जय जिनेन्द्र
💫जैन धर्म में जो "पांच परमेष्ठी" हैं,
उनमें से किसी "एक" को ही "परम आराध्य" बनाना हो,
तो "अरिहंत" ही उनमें सबसे प्रथम हैं
अन्य सभी की "उपस्थिति" भी उन्हीं के "कारण" हैं.
इसीलिए सिद्ध-चक्र के यन्त्र में
"केंद्र" में "अरिहंत" होते हैं.
यदि उन्होंने "धर्म" की "स्थापना नहीं की होती,
तो अभी "धर्म" का स्वरुप कैसा होता,
सोच कर ही सर चक्कर खाने लगता है.
दीक्षा लेने के कारण "अरिहंत "साधू" भी हैं
"श्रुत-ज्ञान" की अविरत धारा बहाने के कारण "उपाध्याय" भी हैं
"संघ संचालन" के कारण "आचार्य" भी हैं
"निर्वाण" के बाद मोक्ष हो जाने के कारण "सिद्ध" भी हैं.
ऐसे "अरिहंत" के गुणों को भला "कहने" में कौन समर्थ है?
इसलिए जो सम्प्रदाय ये मान बैठे हैं कि उनके गुरुओं ने
धर्म संघ की "स्थापना" की है, वो बहुत बड़े भरम में हैं.
और ये भरम अपने अनुयायियों में फैला रहे हैं.
जैन धर्म "अरिहंत" से "पहचाना" जाता है.
असली "पिक्चर" तो अरिहंत के "जीवन चरित्र" हैं.
"दिगंबर और श्वेताम्बर" तो उसके मात्र "ट्रेलर" हैं.
सावधान:
********
जो प्रथम आराध्य "अरिहंत" को ना मानकर
"गुरु" को मान बैठे हैं,
उनका नवकार का प्रथम पद
"नमो अरिहंताणं" गुनना व्यर्थ है.
ये बात इसलिए कहनी पड़ रही है
कि "व्यवहार" में तो वो "अर्हम~" का उच्चारण करते हैं
परन्तु "अंतर" में उनके "गुरु" बसे हुवे हैं.
यदि "अर्हम~" का "वास्तविक स्वरुप" जान लिया होता
तो "गुरु महिमा" अरिहंत से ज्यादा "गहरी" नहीं हो पाती.
💫जैन धर्म में जो "पांच परमेष्ठी" हैं,
उनमें से किसी "एक" को ही "परम आराध्य" बनाना हो,
तो "अरिहंत" ही उनमें सबसे प्रथम हैं
अन्य सभी की "उपस्थिति" भी उन्हीं के "कारण" हैं.
इसीलिए सिद्ध-चक्र के यन्त्र में
"केंद्र" में "अरिहंत" होते हैं.
यदि उन्होंने "धर्म" की "स्थापना नहीं की होती,
तो अभी "धर्म" का स्वरुप कैसा होता,
सोच कर ही सर चक्कर खाने लगता है.
दीक्षा लेने के कारण "अरिहंत "साधू" भी हैं
"श्रुत-ज्ञान" की अविरत धारा बहाने के कारण "उपाध्याय" भी हैं
"संघ संचालन" के कारण "आचार्य" भी हैं
"निर्वाण" के बाद मोक्ष हो जाने के कारण "सिद्ध" भी हैं.
ऐसे "अरिहंत" के गुणों को भला "कहने" में कौन समर्थ है?
इसलिए जो सम्प्रदाय ये मान बैठे हैं कि उनके गुरुओं ने
धर्म संघ की "स्थापना" की है, वो बहुत बड़े भरम में हैं.
और ये भरम अपने अनुयायियों में फैला रहे हैं.
जैन धर्म "अरिहंत" से "पहचाना" जाता है.
असली "पिक्चर" तो अरिहंत के "जीवन चरित्र" हैं.
"दिगंबर और श्वेताम्बर" तो उसके मात्र "ट्रेलर" हैं.
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********
जो प्रथम आराध्य "अरिहंत" को ना मानकर
"गुरु" को मान बैठे हैं,
उनका नवकार का प्रथम पद
"नमो अरिहंताणं" गुनना व्यर्थ है.
ये बात इसलिए कहनी पड़ रही है
कि "व्यवहार" में तो वो "अर्हम~" का उच्चारण करते हैं
परन्तु "अंतर" में उनके "गुरु" बसे हुवे हैं.
यदि "अर्हम~" का "वास्तविक स्वरुप" जान लिया होता
तो "गुरु महिमा" अरिहंत से ज्यादा "गहरी" नहीं हो पाती.
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