ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

मेघकुमार की कहानी

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मेघकुमार की कहानी
मेघकुमार मगध सम्राट राजा श्रेणिक व रानी धारिणी का पुत्र था| राज्य परिवार की परंपरा के अनुसार उसे बचपन में ही पुरुष की 72 कलाएँ सिखाई गई| जब शादी योग्य हुआ तो आठ राज कन्याओं के साथ उसकी शादी हो गई| एक दिन उसने प्रभु महावीर का त्याग, वैराग्य पूर्ण प्रवचन सुना तो उसके मन में दीक्षा लेने के भाव जाग गए| उसने अपने माता पिता से कहा, "आपने दीर्घकाल तक मेरा बड़े ही प्यार से पालन किया है, किन्तु में अब इस संसार के जन्म जरा के दुखों से ऊब चूका हूँ| मेरी भावना प्रभु महावीर के चरणों में संयम धर्म स्वीकारने की है|"

माता पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया, संसार के सुखों का लालच दिया, साधुचर्या के कष्ट बताए, पर मेघकुमार नहीं माना| उसने बड़ी लम्बी चर्चा अपने माता पिता से की|
माता पिता को समझ में आ गया की अब इसे रोकना व्यर्थ है, इस पर त्याग का रंग चढ़ चुका है| फिर माता पिता ने धूम धाम से उसका दीक्षा महोत्सव संपन्न करवाया|
मेघकुमार अब भगवन महावीर का शिष्य बन चूका था| प्रथम दिन था| दिन तो साधुचर्या की उपासना करते करते बीत गया| रात्रि आई| साधू जीवन समता और समानता का नाम है, वहाँ राजकुमार और दरिद्रकुमार में भेदभाव नहीं किया जाता| इस कारण उसे सोने के लिए दरवाजे के पास निचले स्थान का आसन मिला| उपाश्रय में अंधेरा था| रात्रि को अन्य मुनि अपनी शारीरिक ज़रूरतों के कारण बाहर आते तो अँधेरे के कारण हर एक के पाँव की टक्कर उसके आसन के साथ लग जाती इसी कारण से वह सो नहीं पा रहा था|
उसने सोचा, "मैं साधू बनकर फंस गया हूँ| जब मैं राजकुमार था तो सभी मेरा सम्मान करते थे| अब जब मैं गृहत्यागी हो गया हूँ तो कोई मेरा सम्मान नहीं करता| सब मुझे ठोकर मार रहे हैं| चलो रात्रि समाप्त होने दो, सुबह होते ही मैं प्रभु महावीर को कहकर वापस घर चला जाऊंगा|"
इस प्रकार उसके मन में विचारों की उथल पुथल मची हुई थी| सुबह हुई| सभी साधू साध्वी प्रभु महावीर के दर्शनों को पधारे| प्रभु महावीर ने मेघमुनि को देखते ही कहा, "मेघ! क्या तुम साधना के पथ से पीछे हटने का विचार कर रहे हो? युद्ध के मैदान में पँहुच कर वीर हमेशा आगे कदम बढाता है| तुम वीर हो, फिर भी कायर की तरह पीछे हटना चाहते हो| इस थोड़े से संकट से हार गए| लो सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिछले भव की कहानी सुनाता हूँ जिससे तुम्हें पता चले की तुमने पशुभव में भी कितनी धर्म आराधना थी जिसके प्रभाव से तुम्हें यह जीवन और इसके सुख मिले|"
मेघमुनी प्रभु महावीर के संबोधन से सावधान होकर अपने पुर्वभव की कथा सुनने लगा|
"पूर्वभव की बात है, विन्ध्याचल के सघन जंगलों में सुमेरुप्रभ नाम का एक सफ़ेद हाथी रहता था, वह अपने झुण्ड का राजा था| अपने विशाल परिवार का स्वामी था| एक बार उस जंगल में आग लगी| उस जंगल में दावानल के कारण ज्वालाएँ आकाश को चूमने लगी| पशु पक्षी सभी उस स्थान को छोड़ने लगे| सभी जानवर आग में जलने लगे| सुमेरुप्रभ भी अनेक हाथियों के साथ घायल हो गया|
कुछ दिनों बाद आग शांत हो गई| इस विनाश लीला को देख सुमेरुप्रभ चिंतित हो गया|
सुमेरुप्रभ अपना जीवनकाल पूर्ण कर दुसरे जन्म में भी हाथी बना| उसे अपने पूर्वभव की स्मृति थी| इस जन्म में भी आग द्वारा हनी नहीं हो यही सोचकर सुमेरुप्रभ ने नदी के किनारे एक विशाल मण्डप बनाया| लम्बी दुरी तक उसने पेड़ पौधे, झड झंखाड़ उखाड़ कर जंगल को बिलकुल साफ़ कर दिया| कहीं पर घास का एक तिनका भी नहीं छोड़ा| इस प्रकार निर्माण कर सुमेरुप्रभ आनंद के साथ रहने लगा|
एक समय की बात है| जंगल में फिर दावानल सुलग उठा| जंगल के सभी जीव जंतु प्राणों के भय से अपने वैर भुलाकर उस मण्डप में एकत्रित होने लगे| हाथी, सिंह, खरगोश, लोमड़ी सभी को अपने प्राण बचाने की चिंता थी| सुमेरुप्रभ भी वहाँ आ पँहुचा, पर उसका बनाया हुआ मण्डप अब पशु पक्षियों से भर चूका था| वह भी एक किनारे जाकर खड़ा हो गया| उसने किसी प्राणी को कोई कष्ट नहीं पंहुचाया|
जंगल के भयानक दावानल से वह स्थान पूर्ण रूप से सुरक्षित था|
खड़े खड़े अचानक सुमेरुप्रभ हाथी को खुजली होने लगी| उसने अपना आगे का पाँव खुजलाने के लिए उठाया, ज्यों ही वह अपना पाँव नीचे पुन: नीचे रखने लगा तो उसने देखा एक नन्हा सा खरगोश उसके पाँव वाले स्थान पर आकर बैठ गया और दावानल में मृत्यु के भय से थर थर काँप रहा है| कांपते हुए खरगोश को देखकर सुमेरुप्रभ के मन में दया आ गई, उसने करुणावश अपना पाँव ऊपर उठाए रखा, पैर नीचे नहीं रखा| खरगोश इस पाँव के नीचे वाले स्थान में शरण लिए हुए था और हाथी का पाँव अधर में लटक रहा था|
दो दिन तक जंगल जलता रहा| तीसरे दिन आग शांत हुई| सभी जानवर अपने अपने स्थानों पर चले गए| खरगोश का बच्चा भी लौट रहा था| सुमेरुप्रभ ने जब नीचे का स्थान खाली देखा तो उसने अपना पाँव सीधा जमीन पर रखना चाहा, पर पाँव जमीन पर नहीं टिका क्यों की वो अकड़ चूका था| अब हाथी ने जोर देकर रखना चाहा तो भरी शरीर के कारण संभल नहीं सका और भूमि पर गिर गया|
तीन दिन की भूख प्यास के कारण वह पुन: उठ नहीं सका| पर इस हाल में भी उसके मन में अपूर्व शांति थी, क्यों की उसने एक छोटे से जीव पे दया की थी|
प्रभु महावीर ने मेघ के पुर्वभव की साडी कहानी सुनाते हुए कहा, "पूर्वभव में खरगोश पर करुणा करने वाले हाथी तुम थे| पशु के भव में करुणा के कारण तुम्हें राज्य परिवार का सुख और वैभव मिला, और आज संयम मार्ग की इस मामूली सी बाधा से घबरा गए|"
प्रभु महावीर के उपदेश से मेघमुनि पुन: जागृत हो गए और अब संयम पथ पर पुन: बढ़ने लगे| लम्बे समय तक तप एवं साधना की जिसके परिणाम स्वरूप विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए|

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ભક્તિ કરતાં છુટે મારા પ્રાણ-Vasupujaya Swami


ભક્તિ કરતાં છુટે મારા પ્રાણ

ભક્તિ કરતા છૂટે મારા પ્રાણ પ્રભુ એવું માગુ છું

રહે જન્મો જન્મ તારો સાથ પ્રભુ એવું માગુ છું 

તારું મુખડું મનોહર જોયા કરૂ, રાત દહાડો ભજન તારૂ બોલ્યા છે

રહે અંત સમય તારો સાથ પ્રભુ એવું માગુ છું 

મારી આશ નિરાશા કરશો નહીં., મારા અવગુણ હૈયામાં ધરશો નહી

શ્વાસે શ્વાસે રટુ તારૂ નામ પ્રભુ એવું માગુ છું 

મારા પાપને તાપ સમાવી લેજો તારા ભક્તો ને દાસ બનાવી લેજો,

દેજો આવીને દર્શનદાન પ્રભુ એવું માગુ છું 

ભક્તિ કરતા છૂટે મારા પ્રાણ પ્રભુ એવું માગુ છું
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Jakhora Teerth

Shree Shantinath Bhagwan Jain Shwetamber Teerth
Address
Jakhora, Post : Sumerpur, District : Pali 306126, Rajasthan

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JINALAY MAI SATH PRAKAR KI SHUDHI

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1.ANG SHUDHI:-manaveeya kaya malmootr, pasieena, thuk, Las, balgam, aur dhool aadi se sada Malin hoti rahati hai! Ath jayana poorvak snaan vidhi se shreer shadhi karne ke baad hi paramatma ka sprsh karna hi angshudhi hai (yadi shareer mai ghavadi ho usme satat marvadi pravahit ho raha ho to jinpuja nahi karni chahiye)!

2.vastrshudhi:- vastr aur vicharon ka praghad samband hai! Isliye kaha jata hai, Malin vesh bhi malinata utpan karte hai! Usee prakar man ki shudhi mai nirvikar vesh bhi karan bante hai Ath puja ke vastr shastro mai bataye anusar ujjval aur shudh vastr prayog mai lane chahiye! Upyog ke baad pratideen unkee safai aavshyk hai! 

3.MANASHUDHI:- paramatma ki puja karte hoye man ko shudh rakna chahiye! Iskeliye man ko Malin karnevale kashyo ke parinamo se, durvicharo se dur rahana chahiye! Sabhi samagreeya shudh rahe kintu man mai shudhta ke bhav na ho tho sab kuch vyrth ho jayega!

4. BHOOMISHUDHI:- JIN MANDIR jate samay marg mai evm Jin mandir mai pravesh ke pashchath tatha chityvandan aadi vidhi karne ke purv Jin mandir mai rahe kachre aadi ko dur karna BHOOMISHUDHI hai!

5. UPKARANSHUDHI:- paramatma ki puja mai prayukt kiye Jane vale sare upkaran ka nirman uchhshreni ki dhatuo se karna jaise svrna, rajat, tambha aadhi! Usi prakar inhe upyog mai lenese purv achi tarh se saf kar lena chahiye! Paramatma ke angloochhne bhi komal, utahm vastro se bane hone Chahiye! 

6. DRAVY Shudhi:- paramatma ki puja mai upyog karne yogy samagree ke kram mai tatha abhishek aadhi utsav mai nyayoparjit dhan ka upyog karna chahiye! 

7.VIDHI SHUDHI :- paramatma ki puja tatha chityvandan aadhi ki shastrokt vidhipurvak shudhbhavo ke trikarn 

yog se karni chahiye! Pramad avidhi, aashatana aadhi dosho ko Kahi bhi pravesh karne nahi Dene chahiye!
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आज जेठ वद ९ श्री नमिनाथ परमात्मा का दीक्षा कल्याणक है।

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NAMINATH DADA
आज जेठ वद ९ श्री नमिनाथ परमात्मा का दीक्षा कल्याणक है।

Mithila Mandan,
Mata Vapra Rani Nandan,
Pita Vijay Raja Kul Bhushan,
Neel Kamal Lanchan,
Suwarna Warnan,
21 ma Bhagwant,

Shri Shri Shri
NAMI NATH Bhagwan nu
Diksha Kalyaanak
Jethh Vad-9 na che.

Bolo Bolo
Shri NamiNath Bhagwan ki
Jay Jay Jay.


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भक्तामर महातीर्थ मैं आदिनाथ दादा

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श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की जय

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Shri Chandra Prabhu bhagwaan

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कहानी "एक वेश्या और एक संत की

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कहानी "एक वेश्या और एक संत की"....... एक बहुत ही मनोरम स्थान पर एक बहुत सुंदर वेश्या रहती थी ,और उसके कोठे के ठीक सामने एक संन्यासी साधु का आश्रम था ,सन्यासी हमेशा विचारमग्न रहता था ,कि मैं रात-दिन प्रभु की भक्ति करता हूं उपवास के साथ रहता हूं ,व्रत और नियम का पालन करता हूं लेकिन, सामने वह सुंदर वेश्या रात-दिन नाच गाने ,में मशगूल रहती है ,उसकी जिंदगी कितनी अच्छी हैं, कई लोग आते हैं उसका भरण पोषण कर जाते हैं ,और आनंद का ,आनंद रहता है ,लेकिन मैं ,मैंने पूरा जीवन उपवास व्रत ,और नियम में ही निकाल दिया, एक दिन समय का चक्र घुमा और उस सन्यासी साधू की मौत हो गई ,उस साधु के अंतिम संस्कार में कई लोग आए लाखों लोगों की भीड़ उमड़ गई, सिद्ध सन्यासी का देहावसान हो गया है ,देवलोक गमन हो गया है उन्हें अंतिम संस्कार देना है, उन्हें समाधि देना है, लाखों लोगों ने एकत्रित होकर के उनका अंतिम संस्कार किया, लेकिन जब साधु महात्मा की आत्मा यमलोक में पहुंची, तो उन्हें नर्क का आदेश दिया गया ,यह देख साधु महात्मा अत्यंत विचलित हुए उनकी आत्मा अत्यंत विचलित हुई, और यमराज से प्रश्न करने लगी कि हे यमराज मैं तो, इतना बड़ा सन्यासी था ,लाखों लोगों ने मेरा अंतिम संस्कार किया, और मुझे मुखाग्नि दी थी ,उसके पश्चात मैं आपके लोक में आया हूं, मुझे मोक्ष मिलना चाहिए यमराज ने भगवान चित्रगुप्त को बुलाया, और कहा इस साधु के जीवन का लेखा जोखा देखिए चित्रगुप्त जी ,तब भगवान चित्रगुप्त जी ने कहा प्रभु आप थोड़ा इंतजार कीजिए निर्णय की घड़ी बहुत करीब आने वाली है ,और कुछ समय में उस सुंदर वेश्या का भी देहावसान हो गया और उस क्षेत्र में लोग आपस में बात करने लगे अरे यह तो बहुत ही बेकार किस्म की स्त्री थी वेश्या थी ,इसके अर्थी में जाना ठीक नहीं रहेगा ,तब कुछ लोग कहने लगे अरे ठीक है वह जिंदा थी तब तक वेश्या थी अब तो यह मृत शरीर है ,और हमारे शास्त्रों में लिखा है ,कि किसी भी मृत व्यक्ति के अंतिम संस्कार में जाना बहुत ही कल्याण का कार्य होता है, चलो हम इसकी अच्छे से अंतेष्टि कर देते हैं ,और कुछ 4 लोगों ने मिलकर उसके अंतेष्टि की और उसके पश्चात उसकी आत्मा यमलोक में पहुंची तब भगवान चित्रगुप्त जी ने उन दोनों का लेखा जोखा निकाला और यमराज के समक्ष कहां की जो स्त्री अभी-अभी यमलोक में आई है यह मोक्ष की प्राप्ति का हक रखती है, तब संत बोला नहीं नहीं यह कैसे मोक्ष पा सकती है ,यह तो मेरी कुटिया के सामने रहने वाली एक वैश्या थी ,तब भगवान चित्रगुप्त जी ने कहा हे मुर्ख संत तुम संत के लिबास में रहते हुए भी अपनी आत्मा को संत कि नहीं बना सके ,और स्वयं को ईश्वर से नहीं जोड़ सके लेकिन यह वेश्या रहते हुए भी भगवान की भक्ति में लीन रहती थी ,सदा तुम्हारे यहां होने वाले यज्ञ हवन पूजन और कीर्तन में अपना मन लगा लेती थी ,और तुम संत की कुटिया में रहते हुए भी वेश्या के ऐशो आराम की ओर ध्यान दिया करते थे, इसलिए तुम्हारी आत्मा प्रभु में न लगने के कारण तुम नर्क जीवन के भागी हो ,और यह एक वैश्यालय में रहते हुए भी प्रभु का ,ईश्वर का सदैव मनन किया करती थी इसलिए यह मोक्ष को प्राप्त करेगी, और यही तुम्हारा दंड है, तब यमराज ने भी प्रसन्न होकर उस वेश्या को आशीर्वाद दिया और सेवकों से कहा इसे मोक्ष की ओर अग्रसर करो और इस संत को नर्क में डाल दो ,इसलिए कहा गया है ,कि चित् को हमेशा स्थिर रखो जीवन को हमेशा खुला रखो और इस दुनिया में खुले मन के साथ जियो जिस प्रकार से अंदर हो उसी प्रकार से बाहर रहो ,तो इस लोक में भी मोक्ष पा ओगे ,और उस लोक में भी मोक्ष पाओगे.... बोलती कलम से....
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त्रिशला नन्दन वीर की – जय बोलो महावीर की

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*पानी की बूँद और कठोर पत्थर* *(सफलता का रहस्य)*- Shree Sahastrafana Parasnath Bhagwan

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*पानी की बूँद और कठोर पत्थर*
*(सफलता का रहस्य)*

एक नल में से पानी की एक बूँद हमेशा नीचे जड़े हुए पत्थर पर टपकती रहती । पापी की बूँद नीचे पत्थर पर टपकते ही चारों तरफ बिखर जाती, तथा सूर्य की गर्मी और हवा के प्रभाव से तुरन्त ही सूख जाती । यह घटना प्रतिदिन सतत चलती रहती ।

एक दिन पत्थर ने पानी की बूँद से पूछा - "अरे ओ मूर्ख जलबिन्दु ! किसलिये तू रोज हमेशा टपकती रहती है ? बेकार में क्यों अपनी शक्ति बर्बाद करती है ? तेरे टपकने से मुझे तो कुछ भी नुकसान होता नहीं है, बल्कि उल्टे तू ही बिखरकर सूख जाती है, तेरा ही नाश हो जाता है ।"

पहले तो जलबिन्दु ने नम्रता से पत्थर को कहा - "भाई ! मैंने निश्चित किया है कि मुझे तेरे अंग में एक छेद करना है और मैं अपने ध्येय को सिद्ध करने के लिए ही नियमित रूप से टपकती रहती हूँ ।"

नन्हीं कमजोर दिखने वाली जलबिन्दु की बात सुनकर पहले तो कठोर पत्थर अभिमानपूर्वक जोर से अट्ठाहास करके हँसा और उपहास करते हुए बोला - "अरे ! तुझमें शक्ति ही कहाँ है, जो तू मेरे कठोर शरीर पर छेद कर सके ? मेरे कठोर शरीर के साथ टकराकर बेकार में तू अपनी शक्ति का नाश कर रही है । तेरे समान हल्की-फुल्की बिन्दु क्या मेरे वज्र शरीर में छेद कर सकती है ? यदि तू अपना भला चाहती है तो ऐसी मूर्खता का काम छोड़ दे ।"

तब जलबिन्दु कहने लगी - "ऐसा कैसे बन सकता है ? मैंने जो कार्य अपने हाथ में लिया है, उसे मुश्किलों को देखकर छोड़ दूँ, तब तो मैं कायर कहलाऊँगी । मैंने तो निश्चित कर ही लिया है कि या तो कार्य सिद्ध करूँगी या कार्य सिद्धि के लिए अपनी जान दे दूँगी ।"

पत्थर जलबिन्दु की बात सुनकर अभिमानपूर्वक पुनः हँसा और फिर तिरस्कार के स्वर में बोला - "यदि तुझे मरना ही है तो मर । मैं क्या कर सकता हूँ ।"

यहाँ जलबिन्दु ने भी पत्थर के तिरस्कार या उपहास पर ध्यान नहीं देते हुए अपने टपकने के कार्य को चालू रखा ।

समय बीतता गया, जलबिन्दु ने अपना टपकने का काम जारी रखा । एक दिन पत्थर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उसने देखा कि उसके वज्रशरीर की छाती पर बिन्दु ने एक छेद कर ही दिया है । पत्थर का अभिमान रफूचक्कर हो गया और तब उसने नम्रता के साथ जलबिन्दु से उसके कार्य सफलता का रहस्य पूछा । उस समय जलबिन्दु ने पत्थर को यह जवाब दिया ।

"भाई ! इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ भी नहीं है । किसी भी ध्येय को सिद्ध करने के लिए जरूरत है - एकाग्रता और आत्मविश्वास की । भय को स्वीकार किये बिना, असफलताओं की शंकाओं से डरे बिना, जो ध्येय-सिद्धी के लिए एकाग्रचित्त होकर आत्मविश्वास पूर्वक कार्य करता है, वह कठिन से कठिन कार्य में भी सफलता पा सकता है ।"

उस दिन पत्थर को सफलता का असली रहस्य जानने को मिला । एकाग्रता और आत्मविश्वास के बल से कठिनतम कार्य भी सिद्ध हो सकता है । सफलता की यह कुंजी उसके ह्रदय पर टंकोत्कीर्ण हो गई ।

*शिक्षा*- *जलबिन्दु की सफलता का रहस्य बताने वाली इस बोधकथा के द्वारा जिज्ञासु साधर्मी भाई-बहन आत्मविश्वास और एकाग्रचित्त परिणाम से अपनी आत्मसाधना के ध्येय में नियमितरूप से आगे बढ़ो....सफलता जरूर मिलेगी । चैतन्यरस क बिन्दुओं के सतत अभ्यास से मोह का कठोरतम पत्थर भी छिन्न-भिन्न हो जायेगा ।*

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511 PRATIMA PRATISTHA AT BAKROL............. BIGGEST EVER....

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अति सुंदर जिन प्रतिमा - कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश

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Jin Darshan

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रांतेज तीर्थाधिपति नेमिनाथ दादा.

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गिरनार के नेमिनाथ दादा जैसे ही प्राचिन एवं हाजराहजूर रांतेज तीर्थ के नेमिनाथ दादा 

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श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान्, तगड़ी तीर्थ

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Shree amijara parasnath bhagwan ki jai...... Ye pratima 1100 saal purani hai.

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PANCHASAR PARASNATH BHAGWAN(PATAN TIRTH)

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बारह देवलोको में कितने जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ है :-

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बारह देवलोको में कितने जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमाएँ है :-

देवलोक जिनमंदिर जिन प्रतिमा पहला देवलोक :-बत्तीस लाख सत्तावन करोड सात लाख
दूसरा देवलोक :-अट्ठावीस लाख पचास करोड चालीस लाख
तीसरा देवलोक :-बारह लाख इक्किस करोड साठ लाख 
चौथा देवलोक :-आठ लाख चौदह करोड चालीस लाख
पांचवां देवलोक :-चार लाख सात करोड बीस लाख
छट्ठा देवलोक :-पचास हजार निब्बे लाख
सातवां देवलोक :-चालीस हजार बहत्तर लाख
आठवां देवलोक :-छह हजार एक लाख साठ हजार
नौवां-दसवां देवलोक :-चार सौ बहत्तर हजार
ग्यारहवां-बारहवां देवलोक :- तीन सौ चौपन हजार जिन प्रतिमा है.

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श्री धर्मनाथ भगवान जयनगर बेंगलोर .

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तीर्थकर नाम :- श्री धर्मनाथ भगवान
माता का नाम :- माता सुव्रता देवी
पिता का नाम :- राजा भानु
जन्म कुल :- इक्ष्वाकुवंश
च्यवन तिथी :- वैशाख शुक्ला 7
च्यवन व जन्म स्थान :- रत्नपुरी
जन्म तिथी :- माघ शुक्ला 3
जन्म नक्षत्र :- पुष्य
लक्षण :- बज्र
शरीर प्रमाण :- 45 धनुष
शरीर वर्ण :- सुवर्ण
विवाहित/अविवाहित :- विवाहित
दीक्षा स्थान :- रत्नपुरी
दीक्षा तिथी :- माघ शुक्ला 13
दीक्षा पश्चात प्रथम पारणा :- 2 दिन बाद खीर से
छद्मस्त काल :- 2 वर्ष
केवलज्ञान स्थान :- रत्नपुरी
केवलज्ञान तिथी :- पौष पूर्णिमा
वृक्ष जिसके नीचे केवलज्ञान हुआ :- दधिपर्ण वृक्ष
गणधरों की संख्या :- 43
प्रथम गणधर :- अरिष्ट स्वामी
प्रथम आर्य :- आर्य शिवा
यक्ष का नाम :- किन्नर
यक्षिणी का नाम :- कंदर्पा देवी
मोक्ष तिथी :- ज्येष्ठ शुक्ला 5
प्रभु के संग को प्राप्त साधु :- 108 साधु
मोक्ष स्थान :- सम्मेतशिखर

તીર્થંકર શ્રી ધર્મનાથ ભગવાન

શ્રીॐ હ્રીમ શ્રી ધર્મનાથ પરમેષ્ઠી ને નમઃ

શ્રી ધર્મનાથ ભગવાનનું ચૈત્યવંદન

વૈશાખ સુદી સાતમે, ચવ્યા શ્રી ધર્મનાથ;
વિજય થકી મહા માસની, સુદી ત્રીજે સુખજાત.
તેરસ માહે ઊજળી, લિયે સંજમ ભાર;
પોષી પૂનમે કેવલી, બહુ ગુણના ભંડાર.
જેઠી પાંચમ ઊજળી એ, શિવપદ પામ્યા જેહ;
નય કહે એ જિન પ્રણમતાં, વાઘે ધર્મ સ્નેહ.

1) સમ્યક્ત્વ પામ્યા પછીના ભવ -ત્રણ.
(2) જન્મ અને દિક્ષા સ્થળ -રત્નપુર નગરમાં.
(3) તીર્થંકર નામકર્મ- દઢરથના ભવમાં.
(4) દેવલોકનો અંતિમ ભવ -વિજય વિમાન.
(5) ચ્યવન કલ્યાણક -વૈશાખસુદ-૭ પુષ્ય નક્ષત્રમાં.
(6) માતાનું નામ- સુવ્રતાદેવી અને પિતાનું નામ-ભાનુરાજા.
(7) વંશ- ઇક્ષ્વાકુવંશ અને ગોત્ર કાશ્યપ.
(8) ગર્ભવાસ -આઠ માસ અને છવ્વીસ દિવસ.
(9) લંછન - વજ્ર અને વર્ણ -સુવર્ણ.
(10) જન્મ કલ્યાણક - મહાસુદ-૩ , પુષ્ય નક્ષત્રમાં.
(11) શરીર પ્રમાણ -૪૫ ધનુષ્ય.
(12) દિક્ષા કલ્યાણક - મહાસુદ-૧૩ પુષ્ય નક્ષત્રમાં.
(13) કેટલા જણ સાથે દિક્ષા -૧૦૦૦ રાજકુમાર સાથે.
(14) દિક્ષાશીબીકા -નાગદત્તા અને દિક્ષાતપ -છઠ્ઠ.
(15) પ્રથમ પારણું - સોમનસપુર માં ધનસિંહે ક્ષીરથી પારણું કરાવ્યું.
(16) છદ્મસ્થા અવસ્થા -બે વર્ષ.
(17) કેવલજ્ઞાન કલ્યાણક- છઠ્ઠતપ,દધિપર્ણ વ્રુક્ષની નીચે રત્નપુરીમાં પોષસુદ-૧૫ પુષ્ય નક્ષત્રમાં થયું.
(18) શાશનદેવ- કિન્નરયક્ષ અને શાશન દેવી-કંદર્પા દેવી.
(19) ચૈત્ય વ્રુક્ષની ઉંચાઈ-૫૪૦ ધનુષ્ય.
(20)પ્રથમ દેશનાનો વિષય - મોક્ષનો ઉપાય અને કષાયનું સ્વરૂપ.
(21) સાધુ - ૬૪૦૦૦ અને સાધ્વી -આર્યશિવા આદિ-૬૨૪૦૦.
(22) શ્રાવક-૨૦૪૦૦૦ અને શ્રાવિકા -૪૧૩૦૦૦.
(23) કેવળજ્ઞાની-૪૫૦૦ મન:પર્યાવજ્ઞાની-૪૫૦૦ અને અવધિજ્ઞાની-૩૬૦૦.
(24) ચૌદપૂર્વધર-૯૦૦ અને વૈક્રિયલબ્ધિઘર-૭૦૦૦ તથા વાદી-૨૮૦૦.
(25) આયુષ્ય-૧૦ લાખ વરસ.
(26) નિર્વાણકલ્યાણક-જેઠ-સુદ-૫ પુષ્ય નક્ષત્રમાં.
(27) મોક્ષ - સમ્મેતશિખર,મોક્ષતપ - માસક્ષમન અને મોક્ષાસન-કાર્યોત્સર્ગાસન.
(28) મોક્ષ સાથે -૧૦૮ સાધુ.
(29) ગણધર- અરિષ્ટ આદિ-૪૩.
(30) શ્રી શાંતિનાથ પ્રભુ નું અંતર - પોણો પલ્યોપમ ન્યૂન ત્રણ સાગરોપમ.

ધર્મ જિનેસર ગાઉં રંગશું, ભંગ મ પડશો હો પ્રી ત જિનેસર
બીજો મન મંદિર આણું નહીં, એ અમ કુલવટ રીત... જિનેસર, ધર્મ...૧
ધરમ ધરમ કરતો જગ સુ હિરે, ધરમ ન જાણે હો મર્મ, જિ...;
ધરમ જિનેસર ચરન ગ્રહ્યા પછી, કોઈ ન બામ્ધે હો કર્મ... જિનેસર, ધર્મ...૨
પ્રવચન અમ્જન જો સદ્ગુરુ કરે, દેખે પરમ નિધાન, જિ...;
હ્રદય નયણ નિહાળે જગધણી મહિમા મેરુ સમાન... જિનેસર, ધર્મ...૩
દોડત દોડત દોડત દોડિયો, જેતી મનની રે દોડ, જિ...;
પ્રેત પ્રતીત વિચારો ઢૂંકડી, ગુરુગમ લેજો રે જોડ... જિનેસર, ધર્મ...૪
એક પખી કેમ પ્રીતિ વરે પડે[૧], ઉભય મિલ્યા હુએ સંધિ, જિ...;
હું રાગી હું માંહે ફંદિયો, તું નીરાગી નિરબંધ... જિનેસર, ધર્મ...૫
પરમનિધાન પ્રગટ મુખ આગળે, જગત ઉલ્લંઘી હો જાય, જિ...;
જ્યોત વિના જુઓ જગદીશની, અંધો અંધ પલાય... જિનેસર, ધર્મ...૬
નિર્મલ ગુણમણિ રોહણ ભૂધરા, મુનિજન માનસ હંસ, જિ...;
ધન્ય તે નગરી ધન્ય વેળા ઘડી, માતપિતા કુળકંશ... જિનેસર, ધર્મ...૭
મન મધુકર વર કરજોડી કહે, પદકજ[૨] નિકટ નિવાસ, જિ...;
ઘનહામી આનંદધન સાંભળો, એ સેવક અરદાસ... જિનેસર, ધર્મ...૮

Bhagvan Dharmnath dev: was born in Ratnapur, on the third day of the bright half of the month of Magh . His father name was King Bhanu and Mother name was Suvrata Devi. After long span of life time, he took diksha on the 13th day of the bright half of the month of Magh along with 1000 other men's.
After two years of diksha and worldly life abandonment Lord Dharmnath attained (kevalgyan ) salvation on the 15th day of the bright half of the month of Paush and constellation of Pushpa.
On the 5th day of the bright half of the month of Jaisthaya, Bhagwan Dharmnath, along with other 108 saints was liberated and attained nirvana on Sammet Shikhar (mountain).
Bhagwan Dharmnath lived for 10 lakh years of which he spent 2.5 lakh years as an ascetics and two years of Meditation and Spiritual Practices (sahdana/tap).
It is believed that Dharmnath prabhu was 45 measure/unit of bow(at that time unit of measurement was bow i.e. bow of bow & arrow) in height.
Previous life
The being that was to become Bhagavan Dharmnath was king Dridhrath of Bhaddilpur in Mahavideh area, in its earlier incarnation. Although he had enormous wealth and a large kingdom, he led a detached and pious life like a lotus in a pond. Even great saints praised him as the embodiment of religion. During the later part of his life king Dridhrath became an ascetic and as a result of his unblemished character and sincere spiritual practices he earned the Tirthankar-nam-and-gotra-karma. Completing his age he reincarnated as a god in the Vaijayant dimension.
Life as a Tirthankara
This being then descended into the womb of queen Suvrata, wife of king Bhanuraja of Ratnapur. During the pregnancy the queen devoted all her time in religious activities. Even the king and all other members of the family were inclined to devote maximum time to various religious activities like charity, righteousness, penances, studies etc. On the third day of the bright half of the month of Magh a son was born to the queen. Due to the religious influence during the pregnancy period, the king gave him the name Dharmnath. In due course he became young, was married and then ascended the throne. He ruled successfully for a long period. One day he terminated all worldly attachments and became and ascetic. After two years of spiritual practices he became omniscient. His first religious discourse was attended by the fifth Vasudev Purush Simha and Sudarshan Baldev. In his first discourse he mainly dealt with the subject of form and ill effects of passions. A large audience was benefited by this eloquent discourse. At last he went to Sammetshikhar and got Nirvana. Bhagwan Dharmnath lived for 10 lakh years of which he spent 2.5 lakh years as an ascetics and two years of Meditation and Spiritual Practices (sahdana/tap).
It is believed that Dharmnath prabhu was 45 measure/unit of bow(at that time unit of measurement was bow i.e. bow of bow & arrow) in height.


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नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवान

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नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवान
यह प्रतिमा लगभग ११०० वर्षो से पूर्व की होने की अनुमान है | इस प्रतिमा का प्रभु पार्श्वनाथ के जीवित काल में प्रभु के अधिष्ठयाक श्री धरणेन्द्र देव द्वारा निर्मित होने की भी मानयता है|
श्री पार्श्वनाथ के देह प्रमान नव हाथ ऊँची (१३.५ फुट) व हरित वर्ण में मर्कतमनीसी है |आजू बाजू कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग १३५ सें. मी. ऊँची श्री शांतिनाथ भगवान् व श्री महावीर भगवान की प्रतिमाए है |
इस मंदिर की प्रतिष्ठा वैशाख सूद ६ वि.सं. २०३७ में संपन्न हुई|
विद्धानो के मतानुसार यह प्रतिमा देवनिर्मित है| अहिछत्रा नगरी में उसकी स्थापना की गई| वहां सुरक्षा का अभाव होने पर इस प्रतिमा को पारस नगर में स्थापित किया गया|
संतान प्राप्ति की लिए दुखी बने अजितसेन राजा और पद्मावती रानी को इस प्रतिमा की प्राप्ति हुई| एक भव्य जिनालय का निर्माण कराकर इस प्रतिमा जी की नागेन्द्र गच्छ के जैनाचार्य द्वारा प्रतिष्ठा कराई गई| प्रभु प्रतिमा की उपासना के प्रभाव से राजा को संतान की प्राप्ति हुई|
कालक्रम से यह मंदिर जीर्ण हुआ| वि.सं. १६२४ में नागेन्द्रगच्छ के जैनाचार्य श्रीअभयदेवसूरी के उपदेश से मंदिर का जिणोरद्वार हुआ| धीरे-धीरे यह पारस नगर “पारस नागेश्वर” के नाम से प्रख्यात हुआ|
શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ

પ્રથમ નજરે પ્રતિમા દર્શન

ઉપાસકના દિલના વિષાદ અને વાસનનું હરણ કરતા નીલ વર્ણના શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથજીને નજરે નીરખતા 2800 વર્ષના ભૂતકાળને ભેદીને જાણે સાક્ષાત્ વિચરતા પ્રભુ પાર્શ્વનાથજીના ચરણોમાં આવીને બેઠા હોય તેવી સુખદ ભ્રાન્તિની અનુભૂતિથી દર્શનાર્થીનું દિલ ડોલી જાય છે. કારણકે આ પ્રતિમાજી પ્રભુજીના મૂળ નીલ વર્ણને જ પરિધાન કરે છે. પ્રભુજીની મૂળ 9 હાથ ( 131/2 ફૂટ)ની અવગાહનાને ધારણ કરે છે. અને કાયોત્સર્ગ મુદ્રાએ ઊર્ધ્વસ્થિત છે. પ્રતિમાજીમાં પથરાયેલો અપાર કલા વૈભવ આંખોને અચંબો પમાડે છે અને પ્રભુજીનું સુમનોહર સૌંદર્ય નયનોને નચાવે છે. આ સૌમ્યરસના મહાસાગરમાં મહાલવાનું સૌભાગ્ય તો ત્યાં પ્રત્યક્ષ પહોંચીને જ અનુભવાય!
અતીતના ઊંડાણમાં એક ડૂબકી

શોક અને વિષાદ ઘેરા હૃદયાંગણમાં પણ સુખદ ઊર્મિઓના ઘૂઘવાટ કરતા મહાસાગરનું સર્જન કરી દેતા આ પ્રતિમાજીની પ્રાચીનતાને પિછાણવા ઘડીભર પ્રેક્ષક મટીને સંશોધક બની પ્રતિમાજીને નીરખ્યા કરીએ તો મૂર્તિનો ઘણો ઈતિહાસ અનુમાનના આંગણે આવીને ઊભો રહી જાય છે. 
જેવો પ્રભુ પાર્શ્વનાથજીનો મૂળ વર્ણ તેવો જ આ પ્રતિમાજીનો વર્ણ. જેટલી પ્રભુ પાર્શ્વનાથજીની ઊંચાઈ તેટલી જ આ પ્રતિમાજીની ઊંચાઈ. જેવા સપ્રમાણ સૌંદર્યવાન્ અને સૌષ્ઠવયુક્ત પ્રભુજીના અવયવો તેવા જ આ પ્રતિમાજીનાં અંગો. જેવી મોહક અને મનોહર પ્રભુજીની મુખમુદ્રા તેવી જ મોહકતા આ પ્રતિમાજીની મુદ્રામાં , મૂળ પ્રભુજી અને પ્રતિમાજી વચ્ચેનું આવું અદ્ભુત સાદૃશ્ય પ્રભુજીના કોઈ પ્રત્યક્ષ દૃષ્ટા વિના કોણ ઘડી શકે ? આ પ્ર ü ા આ પ્રતિમાજીને પ્રભુ પાર્શ્વનાથના વખતની હોવાનું અનુમાન કરાવે છે. પાદપીઠમાં રહેલા અષ્ટમાંગલિકાદિ ચિહ્નો ઉપરોક્ત અનુમાનને ટેકો આપે છે. શિલ્પજ્ઞોની પરીક્ષામાં પણ આ પ્રતિમાજીનો પથ્થર 2000 વર્ષથી વધુ પ્રાચીન હોવાનું પુરવાર થાય છે. 
દંતકથા કહે છે કે આ પ્રતિમાજી મૂળ મરકત મણિનાં હતાં. પણ રત્નની આ પ્રતિમા પર પડતા કાળના પ્રભાવે અનેક ધૂતોની દુષ્ટ નજર પડી. આ રત્નમય બિંબને ખૂંચવી લેવાના અનેકોએ પ્રયાસ કર્યા. પણ અધિષ્ઠાયક દેવે તે સર્વેને પરાસ્ત કર્યા. ત્યારબાદ એક જૈનાચાર્યે પોતાના તપોબળથી ધરણેદ્ર દેવને પ્રત્યક્ષ કર્યો અને રત્નમય બિંબને પથ્થરમય બનાવવા નિવેદન કર્યું અને દેવે પણ તે મુજબ કર્ય઼ું. 
વિદ્વાનોના મતે આ પ્રતિમાજી દેવનિર્મિત છે અને મૂળ અહિચ્છત્રા નગરીમાં તે સ્થાપિત કરાયેલી. પણ ત્યાં સુરક્ષા મુશ્કેલ જણાતાં દૈવી તાકાતથી આ પ્રતિમાજીની પારસ નગરમાં પધરામણી થઈ , સંતાનપ્રાપ્તિની ]ંખનામાં ]ારતાં અહીંનાં અજિતસેન રાજા અને પદ્માવતી રાણીને આ પ્રતિમાજી પ્રાપ્ત થયાં. એક ભવ્ય જિનાલયનું નિર્માણ કરાવી આ ભવ્ય મનોહર પ્રતિમાજીને નાગેદ્રગચ્છના જૈનાચાર્ય દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત કરાવી. પ્રભુજીની ઉપાસનાના પ્રભાવે રાજાને સંતાનપ્રાપ્તિ થઈ. 
કાળક્રમે આ જિનાલય ખંડેર બન્યું અને વિ.સં. 1624 માં નાગેદ્રગચ્છના જૈનાચાર્ય શ્રી અભયદેવસૂરિના ઉપદેશથી તેનો જીર્ણોદ્ધાર થયો , અને ધીમે ધીમે આ પારસનગર લોક જીભે `` પારસ નાગેશ્વર ' બોલાતું થયું અને ગામનું નામ નાગેશ્વર પ્રભુજીની પડખે જોડાઈ ગયું. પ્રભુજી `` શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ ' નામથી પ્રસિદ્ધ થયા. 
આજનું આ તીર્થસ્થાન ભૂતકાળનું એક વૈભવપૂર્ણ નગર હોવાના બોલતા પુરાવા સમા અનેક ખંડેરો અને અવશેષો અદ્યાપિ ઉપલબ્ધ છે. 
વંશ વારસાગત આ પ્રભુજીની પૂજાનો અધિકાર પ્રાપ્ત કરતા પૂજારીઓ પરમોપાસ્ય પ્રભુજીની ઘોર આશાતના કરવા લાગ્યા અને જૈનોના આ પરમ પ્રભાવક જિનબિંબના માલિક બની બેઠા અને વર્ષો સુધી પ્રતિમાજી તેમના અધિપત્યમાં રહ્યાં. 
થોડા દશકા પૂર્વે પૂ. ઉપાધ્યાયશ્રી ધર્મસાગરજી મહારાજને ઈતરોના આધિપત્યમાં રહેલા આ પ્રભાવક પ્રતિમાજીની ભાળ મળી. પૂજ્યશ્રીના અથાગ પ્રયત્નોને અંતે આ પ્રતિમાજી પર શ્વેતાંબર જૈનોનો હ I ન્યાયાલયે ઘોષિત કર્યો અને અંતરમાં અનોખો ઉજાશ પાથરતા આ પરમોપાસ્ય જિનબિંબને પુનઃપ્રાપ્ત કરવા આપણે સદ્દભાગી બન્યા. 
ત્યારબાદ પૂજ્ય પંન્યાસપ્રવરશ્રી અભયસાગરજી ગણિવરની પાવન નિશ્રામાં વિ.સં. 2026 ના વૈશાખ વદ દસમને શનિવારે આ પ્રતિમાજીને અઢાર અભિષેકની શુદ્ધ વિધિપૂર્વક પૂજાપાત્ર પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવ્યાં. 
રાજસ્થાન અને મધ્યપ્રદેશની સરહદે બિરાજતા આ પ્રભુજી ભારતના ખૂણે ખૂણે વસતા હજારો જૈનોનાં ભક્તિ અને આકર્ષણનું કેદ્ર બનેલા છે. 
જીર્ણોધ્ધૃત જિનાલયમાં આ પાવન પ્રતિમાજીની ચરમ પ્રતિષ્ઠા પૂ. આચાર્યદેવશ્રી ચંદ્રોદયસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના પાવન હસ્તે સં. 2037 ના વૈશાખ સુદ 6 નાં દિવસે થયેલ છે. મુનિ શ્રી અશોક સાગરજી ગણિવરની પણ ત્યારે ઉપસ્થિત હતી.
પ્રભુનાં ધામની પિછાણ

ઉજ્જૈનથી 130 કિ.િમ. દૂર આવેલું શ્રી નાગેશ્વર તીર્થ આલોટ રેલવે સ્ટેશનથી 8 કિ.િમ. અને ચૌમહલાથી 15 કિ.િમ. દૂર છે. રતલામથી આ તીર્થ 90 કિ.િમ. દૂર છે. ચૌમહલા રેલવે સ્ટેશનથી બસ , જીપ આદિ વાહનો દ્વારા આ તીર્થે જઈ શકાય છે. 
રમણીય પ્રાકૃતિક સૌંદર્ય આ તીર્થની શોભામાં અભિવૃદ્ધિ કરે છે. 23 અક્ષાંશ અને 70 રેખાંશ પર આ તીર્થ આવેલું છે. 
ધર્મશાળા તથા ભોજનશાળાની અહીં સુંદર સુવિધા છે.
: એડ્રેસ :

શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ જૈન શ્વેતાંબર તીર્થ પેઢી 
પો. ઉન્હેલ , જિ. ]ાલાવાડ (રાજસ્થાન) , સ્ટે. ચૌમહલા
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श्री धरणेन्द्र देव ( रिंगनोद ,मध्यप्रदेश)


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जोधपुर से साठ किलोमीटर दूर स्थित ओसियां में आध्यात्मिक क्षेत्र है। यह क्षेत्र रेगिस्तान में झरने के समान है। यहां स्थित महावीर स्वामी

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जोधपुर से साठ किलोमीटर दूर स्थित ओसियां में
आध्यात्मिक क्षेत्र है। यह क्षेत्र रेगिस्तान में झरने के समान है।
यहां स्थित महावीर स्वामी का
प्राचीन मंदिर अपनी बेहतरीन
शिल्पकला के लिए जाना जाता है। मंदिर में स्थापित महावीर
स्वामी की प्रतिमा बालू मिट्टी और
दूध के मिश्रण से बनी हुई है। अब इस प्रतिमा पर सोने
का लेप किया हुआ है। दो तरफ भगवान आदिनाथ जी की मनमोहक प्रतिमा जी है । ऐसा है ओसियां का जैन मंदिर...
- यहां के सोलह शैव, वैष्णव व जैन मंदिर आठवीं से
बारहवीं शताब्दी में निर्मित माने गए है।
- ये प्रतिहार कालीन स्थापत्य कला व संस्कृति के
उत्कृष्ट प्रतीक माने गए है।
- इस मंदिर से पूर्व यहां पर शैव व वैष्णव संप्रदाय के मंदिर बने
हुए थे।
- आठवीं शताब्दी में जैन आचार्य रत्न प्रभु
सुरीश्वर ने यहां के राजा उपल देव सहित अन्य लोगों को
हिंसा का मार्ग त्याग जैन धर्म के अहिंसक सिद्धांत की
तरफ मोड़ा।
- इसके बाद ओसियां में यह जैन मंदिर विकसित हुआ। इस मंदिर
की बेतरीन शिल्पकला को देखने दुनियाभर से
लोग पहुंचते है।
- कई शोधकर्ता यहां की स्थापत्य कला का अध्ययन
करने के लिए आते है।
- लोग उस दौर की कारीगरी को देख
हैरत में पड़ जाते है।


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जब तक आत्मा का मोक्ष नही हो, जिव ८४ लाख योनि में भव भ्रमण करता है।

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जब तक आत्मा का मोक्ष नही हो, जिव ८४ लाख योनि में भव भ्रमण करता है। ततपश्चात कर्म अनुसार यह जिव एकेन्द्रिय- बेइंद्रिय- त्रिन्द्रिय- चतुरिंद्रिय और पचेंद्रिय गति में जिव जन्म लेता है।

जितनी इन्द्रिय ज्यादा उतना जिव के पतित होने का कारण बढ़ जाता है।

स्पर्श इन्द्रिय के कारण स्पर्श के लालच में मानव निर्मित खड्डे में हाथी गिर जाता है, फिर मानव उसको बंदी बनाकर गुलाम बना लेता है।

स्वाद या खाने के लालच में मछली कांटे में फंस जाती है और मौत के शरण हो जाती है।

कर्ण या श्रवणेंद्रिय में मधुर संगीत सुनने के लालच में मृग संगीतकार के नजदीक आता है और शिकारी उसका शिकार कर लेता है।

घाणेंद्रिय या सूंघने के लालच में भंवर शाम को फूल में बन्ध होकर मर जाता है।

आग की लौ के प्रकास के चक्कर में परवाना जल कर मर जाता है।

तब पंचेन्द्रिय जिव याने की इंसान की गति क्या होगी?

मनुष्य को आँख मिली अच्छा अच्छा सुंदर रमणीय मनोहर द्र्श्य देख सके।
इसके विपरीत आँख से कहि गन्दे कार्य भी कर सकता हैं आँखों से गन्दी भावना से देखकर आँखे मटकाना, इशारा करना भी एक प्रकार का बलात्कार का ही रूप है।आँखों से देखकर दिमाग में उतरता है जो सकारात्मक कार्य भी हो सकता है और बुरे व्यक्ति नकारात्मक कार्य कर सकते है।

नाक से सुंगंध भी लेता है और गन्दी नशे वाली दुर्गन्ध लेकर जीवन बर्बाद भी करता है।

इस कान से भक्ति गीत सुनता है जीवन संवार सकता है और अपशब्द किसी की निंदा सुनकर,उसको समाज के लोगो में फैलाकर समाज में घृणित हो सकता है।

स्वादेंद्रिय से खाने का स्वाद लेता है इसी प्रकार जुबान से अच्छी वाणी बोलकर लोगो में समाज में पूजनीय बन सकता है।कर्कश वाणी गाली गलौज के शब्द बोलकर झगड़ सकता है।जीभ अढ़ाई इंच जितनी होती है किन्तु इसके द्वारा बोले शब्दों से लम्बा चोडा व्यक्ति भी कट जाता है ऐसे लोग कभी भी समाज में इच्छनीय नही होते निंदनीय होते है सब जगह से धिक्कार ही मिलती है।

इसी प्रकार कुदरत ने स्पर्श का गुण भी दिया है जो वंश परम्परा बढ़ाता है किन्तु आधुनिक काल में भौतिकता में पड़ कर व्यभिचारी बन गया है जिससे उसका पतन हो रहा है।

इसी सन्दर्भ में एक संस्कृत श्र्लोक उद्धृत कर रहा हूँ:-

आपदां कथित:पन्था
इंद्रियाणां असंयम:।
तज्जयं: संपदां मार्गो
येनेष्टं तेन गम्यताम्।।

अर्थात जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय को वश में नही किया हो वोह आपत्ति को आमन्त्रण या बुलावा देता है और जिसने इन्द्रिय पर जीत हासिल कर ली है वो पूजनीय वन्दनीय बन जाता है और सम्पति का हक़दार होता है।
पशु- पक्षी योनि में जिनको दिमाग नही होता वे एक- एक इन्द्रिय के कारण उपरोक्त लिखी विपति में पड़ते है।
मनुष्य योनि जिसके पास दिमाग है, सोचने की शक्ति है, पांच- पांच इन्द्रिय का मालिक बनाया है, उसने उसका उपयोग सर्जनात्मक कार्य के लिए नही किया और दुरुपयोग किया तो इस भव में पतित तो होगा ही किन्तु ८४ लाख योनि में भटकता रहेगा।

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परमात्मा से प्रेम ।

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क्या हम परमात्मा से उतना ही प्रेम करते है जितना हम अपने आप से करते है । 

हम जब भी भक्ति करते है तब कई स्तवन और भक्ति गीत में कहते है की प्रभु तू मेरा है और मैं तेरा ।

देखे की क्या वाकई में हम प्रभु से प्रेम करते है ।

क्या हम प्रभु से प्रेम करते है ?

मेरे ख्याल से सब का जवाब होगा की हां जरूर करते है । इसमें पूछने वाली क्या बात है । उनसे प्रेम करते है तभी तो उनकी भक्ति करते है, आंगी करते है, उनकी पूजा करते है ।।

क्या प्रभु के प्रति हमारा प्रेम उतना ही सहज है जितना हम अपने परिवार वालों से करते है ।

क्या हम प्रभु से उतनी ही निखालसता से मिलते है जितने हम सांसारिक लोगों से मिलते है ।

हमे परमात्मा से ऐसे ही प्रेम करना चाहिए जैसा प्रेम और वात्सल्य हम उनसे अपने प्रति चाहते है ।

प्रेम चाहे किसी से भी करो पर प्रेम इतना सहज होना चाहिए जैसे हम साँस लेते है ।

जैसे हम साँस लेते वक़्त कभी नहीं सोचते की मैंने कितनी साँस अंदर ली या कितनी छोड़ी । बस एक सहज प्रक्रिया है जो होती जाती है । उसके लिए हमें कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । उसी तरह परमात्मा से प्रेम भी सहज है । उसके लिए भी पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । बस हो जाता है ।

मिलने की प्यास और बिछड़ने का दुःख ।

जब हम मंदिर जाते है तब जो उत्कण्ठा हमारे दिल में परमात्मा की मूरत देखने की हो । या हम हम वापस आते है तो 2 आंसू हमारी आत्मा की आँखों से निकले वह प्रेम है ।

कभी कभी मंदिर में बैठकर या कही भी आराम से बैठ कर परमात्मा से 2 बातें करें । यह प्रेम है ।

कोई धार्मिक कार्य हो और आप बिना सोचे उनके लिए तैयार हो जाए । यह प्रभु प्रेम है ।

भक्ति करते आँख नम हो जाए । यह प्रेम है ।

मूरत को देखकर यह भाव आये की अभी उनके पास पहुँच जाऊ । प्रेम है ।

प्रभु के सामने सुध बुध खो जाए । प्रेम है ।

प्रेम हमारे मनोभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है । प्रेम करना हमें कोई नहीं सिखा सकता । चाहे जितने शास्त्र पढ़ लो या जितना चाहे ज्ञान अर्जित कर लो । प्रभु से प्रेम करना नहीं सिख सकते ।

यह सारा ज्ञान आपको यह जरूर बताएगा की प्रभु कैसे है या प्रभु किस राह पर चलकर परमात्मा बने । पर यह कही नहीं बताया जा सकता की परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है ।

क्योंकि यह आपकी आत्मा करती है । और आत्मा दिमाग में ज्ञान अर्जन करती है पर प्रेम दिल से ही करती है । दिल जो भी काम करता है बस कर लेता है । दिल सहज है ।

और दिमाग हर कार्य सोच कर करता है । यानी की प्लानिंग करके ।

सहजता में आत्मा अपने परमात्मा से जुड़ती है और प्लानिंग में शरीर महत्वपूर्ण भाग निभाता है ।

बस इतना ही आज के लिए ।

फिर किसी रोज किसी और विषय को लेकर यह अबोध बालक आपके सामने जरूर आएगा ।।

अगर मेरें किसी भी विचार से किसी को भी दुःख हुआ हो या जिन आज्ञा विरुद्ध लिखा हो तो आप सबसे मिच्छामी दुक्कड़म ।


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तीर्थंकर परमात्मा अचिन्त्य सम्पन्न होने पर भी वे कुछ ही भव्य जीवों का योगक्षेम कर सकते हैं समस्त भव्य जीवों का क्यों नहीं ?

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तीर्थंकर परमात्मा अचिन्त्य सम्पन्न होने पर भी वे कुछ ही भव्य जीवों का योगक्षेम कर सकते हैं समस्त भव्य जीवों का क्यों नहीं ?

कोई भी तीर्थंकर परमात्मा समस्त भव्य जीवों का योगक्षेम नहीं कर सकते है। यदि एक ही तीर्थंकर परमात्मा से समस्त जीवों का योगक्षेम हो जाता तो समस्त भव्य जीवों की मुक्ति हो जाती, क्योंकि योगक्षेम से मुक्ति साध्य होती है। अतः भूतकाल में ही किसी तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा सर्व भव्यों को पूर्वाक्त बीजाधान अंकुरोत्पत्ति - पोषण इत्यादि का योगक्षेम हो जाने पर एक पुद्गल परावर्त काल के भीतर ही समस्त भव्य जीवों की मुक्ति हो गई होती। अतः जीवों को अपने भवितव्यता के आधार पर ही उनका योगक्षेम काल परिपाकानुसार होता है।
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पूजा अष्ट प्रकार

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१ अभिषेक प्रभू जी के मष्तिष्क शे शुरू कर पावके अंगूठै पर्ण करे२
२ केसर पूजा जमणे पाव से शुरू कर नाभी पर पूर्ण करे
३ पुष्प पूजा प्रभू के पस में करे 
बाहर आकर
४ धूप पूजा प्रभू के डाही बाजु ऊभ करे
५ दीपक पूजा प्रभू के जमणी बाजु करे
भाव पूजा
६ अक्षत पूजा के लिए पहले सिध्द शिला फीर दर्शन ज्ञान चारित्र् की ढगली।करे
पहले साथियो बनाये।फीर अर्धचंद्र कार सिध्द शिला आलेखे
७ अच्छे नैवध मीठा लेकर नैवध पूजा साथियों पे करे
८ अच्छे फल लेकर सिध्द शिला पर फल पूजा करे
हर पूजा करते वक्त उसका दुहा बोले


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