभ के मन में दया आ गई, उसने करुणावश अपना पाँव ऊपर उठाए रखा, पैर नीचे नहीं रखा| खरगोश इस पाँव के नीचे वाले स्थान में शरण लिए हुए था और हाथी का पाँव अधर में लटक रहा था|
दो दिन तक जंगल जलता रहा| तीसरे दिन आग शांत हुई| सभी जानवर अपने अपने स्थानों पर चले गए| खरगोश का बच्चा भी लौट रहा था| सुमेरुप्रभ ने जब नीचे का स्थान खाली देखा तो उसने अपना पाँव सीधा जमीन पर रखना चाहा, पर पाँव जमीन पर नहीं टिका क्यों की वो अकड़ चूका था| अब हाथी ने जोर देकर रखना चाहा तो भरी शरीर के कारण संभल नहीं सका और भूमि पर गिर गया|
तीन दिन की भूख प्यास के कारण वह पुन: उठ नहीं सका| पर इस हाल में भी उसके मन में अपूर्व शांति थी, क्यों की उसने एक छोटे से जीव पे दया की थी|
प्रभु महावीर ने मेघ के पुर्वभव की साडी कहानी सुनाते हुए कहा, "पूर्वभव में खरगोश पर करुणा करने वाले हाथी तुम थे| पशु के भव में करुणा के कारण तुम्हें राज्य परिवार का सुख और वैभव मिला, और आज संयम मार्ग की इस मामूली सी बाधा से घबरा गए|"
प्रभु महावीर के उपदेश से मेघमुनि पुन: जागृत हो गए और अब संयम पथ पर पुन: बढ़ने लगे| लम्बे समय तक तप एवं साधना की जिसके परिणाम स्वरूप विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए|
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