ॐ ह्रीँ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: દર્શન પોતે કરવા પણ બીજા મિત્રો ને કરાવવા આ ને મારું સદભાગ્ય સમજુ છું.........જય જીનેન્દ્ર.......

सप्तव्यसन सात नरक के द्वार हैं ।

सप्तव्यसन सात नरक के द्वार हैं ।

(पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ग्रंथ के आधार से विशेषार्थ सहित)

सात व्यसनों के नाम

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-अनुष्टुप्-
द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गना: ।
महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुध:।।१६।।
जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सातों व्यसन महापाप को उत्पन्न करने वाले हैं अतएव बुद्धिमान पुरुष इनका त्याग अवश्य कर देवें। संस्कृत में व्यसन का अर्थ दु:ख है, जो दु:ख के कारण हैं अथवा दु:खरूप ही हैं वे व्यसन कहलाते हैं अथवा व्यसन का अर्थ आदत भी है, जो बुरी आदत जीवन में जल्दी न छूट सके उसे ही व्यसन कहते हैं। इस दृष्टि से ये सातों ही व्यसन जीवन में दु:ख के कारण हैं, दु:खरूप हैं और इनमें से यदि एक व्यसन भी जीवन में लग जाये तो उसका छूटना कठिन हो जाता है इसीलिए ये व्यसन नाम से कहे गये हैं। इनका त्याग किये बगैर कोई भी श्रावक नहीं बन सकता है।

अब जुआ के दोष दिखाते हैं

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मालिनी-
भुवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्वव्यसनपतिरशेषापन्निधि: पापबीजम्।
विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा क इह विशदबुद्धिद्र्यूतमङ्गीकरोति।।१७।।
इन व्यसनों में पहला व्यसन जो जुआ है वह अपकीर्तिका स्थान है, चोरी एवं वेश्यासेवन आदि अन्य सर्व व्यसनों का राजा है, समस्त आपत्तियों का खजाना है, पाप का बीज है तथा विषम नरक मार्ग में प्रस्थान कराने के लिए अग्रसर है ऐसा जानकर इस संसार में कौन सा निर्मल बुद्धि वाला मनुष्य इस जुआ व्यसन को स्वीकार करेगा ? जुआ खेलने से लोक में निन्दा होती है, जुआरियों की संगति से वेश्यासेवन, मदिरापान आदि व्यसन सहज ही लग जाते हैं। जुए में हार जाने से चोरी करने की आदत पड़ जाती है अतएव यह एक जुआ ही सब व्यसनों को कराने वाला मुखिया बन जाता है, जुआ खेलने से दरिद्रता, मूर्खता आदि आपत्तियां स्वयमेव बिना बुलाये आ जाती हैं। सभी पापों में प्रवृत्ति कराने से यह पापों का मूल कारण हो जाता है और तो क्या नरक, निगोद आदि दुर्गतियों में ले जाने के लिए अग्रगामी-आगे चलकर मार्ग दिखाने वाला बन जाता है, इन सब दु:खों के स्थानभूत ऐसे जुआ दुर्व्यसन को उत्तम बुद्धि वाले लोग कभी नहीं खेलते हैं। जो जुआ खेलते हैं वे दुर्बुद्धि ही हैं ऐसा समझना चाहिए। यदि चित्त महामोह से जुआ में नहीं लगता है तो भला उस मनुष्य की निन्दा कहां से होगी ? निर्धनता कहां रह सकेगी ? विपत्तियां कहां से आ सकेंगी ? क्रोध, लोभ आदि कषायें कहां से पैदा होंगी ? चोरी, शिकार आदि अन्य व्यसन भी कहां से आ सकेंगे ? तथा मनुष्यों को मरकर नरक में जाकर दु:ख कहां से उठाने पड़ेंगे ? अर्थात् जुआ व्यसन के त्याग कर देने से उपर्युक्त निन्दा आदि दोष नहीं होंगे, ऐसा श्रेष्ठ बुद्धि के धारक विद्वान कहते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि इस पृथ्वीतल पर समस्त दुव्र्यसनों में यह जुआ गाड़ी की धुरा के समान मुख्य माना गया है। जो जुआ खेलते हैं वे अपकीर्ति, निर्धनता, नाना विपत्तियों, क्रोध, लोभ आदि कषायों तथा चोरी आदि व्यसनों से सहित हो जाते हैं और तो क्या, मरकर नरक मे जाकर असंख्य दु:खों को भोगते हैं किन्तु जो जुए का त्याग कर देते हैं वे निन्दा, निर्धनता आदि से बच जाते हैं अत: आचार्यों का कहना है कि यह जुआ ही सर्व दुव्र्यसनों का और सर्व दु:खों का स्थान है ऐसा समझकर इससे दूर ही रहना चाहिए।

मांस व्यसन के दोष दिखाते हैं

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-स्रग्धरा-
बीभत्सुप्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्पृष्टुमालोकितुं च।
तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्कागतिर्वा न विद्म:।।१९।।
जो मांस घृणा को उत्पन्न करता है, हिरण आदि प्राणियों के घात से उत्पन्न होता है, अपवित्र है, कृमि आदि नाना कीड़ों का स्थान है, जिसकी उत्पत्ति अत्यंत निंदनीय है, जिसे महापुरुष हाथ से स्पर्श भी नहीं करते और न आंख से देख ही पाते हैं। ऐसा मांस खाने योग्य है ऐसा बोलना भी सज्जन पुरुषों के लिये निंदाजनक है फिर ऐसे अशुचि मांस को जो पुरुष साक्षात् खाता है उसको यहां संसार में कितना पाप होता है ? तथा उसकी क्या अवस्था होती है ? इस बात को हम नहीं जान सकते हैं। यह मांस ऐसी वस्तु है कि जो बिना जीव हिंसा के उत्पन्न ही नहीं हो सकती है। हिरण, सिंह, बकरा, गाय, भैंस, मुर्गा आदि प्राणियों को मारकर उनके कलेवर को ही मांस कहा जाता है। ऐसे मांस को देखते ही ग्लानि आती है। प्रतिक्षण उसमें सूक्ष्म तो सूक्ष्म, स्थूल भी कीड़े उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार यह मांस अनंत जीवों का पिंड माना जाता है। श्रीअमृतचंद्र सूरि ने कहा भी है-
आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु।
सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम्।।६७।।
आमां वा पक्वां वा खादति य: स्पृशति वा पिशितपेशीम्।
स निहन्ति सततनिचितं पिंडं बहुजीवकोटीनाम्।।६८।।
चाहे कच्चा मांस हो, चाहे पकाया हुआ हो, चाहे पकाया जा रहा हो, मांस की डलियों की सर्व ही अवस्थाओं में प्रतिसमय उस-उस जाति के अनंत निगोद जीव उत्पन्न होते ही रहते हैं इसलिए जो कोई भी कच्चे या पके हुए वैâसे भी मांस के टुकड़े को खाता है वह अनेक करोड़ों जीवों की हिंसा का पाप संचित कर लेता है। इसी प्रकार यह मांस कभी भी किसी स्थिति में भी प्रशंसनीय नहीं हैं प्रत्युत निंद्य ही है। प्रश-यदि कोई स्वयं जीवों की हिंसा न करे और न ही दूसरों से करावे किन्तु स्वयं मरे हुए प्राणी का मांस खा लेवे तब तो बहुत पाप नहीं लगना चाहिए ? उत्तर-आपका ऐसा प्रश्न भी ठीक नहीं है, चूंकि वह मांस भी अनंत जीवों का पिंड होने से महान हिंसा को उत्पन्न करने वाला है। श्रीअमृतचंद्र सूरि ने कहा है-
यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादे:।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात्१।।६६।।
स्वयं ही मरे हुए भैंसा, बैल आदि प्राणियों के मांस में भी उसी जाति के जिस जीव का वह मांस है अनंतानंत निगोदिया जीव जन्म लेते रहते हैं और उस मांस के खाने से उनका घात होने से महान् हिंसा का पाप लगता है इसलिए मांस कथमपि ग्राह्य नहीं है। प्रश - कुछ मुर्गी, कबूतर आदि के अंडे निरामिष माने जाते हैं अर्थात् जीव रहित निर्जीव माने जाते हैं, उनके खाने में कोई पाप नहीं होना चाहिए ? उत्तर - जो मुर्गी, कबूतर आदि के गर्भ में बनकर उत्पन्न होते हैं वे ही अंडा कहलाते हैं। ये कोई भी अंडा कभी भी निर्जीव नहीं हैं। हां, जन्म लेने के बाद यदि मुर्गी आदि उनकी मातायें उन्हें सेती नहीं हैं तो वे मर जाते हैं पुन: उनसे मुर्गा या कबूतर आदि पैदा नहीं हो सकते हैं फिर भी वे पहले जीव का कलेवर होने से स्वयमेव ही मरे हुए प्राणियों के कलेवर के समान ही अनंतानंत निगोद जीवों के स्थान हैं, मृत प्राणी के कलेवर होने से मांस ही हैं अत: उनका भक्षण भी महान पाप है, चूंकि कोई भी अंडे निरामिष होते ही नहीं हैं। यह तो स्वयं को भ्रमित करने का एक कुप्रयास है। गर्भ में जीव आने के बाद ही अंडा का आकार बनता है, बिना जीव के अंडा बन ही नहीं सकता है ऐसा समझकर अंडे का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए और जिन खाने की चीजों में अंडा पड़ता है ऐसे ‘केक’ ‘डबलरोटी’ आदि पदार्थों को कतई नहीं खाना चाहिए। अपने संबंधी भी प्रिय हैं पुन: दूसरे का मांस कैसे खाना ?
-शिखरिणी-
गतो ज्ञाते: कश्चिद्वहिरपि न यद्येति सहसा शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जन:।
परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं कले रे निर्विण्णा वयमिहभवच्चित्रचरितै:।।२०।।
यदि कोई अपना बंधु-कुटुंब का मनुष्य कहीं बाहर जाकर यथासमय वापस नहीं आता है तो मनुष्य व्याकुल होता हुआ उसके अनिष्ट की आंशका से शिर को पीट-पीटकर रोने लगता है। पुन: वही मनुष्य अन्य प्राणियों को मारकर उनके मांस को अपने मुख में रखकर खाता है। अरे कलिकाल! हम लोग तेरी इन विचित्र प्रवृत्तियों से इस समय बहुत ही निर्वेद को-वैराग्य को प्राप्त हो रहे हैं। लोक में देखा जाता है कि अपने संबंधी भाई, भतीजा आदि कोई भी व्यक्ति यदि किसी कार्यवश कहीं बाहर चले जाते हैं पुन: समय पर जल्दी नहीं आते हैं तो उनका कहीं मरण तो नहीं हो गया ? ऐसी आशंका से लोग आकुल-व्याकुल होकर शिर पीट-पीटकर रोने लगते हैं, हाहाकार मचा देते हैं। आचार्य कहते हैं-देखो, ऐसे भी व्यक्ति अन्य किसी भी जीव को उनके माता-पिता आदि से छुड़ाकर उनको मारकर उनका मांस खाते समय अपना मुंह फाड़-फाड़ कर मांस डलियां भला वैâसे खाते हैं ? अरे कलिकाल! ये सब तेरी निंद्य चेष्टाएँ हैं अर्थात् इस कलिकाल के प्रभाव से ही आज इतने अधिक मांसाहारी दिख रहे हैं। भारत में अनेक जातियों में बहुत संख्या ऐसी है जो कि मांसाहारी है। विदेशों में तो शाकाहारी लोगों की संख्या बहुत ही मुश्किल से दिखती है। जिन्हें अपने कुटुंबी, इष्ट-मित्रों के प्रति खूब ही प्रेम है, उनके सुख में सुखी और दु:ख में दु:खी हो उठते हैं ऐसे लोग भी अंडे, मछली आदि को खाते हुए दया नहीं लाते हैं। यह सब इस दु:षमकाल का ही प्रभाव है। फिर भी ऐसे कलिकाल में भी जो मांस के नाम से भी कांप उठते हैं, छूने और देखने की बात बहुत दूर है ऐसे महापुरुष भी बहुत देखे जाते हैं। वे भी इस कलिकाल के कुप्रभाव से बचकर अपनी आत्मा की उन्नति-सद्गति करने वाले हैं। आज हर किसी निरामिषभोजी-शाकाहारीजनों को बाजार की बनी हुई चीजें, डालडा घी, आदि जिनमें मांस, अंडों की आशंका है ऐसी वस्तुयें न खाना चाहिए, न अपने घर में लाना चाहिए और न अपने बच्चों को ही खिलाना चाहिए।

मदिरा के दोषों को दिखाते हैं

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-मालिनी-
सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्रजन्मन्यधिकमधिकमग्रे यत्परे दु:खहेतु:।
तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भि: स्वहितमिहकिमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम्।।२१।।
जो मदिरा इस जन्म में समस्त पुरुषार्थों का नाश करने वाली है और अगले भव में अत्यधिक दु:ख का हेतु है उस मदिरा को यदि बुद्धिमान मनुष्य नहीं छोड़ते हैं तो पुन: यहां संसार में धर्म के निमित्त अपने लिए हितकर दूसरा कौन सा काम करने के योग्य है ? अर्थात् कोई नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ सर्वजन प्रसिद्ध हैं। मदिरा पीने वाला मनुष्य न तो धर्मकार्य कर सकता है, न इच्छानुसार इन्द्रिय विषयों का भोग ही कर सकता है फिर भला उसके लिए मोक्ष पुरुषार्थ की बात कहां हो सकती है ? वह शराबी मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों को समाप्त कर देता है। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि शराबी मनुष्य अपना धन, धर्म, स्वास्थ्य और यश इन चारों को नष्ट करके निर्धन, पापी, रोगी और निंदनीय हो जाता है, लोग उसे अपने पास बैठाने में भी बुरा समझते हैं, पुन: खोटे परिणामों से मरकर नरक, तिर्यंच, निगोद आदि दुर्गतियों में चला जाता है वहां अनंत कालों तक दु:ख भोगता रहता है। शराब के पीने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, हिताहित का विवेक जाता रहता है इसलिए विवेकी पुरुष ऐसी मदिरा को पीना तो दूर रहा छूते भी नहीं हैं और न शराबियों की संगति ही करते हैं।
-मन्दाक्रान्ता-
आस्तामेतद्यदिह जननीं व¼भां मन्यमाना निन्द्याश्रेष्टा विदधति जना निस्रपा: पीतमद्या:।
तत्राधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयाद्वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणा: पिबन्ति।।२२।।
जो मदिरापान करते हैं ऐसे व्यक्ति नशे में आकर निर्लज्ज होकर यहां-अपने घर में ही माता को पत्नी मानकर निंदनीय चेष्टा करने लगते हैं। और तो क्या ? वे नशे से रास्ते में गिर जाते हैं तब उनके मुंह में कुत्ता पेशाब कर देता है और वे उसे अतिशय मधुर कहते हुए पी लेते हैं। यह बड़े दु:ख की बात है। शराब के नशे में जब मनुष्य पागल सा हो जाता है तब इधर-उधर कहीं भी गिरता पड़ता है, यद्वा-तद्वा बकने लगता है, और तो क्या माता को पत्नी और पत्नी को माता समझकर माता के सामने भी निंद्य चेष्टायें करने लगता है। यहां तक कि यदि वह रास्ते में पड़ा हो और अकस्मात् उसके मुख में कुत्ते पेशाब कर दें तो वह नशे में चूर हुआ उसे भी मीठी कहते हुए पी जाता है। शराबी मनुष्यों की नाना निंद्य चेष्टायें लोकव्यवहार में सभी को दिखती रहती हैं, इसे विस्तार से क्या कहना ? कुल मिलाकर शराब का पीना सर्वथा खराब है। धन, धर्म, स्वास्थ्य और इज्जत इन सबको मिट्टी में मिला देता है, ऐसा समझकर जीवन भर के लिए ऐसे निंद्य व्यसन का त्याग कर देना चाहिए जिससे कि अगले भव में दुर्गतियों में न जाना पड़े।

वेश्यासेवन के दोष दिखाते हैं

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या: खादन्ति पलं पिवन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावच: स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम्।
नीचानामपि दूरवक्रमनस: पापात्मिका: कुर्वते लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम्।।२३।।
जो वेश्यायें मांस खाती हैं, मदिरा पीती हैं, असत्यवचन बोलती हैं, केवल धन प्राप्ति के लिए ही प्रेम करती हैं, धन और प्रतिष्ठा इन दोनों को ही नष्ट कर देती हैं, जो मन में अत्यंत कुटिलता को धारण करने वाली, पापिनी हैं तथा जो हमेशा नीच पुरुषों की लार को पीती रहती हैं ऐसी वेश्याओं को छोड़कर दूसरा कोई नरक नहीं है। जो महिला विवाहिता हो या अविवाहिता, धन के लाभ में अनेक पुरुषों के साथ रमण करती है वह वेश्या कहलाती है। ऐसी वेश्यावृत्ति करने वाली महिलायें हमेशा ही मदिरा, मांस आदि अपवित्र वस्तुओं को खाती-पीती रहती हैं, किसी पुरुष पर प्रेम प्रदर्शित करती हैं, किसी को अपनेपन का विश्वास दिलाती हैं और किसी के प्रति आसक्ति प्रगट करती हैं फिर भी झूठ बोलने में कुशल होने से सबको ठगती रहती हैं, उनका अपना प्रिय एक धन के सिवाय कोई मनुष्य नहीं रहता है और जो वेश्यासेवन करते हैं, वे धन और इज्जत को खो देते हैं। ये वेश्यायें नीचों के साथ व्यभिचार करने से उनके मुख की लार पीती हैं। ये सर्वथा निंद्य हैं इनके साथ प्रेम करने वाले मनुष्य नरकगति को प्राप्त कर लेते हैं इसीलिए आचार्यों ने इन्हें ही नरक कह दिया है।
-आर्या-
रजकशिलासदृशीभि: कुरकर्परसमानचरिताभि:।
गणिकाभिर्यदि सङ्ग कृतमिह परलोकवार्ताभि:।।२४।।
ये वेश्यायें धोबी के कपड़े धोने की शिला के समान हैं, इनका आचरण कुत्तों के कपाल के समान निंद्य है ऐसी वेश्याओं के साथ जो संसर्ग करते हैं तो फिर उनके लिए परलोक की बातों से ही बस हो अर्थात् उन वेश्यालोलुपीजनों के लिए परलोक की बात ही असंभव है। जिस प्रकार धोबी अपने घाट की शिला पर अच्छे और बुरे सभी के गंदे कपड़े धोता है, जिस प्रकार एक ही मृतक के कपाल को अनेक कुत्ते खींचते हैं और चाटते हैं उसी प्रकार जिन वेश्याओं के यहां सभी ऊंच-नीच पुरुष आते हैं, उसके साथ रमण करते हैं उन वेश्यागामी लोगों का परलोक में हित होगा, अच्छी गति होगी, यह भला कहां संभव है ? अर्थात् वेश्यासेवन व्यसन से नरक, निगोद आदि दुर्गतियों में ही जाना पड़ेगा ऐसा समझकर इस दुव्र्यसन का त्याग कर देना चाहिए।

शिकार के दोष दिखाते हैं

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-स्रग्धरा-
यादुर्देहैकवित्ता वनमधिवसति त्रातृसंबन्धहीना भीतिर्यस्या: स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति।
वध्यालं सापि यस्मिन्ननुमृगवनितामांसपिण्डस्यलोभादाखेटेऽस्मिन्रतानामिहकिमुनकिमन्यत्रनो यद्विरूपम्।।२५।।
जो हिरणी दु:खदायक एकमात्र देहरूप धन को धारण करती हुई वन में रहती है, जिसका कोई रक्षक नहीं है, जो स्वभाव से ही सदा भयभीत रहती है तथाा दांतों के मध्य में तृण दबाये हुए है-घास खाती हुई किसी का कुछ भी अपराध-बिगाड़ नहीं करती है। आश्चर्य है कि ऐसी हिरणी मांस के पिंड के लोभी शिकार के व्यसनी जनों के द्वारा मारी जाती है ऐसे शिकार व्यसन में आसक्त हुए लोगों के इस लोक में और परलोक में कौन सा पाप नहीं होता है ? प्राचीन काल में एक पद्धति रही है कि जो शत्रु दांतों के मध्य में तिनका दबाकर सामने आता था तब उसे वीर पुरुष हारा हुआ मानकर छोड़ देते थे, फिर उसके ऊपर वे शस्त्र प्रहार नहीं करते थे किन्तु बड़े दु:ख की बात है कि शिकारी लोग ऐसे भी दीन-अनाथ, निरपराध प्राणियों का घात करते हैं जो कि घास का भक्षण करते हुए मुख में तृण दबाए रहते हैं।
-मालिनी-
तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे भवति तरलचक्षुव्र्याकुलो य: स लोक:।
कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रो मृगमकृतविकारं ज्ञातदु:खोऽपि हन्ति।।२६।।
जब अपने शरीर में कोई भी चींटी आदि चिपक जाए तब मनुष्य व्याकुल होकर चंचल नेत्रों से उसे ढूंढने लगते हैं फिर वे ही मनुष्य अपने समान दूसरे प्राणियों के दु:ख का अनुभव करके भी शिकार खेलने में आनंद मानते हैं और क्रोध, वैर आदि विकृत भावों से रहित निरपराध मृग आदि प्राणियों के ऊपर शस्त्र चलाकर कैसे उनका वध कर देते हैं ? अपने शरीर में कोई चींटी, मच्छर आदि काट लेवे तो दु:ख होता है, मन व्याकुल हो उठता है पुन: निर्दयी मनुष्य वैâसे दूसरों पर शस्त्र चला देते हैं, बंदूक आदि के निशाने से गोली मारकर घात कर देते हैं। वास्तव में ये शिकारी अपने मौज और शोक के लिए भी शिकार खेलते हैं जबकि अपने पुत्र, मित्र आदि को दु:खी देखकर सिहर उठते हैं अतएव दयालु मनुष्यों को शिकार खेलने का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।

चोरी के दोष दिखाते हैं

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-शार्दूलविक्रीडित-
यो येनैव हत: स हन्ति बहुशो हन्त्येव यैर्वञ्चितो नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेऽप्यत्र च।
स्त्रीवालादिजनादपि स्पुâटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते नित्यं वञ्चनिंहसनोज्झनविधौ लोका: कुतो मुह्यते।।२७।।
जो मनुष्य जिसके द्वारा मारा जाता है वह मनुष्य अपने मारने वाले को भी अनेकों बार मारता है। इसी प्रकार जो मनुष्य जिन दूसरे लोगों के द्वारा ठगा जाता है वह निश्चित ही उन लोगों को भी इसी जन्म में और जन्मांतर में भी अवश्य ठगता है। यह बात स्त्री, बाल, वृद्ध आदि जनों में भी प्रसिद्ध है और शास्त्रों में भी स्पष्टतया सुनी जाती है, पुन: लोग हमेशा वंचना - धोखाधड़ी और हिंसा के त्याग मे भला क्यों मोह को प्राप्त होते हैं ? लोग धन के लोभ में चोरी करने की भावना से दूसरों को ठगते हैं यह चोरी ही है। एक बार दूसरों को ठगने वाला मनुष्य जन्म-जन्म में दूसरों के द्वारा ठगाया जाता है। चूँकि पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है अत: परवंचना और हिंसा आदि को छोड़ने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। चोरी करना, पर धन चुराना, हड़पना यह छठा व्यसन है।
अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनैर्ये वञ्चयन्ते परान्नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरत: पापिव्रजादन्यत:।
प्राणा: प्राणिषु तन्निवन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने यावान् दु:खभरो नरे न मरणे तावानिह प्रायश:।।२८।।
जो मनुष्य धन आदि के कमाने में अनेक प्रपंचों को रचकर दूसरों को ठगा करते हैं वे निश्चित ही इस पाप के निमित्त से आगे के भवों में नरकों में चले जाते हैं क्योंकि प्राणियों में प्राण धन के निमित्त से ही ठहरते हैं, धन के नष्ट हो जाने पर मनुष्य को जितना अधिक दु:ख होता है उतना प्राय: उसे मरते समय भी नहीं होता है। धन को लोक में मनुष्यों का ग्यारहवां प्राण माना गया है। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने भी कहा है-
अर्थानाम य एते प्राणा एते बहिश्चरा: पुंसाम्।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान्१।।१०३।।
जिस प्रकार संसारी जीवों के जीवन में कारणभूत ऐसे पांच इंद्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण होते हैं वैसे ही मनुष्यों के धन आदि बाह्य पदार्थ-धन, धान्य, संपदा, हाथी, घोड़ा, दासी, दास, महल, जमीन, पुत्र, स्त्री, वस्त्राभूषण जो भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब बाह्य प्राण माने गये हैं क्योंकि ये सब बाह्य पदार्थ भी मनुष्यों के जीवन में निमित्त देखे जाते हैं। इनमें से किसी एक, दो आदि के वियोग में जीवों के प्राणघात के समान दु:ख होता है। यही कारण है कि जो मनुष्य जिस किसी के धन आदि को हरता है वह उसके प्राणों को हरता है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए चोरी दुव्र्यसन भी साक्षात् हिंसा ही है।

अब परस्त्रीसेवन के दोष दिखाते हैं

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चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशोऽतिदाहभ्रमक्षुत्तृष्णाहतिरोगदु:खमरणान्येतान्यहो आसताम्।
यान्यत्रैव पराङ्गनाहतमतेस्तद्भूरिदु:खं चिरं श्वभ्रे भावि यदग्निदीपितवपुर्लोहाङ्गनालिङ्गनात्।।२९।।</font></center>
जो परस्त्री में मन को आसक्त रखने वाले हैं उनके अगले जन्म की बात तो दूर ही रहे इसी जन्म में चिंता, आकुलता, भय, द्वेषभाव, बुद्धि का विनाश, अतीव दाह, संताप, भ्रांति, भूख, प्यास, मन पर आघात, रोगवेदना और मरण ये दु:ख प्राप्त होते हैं पुन: जन्मान्तर में इस परस्त्री सेवन के पाप के निमित्त से नरक गति में अग्नि में तपाई हुई लोहमयी पुतली के आलिंगन से चिरकाल तक बहुत दु:ख भोगना पड़ता है। आश्चर्य है कि यह व्यसनी जीव उधर ध्यान ही नहीं देता है।
अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय अन्य महिलायें परायी स्त्री होने से परस्त्री कहलाती हैं। इसमें कुमारिकाएं भी सम्मिलित हैं चूंकि वे भी जब तक माता-पिता के द्वारा दी नहीं जाती हैं तब तक पराई ही हैं अथवा भविष्य में उनके माता-पिता उन कन्याओं को अन्य के साथ विवाहते हैं इसलिए भी वे परस्त्री कहलाती हैं। आचार्यों ने कहा है कि-
जो मनुष्य अपने से बड़ी महिला को माता, बराबर वाली को बहिन और अपने से छोटी को पुत्री के समान मानकर उनके प्रति विकारभाव को मन में भी नहीं लाता है वही परस्त्री का त्यागी है। यह एकदेश ब्रह्मचर्य व्रत भी महान है। शास्त्रों में परस्त्री लंपट पुरुषों के नीचगति के उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसे ही स्त्रियों के लिए भी अपने पति के सिवाय अन्य पुरुष भी पिता, भाई और पुत्र के समान हैं ऐसा जो मानती हैं वे ही सीता, मनोरमा आदि के समान पूज्यता को प्राप्त कर लेती हैं। ऐसी सती महिलाओं के ऊपर ही भारतीय संस्कृति जीवित है।
-शार्दूलविक्रीडित-
धिक्तं पौरुषमासतामनुचितास्ताबुद्धयस्तेगुणा माभून्मित्रसहायसम्पदपि सा तज्जन्म यातु क्षयम्।
लोकानामिह येषु सत्सु भवति व्यामोहमुद्राज्र्तिं स्वप्नेऽपि स्थितिलङ्घनात्परधनस्त्रीषु प्रसक्तं मन:।।३०।।
वह अनुचित पौरुष, वह अनुचित बुद्धि, वे अनुचित गुण दूर ही रहें, उस अयोग्य पौरुष को धिक्कार हो। ऐसे मित्रों की सहायतारूप संपत्ति भी मत हो, वह जन्म भी नाश को प्राप्त हो जावे कि जिनके होने पर लोगों का मन व्यामोह को प्राप्त होता हुआ मर्यादा का उल्लंघन करके स्वप्न में भी परधन एवं परस्त्रियों में आसक्त होता है।
भावार्थ - पौरुष, बुद्धि, गुण, मित्रों की सहायता और मनुष्य पर्याय में जन्म इन सबको प्राप्त करके भी यदि किसी का मन मर्यादा को तोड़कर परधन या परस्त्री की स्वप्न में भी भावना करता है तो ये पौरुष, बुद्धि, गुणादि धिक्कार के योग्य हैं, सर्वथा अयोग्य ही हैं क्योंकि ये सब इस जीव को नरक निगोदों में ले जाने वाले हैं अत: पौरुष, बुद्धि आदि का सदुपयोग यही है कि सात व्यसनों से सर्वथा मन को दूर ही रखें।
-शार्दूलविक्रीडित-
द्यूताद्धर्मसुत: पलादिह बको मद्याद्यदोर्नन्दनाश्चारु: कामुकया मृगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नृप:।
चौर्यत्वाच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठादेवैकव्यसनोद्धता इति जना: सर्वैर्न को नश्यति।।३१।।
जुआ खेलने से युधिष्ठिर, मांस खाने से बक राजा, शराब पीने से यादव, वेश्यासेवन से चारुदत्त सेठ, मृगों-जंगली पशुओं की हिंसा से शिकार खेलने से राजा ब्रह्मदत्त, चोरी करने से शिवभूति ब्राह्मण और परस्त्री दोष से रावण, इस प्रकार एक-एक व्यसन से ये सातों जन महान् दु:खों को प्राप्त हुए हैं। फिर भला जो सभी व्यसनों का सेवन करता है उसका विनाश क्यों नहीं होगा ? अर्थात् वह सप्तव्यसनी तो संपूर्ण दु:खों को प्राप्त करेगा ही करेगा। विशेषार्थ-‘‘यत् मनुष्यान् श्रेयस: कल्याणात् व्यस्यति-दूरी करोति तत् व्यसनम्।’’ जो मनुष्यों को श्रेयस्कर-कल्याणमार्ग से दूर कर देता है उसका नाम व्यसन है। ऐसे व्यसन सात हैं-जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्रीसेवन करना। इन सातों में से केवल एक-एक व्यसन का सेवन करने वाले पुरुष ही नाना दु:खों को प्राप्त कर चुके हैं और लोक में अपकीर्ति को भी प्राप्त हुए हैं। उनकी विशेष कथायें उन-उन के पुराण, चरित्र ग्रंथों से जानना चाहिए। यहाँ अन्य प्रकार से उनके लक्षण बताते हुए उनसे संबंधित संक्षिप्त कथायें दी जा रही हैं- जिस काम को बार-बार करने की आदत पड़ जाती है, उसे व्यसन कहते हैं। यहाँ बुरी आदत को व्यसन कहा है अथवा दु:खों को व्यसन कहते हैं। यहाँ उपचार से दु:खों के कारणों को भी व्यसन कह दिया है। ये व्यसन सात हैं-
जुआ खेलन, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार ।।
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(१) जुआ खेलना जिसमें हार-जीत का व्यवहार हो, उसे जुआ कहते हैं। यह रुपये-पैसे लगाकर खेला जाता है। यह सभी व्यसनों का मूल है और सब पापों की खान है। इस लोक में अग्नि, विष, सर्प, चोरादि तो अल्प दु:ख देते हैं किन्तु जुआ व्यसन मनुष्यों को हजारों भवों तक दु:ख देता रहता है।
उदाहरण — हस्तिनापुर के राजा धृतराज के धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर ये तीन पुत्र थे। धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए और पांडु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पांच पुत्र हुए। दुर्योधन आदि कौरव तथा युधिष्ठिर आदि पांडव कहलाते थे ये सब शामिल ही राज्य करते थे। कुछ दिन बाद कौरवों की पांडवों के प्रति ईष्र्या देखकर भीष्म पितामह आदि बुजुर्गों ने कौरवों और पांडवों में आधा-आधा राज्य बांट दिया किन्तु इस पर दुर्योधन आदि कौरव अशांति किया करते थे।
किसी समय कौरव और पांडव जुआ खेलने लगे, उस समय दैववश दुर्योधन से युधिष्ठिर हार गये, यहाँ तक कि अपना राज्य भी जुए में हार गये। तब दुर्योधन ने दुष्टतावश बारह वर्ष तक उन्हें वन में घूमने का आदेश दे दिया और दु:शासन ने द्रौपदी की चोटी पकड़कर घसीट कर भारी अपमान किया किन्तु शील शिरोमणि द्रौपदी का वह कुछ भी बिगाड़ न सका। पांचों पांडव द्रोपदी को साथ लेकर बारह वर्ष तक इधर-उधर घूमे और बहुत ही दु:ख उठाये। इसलिये जुआ खेलना महापाप है। बालकों! तुम्हें भी जुआ कभी नहीं खेलना चाहिये। इससे लोभ बढ़ता चला जाता है पुन: आगे जाकर धर्म और धन दोनों का सर्वनाश हो जाता है।
(२) मांस खाना
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कच्चे, पके हुए या पकते हुए किसी भी अवस्था में माँस के टुकड़े या अण्डे में अनंतानंत त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। यह प्रत्यक्ष में ही महानद्य है, अपवित्र है। इसके छूने मात्र से ही अनंत जीवों की हिंसा हो जाती है। माँस खाने वाले महापापी कहलाते हैं और अंत में दुर्गति में चले जाते हैं।
उदाहरण — किसी समय पाँचों पांडव माता कुन्ती सहित श्रुतपुर नगर में एक वणिक के यहाँ ठहर गये। रात्रि में उसकी स्त्री का करुण व्रंâदन सुनकर माता कुन्ती ने कारण पूछा, उसने कहा—माता! इस नगर का बक नामक राजा मनुष्य का माँस खाने लगा था। तब नगर के लोगों ने उसे राज्य से हटा दिया। तब भी वह वन में रहकर मनुष्यों को मार-मारकर खाने लगा। तब लोगों ने यह निर्णय किया कि प्रतिदिन बारी-बारी से एक-एक घर में से एक- एक मनुष्य देना चाहिये, दुर्भाग्य से आज मेरे बेटे की बारी है। इतना सुनकर कुन्ती ने भीम से सारी घटना बताई। प्रात: काल भीम ने उसके लड़के की बारी में स्वयं पहुँचकर बक राजा के साथ भयंकर युद्ध करके उसे समाप्त कर दिया। वह मरकर सातवें नरक में चला गया, जो कि वहाँ पर आज तक दु:ख उठा रहा है। देखो बालकों! माँस अंडे तो क्या, शक्कर की बनी हुई मछली आदि आकार की बनी मिठाई भी नहीं खानी चाहिये, उसमें भी पाप लगता है।
(३) मदिरापान करना
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गुड़, महुआ आदि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें प्रतिक्षण अनंतानंत सम्मूर्छन त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसमें मादकता होने से पीते ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है और न करने योग्य कार्य कर डालता है। इस मदिरापान से लोग माँस खाना, वेश्या सेवन करना आदि पापों से नहीं बच पाते हैं और सभी व्यसनों के शिकार बन जाते हैं।
उदाहरण — किसी समय भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि से श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि बारह वर्ष बाद शराब के निमित्त से द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारिका नगरी भस्म हो जावेगी। तब श्रीकृष्ण ने आकर सारी मद्य सामग्री और मदिरा को गाँव के बाहर कन्दराओं में फिकवा दिया। अनंतर बारह वर्ष बीत चुके हैं, ऐसी भ्रान्तिवश कुछ दिन पहले ही द्वीपायन मुनि द्वारिका के बाहर आकर ध्यान में लीन हो गये। इधर शंबु आदि यादव कुमारों ने वनक्रीड़ा में प्यास से व्याकुल होकर कन्दराओं में संचित मदिरा को जल समझकर पी लिया। फिर क्या था, वे सब उन्मत्त हुए आ रहे थे, मार्ग में द्वीपायन मुनि को देखकर उपसर्ग करना व बकना प्रारम्भ कर दिया। मुनिराज ने बहुत कुछ सहन किया, अंत में उनके क्रोध की तीव्रता से तैजस पुतला निकला और धू-धू करते हुए सारी द्वारिका को भस्मसात् कर दिया। उस समय वहाँ का दृश्य कितना करुणाप्रद्र होगा, उसका वर्णन कौन कर सकता है। मात्र श्रीकृष्ण और बलभद्र ही वहां से बचकर निकल सके थे। पाठकों! इस शराब व्यसन की हाँनि को पढ़कर इसका त्याग कर देना ही उचित है।
(४) वेश्यागमन करना
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वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ रमण करना, वेश्या सेवन कहलाता है। जो कोई मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ निवास करता है वह भील, चाण्डाल आदि का झूठा खाता है, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि वेश्या इन सभी नीच लोगों के साथ समागम करती है। वेश्यागामी लोग व्यभिचारी, लुच्चे, नीच कहलाते हैं। इस भव में कीर्ति और धन का नाश करके परभव में दुर्गति में चले जाते हैं।
उदाहरण — चम्पापुरी के भानुदत्त सेठ और भार्या देविला के चारुदत्त नाम का पुत्र था। वह सदैव धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने में अपना समय व्यतीत करता रहता था। वहीं के सेठ सिद्धार्थ ने अपनी पुत्री मित्रवती का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया किन्तु चारुदत्त अपने पढ़ने-लिखने में इतना मस्त था कि अपनी पत्नी के पास बहुत दिन तक गया ही नहीं। तब चारुदत्त का चाचा रुद्रदत्त अपनी भावज की प्रेरणा से उसे गृहस्थाश्रम में फंसाने हेतु एक बार वेश्या के यहां ले गया और उसे चौपड़ खेलने के बहाने वहीं छोड़कर आ गया। उधर चारुदत्त ने वसंतसेना वेश्या में बुरी तरह पंसकर कई करोड़ की सम्पत्ति समाप्त करके घर भी गिरवी रख दिया। अंत में वसंतसेना की माता ने चारुदत्त को धन रहित जानकर रात्रि में सोते में उसको बांधकर विष्टागृह (पाखाने) में डाल दिया। सुबह नौकरों ने देखा कि सूकर उसका मुख चाट रहे हैं। तब विष्टागृह से निकालकर उसकी घटना सुनकर सब उसे धिक्कारने लगे। देखो! वेश्यासेवन का दुष्परिणाम कितना बुरा होता है। इसलिये इस व्यसन से बहुत ही दूर रहना चाहिए।
(५) शिकार करना
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इन्द्रिय की लोलुपता से या अपना शौक पूरा करने के लिये अथवा कौतुक के निमित्त बेचारे निरपराधी, 
भयभीत, वनवासी पशु-पक्षियों को मारना शिकार कहलाता है। भय के कारण हमेशा भागते
 हुए और घास खाने वाले ऐसे मृगों को निर्दयी लोग वैसे मारते हैं ? यह एक बड़े ही आश्चर्य की बात है! 
इस पाप के करने वाले  मनुष्य भी अनंतकाल तक संसार में दु:ख उठाते हैं।
उदाहरण — उज्जयिनी के राजा ब्रह्मदत्त शिकार खेलने के बड़े शौकीन थे। एक दिन वन में ध्यानारूढ़ दयामूर्ति मुनिराज के निमित्त से उन्हें शिकार का लाभ नहीं हुआ। दूसरे दिन भी ऐसे ही शिकार न मिलने से राजा क्रोधित हो गया और मुनिराज आहारचर्या के लिए गये, तब उसने बैठने की पत्थर की शिला को अग्नि से तपाकर खूब गरम कर दिया। मुनिराज आहार करके आये और उसी पर बैठ गये। उसी समय अग्निसदृश गरम शिला से उपसर्ग समझकर उन्होंने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया। उस गरम शिला से मुनिराज को असह्य वेदना हुई फिर भी वे आत्मा को शरीर से भिन्न समझते हुए ध्यान अग्नि के द्वारा कर्मों का नाश करके अन्तकृत्केवली हो गये अर्थात् ४८ मिनट के अंदर ही केवली होकर मोक्ष चले गये। इधर सात दिन के अंदर ही राजा को भयंकर कुष्ट हो जाने से वह अग्नि में जलकर मरकर सातवें नरक में चला गया, वहाँ से निकलकर तिर्यंचगति में दु:खों को भोगकर पुन: नरक में चला गया। देखो बालकों! शिकार खेलने का फल भव-भव में दु:ख देने वाला होता है, इसलिए इससे दूर ही रहना उचित है।
(६) चोरी करना
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बिना दिये हुए किसी की कोई भी वस्तु ले लेना चोरी है। पराये धन को अपहरण करने वाले मनुष्य इस लोक और परलोक में अनेकों कष्टों को सहन करते हैं। चोरी करने वाले का अन्य मनुष्य तो क्या, खास माता-पिता भी विश्वास नहीं करते। चोर को राजाओं द्वारा भी अनेकों दण्ड मिलते हैं।
उदाहरण — बनारस में शिवभूति ब्राह्मण था, उसने अपनी जनेऊ में वैंची बाँध ली और कहता कि यदि मेरी जिह्वा झूठ बोल दे तो मैं उसी क्षण उसे काट डालूँ इसीलिए उसका नाम सत्यघोष प्रसिद्ध हो गया था। एक बार सेठ धनपाल पाँच-पाँच करोड़ के चार रत्न उसके पास धरोहर में रखकर धन कमाने चला गया। जहाज में डूब जाने से बेचारा निर्धन हुआ सत्यघोष के पास अपने रत्न माँगने आया। सत्यघोष ने उसे पागल कहकर वहाँ से निकलवा दिया। छह महीने तक उस सेठ को रोते-चिल्लाते देखकर रानी ने युक्तिपूर्वक उसके रत्न सत्यघोष से मंगवा लिए। राजा ने सत्यघोष के लिए तीन दंड कहे—गोबर खाना या मल्लों के मुक्के खाना या सब धन देना। क्रम से वह लोभी तीनों दंड भोगकर मरकर राजा के भंडार में सर्प हो गया तथा कालांतर में अनेकों दु:ख उठाये हैं। देखो! चोरी करना बहुत ही बुरा है। बचपन में २-४ रुपये आदि की या किसी की पुस्तक आदि की ऐसी छोटी-छोटी चोरी भी नहीं करनी चाहिये।
(७) पर-स्त्री सेवन करना
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धर्मानुवूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना पर-स्त्री सेवन कहलाता है। परस्त्री की अभिलाषामात्र से ही पाप लगता है, तो फिर उसके सेवन करने से महापाप लगता ही है।
उदाहरण — एक समय श्री रामचंद्र जी, सीता और लक्ष्मण के साथ दण्डक वन में ठहरे हुए थे। वहाँ पर खरदूषण के युद्ध में रावण गया था तब उसने सीता को देखा, उसके ऊपर मुग्ध होकर युक्ति से उसका हरण कर लिया, सभी के समझाने पर भी जब नहीं माना, तब रामचंद्र ने लक्ष्मण को साथ लेकर अनेकों विद्याधरों की सहायता से रावण से युद्ध ठान दिया। बहुत ही भयंकर युद्ध हुआ।
अंत में रावण ने अपने चक्ररत्न को लक्ष्मण पर चला दिया। वह चक्ररत्न लक्ष्मण की प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। लक्ष्मण ने उस समय भी रावण से कहा कि तुम सीताजी को वापस कर दो। रावण नहीं माना, तब लक्ष्मण ने चक्ररत्न से रावण का मस्तक काट डाला, वह मरकर नरक में चला गया और वहाँ पर आज तक असंख्य दु:खों को भोग रहा है। देखो! जब पर-स्त्री की अभिलाषामात्र से रावण नरक में चला गया, तब जो पर-स्त्री सेवन करते हैं वे तो महान दु:ख भोगते ही हैं, ऐसा समझकर इन पापों से सदैव बचना चाहिये।
नपरमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि।
त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तय: क्षुद्रबुद्धीनाम्।।३२।।
केवल ये सात ही व्यसन नहीं हैं किन्तु दूसरे अन्य भी बहुत से व्यसन हैं। क्षुद्रबुद्धिजनों की सत्पथ को छोड़कर असत् मार्ग-कुत्सित कार्यों में जो भी प्रवृत्ति होती है उसी का नाम व्यसन है। भावार्थ - संसार में जो भी खोटे कार्य हैं वे ही दु:खदायी होने से ‘व्यसन’ कहलाते हैं। यहां पर सात व्यसनों में ही उन्हें गर्भित कर लेना चाहिए। जैसे कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप हैं, ये भी इन व्यसनों में गर्भित हो जाते हैं। हिंसा, चोरी, कुशील, तो स्पष्ट ही हैं, जुआरी, मांसाहारी, शराबी लोग झूठ बोलते ही हैं और इनके परिग्रह की अत्यधिक लालसा होने से ये परिग्रह का परिमाण कर ही नहीं सकते हैं। अत: जो-जो भी कार्य मोक्षमार्ग से विपरीत हैं वे सब व्यसन ही हैं फिर भी यहां जो सात की संख्या कही है वह केवल स्थूलरूप से पापों से छूटने रूप है।
सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथा स्वर्गापवर्गार्गला वज्राणि व्रतपर्वतेषु विषमा: संसारिणां शत्रव:।
प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेष्वेतेषु सद्धीधनै: कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मन:।।३३।।
ये सभी व्यसन दुर्गति में जाने के लिए मार्ग हैं-उपाय हैं, स्वर्ग और मोक्ष के द्वार को बंद करने के लिए अर्गला-बेड़ा या मोटी सी सांकल हैं, व्रतरूपी पर्वतों को खंडित करने के लिए वज्र के समान हैं और संसारी जनों के लिए विषम शत्रु हैं। ये व्यसन यद्यपि प्रारम्भ में मधुर लगते हैं फिर भी ये कटुक फल देने वाले ही हैं इसलिए यहां आत्मा का हित चाहने वाले बुद्धिमान मनुष्यों को इन व्यसनों में किंचित् मात्र भी बुद्धि नहीं करनी चाहिए।
मिथ्यादृशां विसदृशां च पथच्युतानां मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च।
सङ्गं विमुञ्चत बुधा: कुरुतोत्तमानां गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव।।३४।।
हे बुद्धिमान् जनों! यदि तुम्हें उत्तम मार्ग में ही गमन करने की इच्छा है तो तुम लोग मिथ्यादृष्टि जनों की, विपरीत धर्म वालों की, सन्मार्ग से भ्रष्ट हुए जनों की, मायावी लोगों की, व्यसनी जनों की और दुष्ट जनों की संगति छोड़ो और उत्तम पुरुषों की संगति करो।
स्रिग्धैरपि व्रजत मा सह सङ्गमेभि: क्षुद्रै: कदाचिदपि पश्यत सर्षपाणाम्।
स्नेहोऽपि सङ्गतिकृत: खलताश्रितानां लोकस्य पातयति निश्चितमश्रु नेत्रात्।।३५।।
हे बुद्धिमान पुरुषों! यदि ये मिथ्यादृष्टि आदि लोग तुम्हारे स्नेही-मित्र या संबंधी भी हों तो भी तुम कभी भी इनकी संगति मत करो। देखो! खलपने को प्राप्त-तेल निकल जाने के बाद सरसों की खल, इसके आश्रित हुए सरसों के दानों का तेल भी संगति को प्राप्त होकर निश्चित ही लोक-जनों के नेत्रों से अश्रु गिरा देता है।
भावार्थ - जिस प्रकार छोटे-छोटे भी सरसों के दानों से उत्पन्न हुए तेल के संयोग से उसकी तीक्ष्णता के निमित्त से मनुष्यों की आंखों से आंसू निकल आते हैं उसी प्रकार क्षुद्र मिथ्यादृष्टि, विधर्मी आदि जनों के प्रति स्नेह होने से मनुष्यों को इहलोक और परलोक में नाना प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते हैं तब उनके नेत्रों से दु:ख, शोक व पश्चाताप आदि के निमित्त आंसू आते ही आते हैं। यहां स्नेह के अर्थ प्रेम और तेल ऐसे दो होते हैं और खल के भी तेल का बाद में निकला निःसार भाग खल है और खल का अर्थ दुष्ट पुरुष भी है ऐसा समझना।
कलावेक: साधुर्भवति कथमप्यत्र भवने सचाघात: क्षुद्रै: कथमकरुणैर्जीवति चिरम्।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुरतया वकोटानांग्रे तरलशफरी गच्छति कियत्।।३६।।
इस लोक में कलिकाल-पंचमकाल के प्रभाव से बड़ी मुश्किल से एक दो ही साधु होते हैं। वे भी जब निर्दयी दुष्ट पुरुषों के द्वारा सताये जाते हैं तब भला बहुत दिनों तक वैâसे जीवित रह सकते हैं ? अर्थात् नहीं रह सकते हैं। जैसे कि तीक्ष्ण ग्रीष्म ऋतु में ज्येष्ठ-आषाढ़ के महिने में जब तालाब का पानी सूखने लगता है तब चोंच को हिलाकर चलने वाले बगुलों के आगे चंचल मछली भला कितनी देर तक चल सकती है ? अर्थात् बहुत जल्दी ही बगुले उसे खा जाते हैं।
विशेषार्थ - यहां जो ‘कलौ एकः साधुः भवति’ कहा है सो इस कलिकाल नामक विकराल पंचमकाल में आज भी सच्चे साधु हो सकते हैं यह स्पष्ट हो जाता है। पुनः ‘एक’ शब्द से विरलता सूचित होती है। इसका अर्थ यह नहीं समझना कि एक ही साधु होगा, प्रत्युत कम होंगे, ऐसा समझना। इस शताब्दी में भी चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज एक महान साधु हुए हैं। उनके प्रथम शिष्य व पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज हुए हैं, आदि अनेक आचार्य व साधु भावलिंगी हुए हैं और हो रहे हैं तथा अनेक आगे भी पंचमकाल के अंत तक होते रहेंगे। तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में अंत के श्री वीरांगज मुनि व सर्वश्री आर्यिका के नाम आये हैं। जो आज के मुनियों में से सभी को द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि कहते हैं वे जैन आगम से बहिर्भूत हैं ऐसा समझना चाहिए।
इह वरमनुभूतं भूरि दारिद्र्यदु:खं वरमतिविकराले कालवक्त्रे प्रवेश:।
भवतु वरमितोऽपि क्लेशजालं विशालं न च खलजनयोगाज्जीवितं वा धनं वा।।३७।।
इस संसार में दरिद्रता के बहुत भारी दुःख का अनुभव करना कहीं अच्छा है, इसी प्रकार अत्यन्त भयानक मृत्यु के मुख में प्रवेश करना-मर जाना भी कहीं अच्छा है, इससे अतिरिक्त यदि यहां और भी बड़े-बड़े कष्ट प्राप्त होते हैं, तो वे भले ही हों किन्तु दुष्ट जनों के संयोग को प्राप्त कर जीवित रहना अथवा धन का प्राप्त करना अच्छा नहीं है।
भावार्थ - यहां ऊपर के श्लोक से संबंध कर लेना चाहिए। जैसा कि पहले कहा है कि मिथ्यादृष्टि, विधर्मी, दुव्र्यसनी और दुष्ट प्रकृति वाले जनों की संगति छोड़ देनी चाहिए भले ही वे अपने स्नेही या संबंधी ही क्यों न हों क्योंकि इनके निमित्त से साधु भी अधिक दिन जीवित नहीं रह पाते हैं अतएव निर्धन रह जाना या मर जाना भला है किन्तु दुर्जन या दुव्र्यसनी के साथ रहकर बहुत दिन जीना या धनी बनना अच्छा नहीं है क्योंकि इनके संसर्ग से दुर्बुद्धि होकर दुर्गति के भाजन बन सकते हो। यहां तक गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया गया है।

BEST REGARDS:- ASHOK SHAH & EKTA SHAH
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1 comment:

  1. सात व्यसन नी बहु सरस डिटेल
    तमे सारो काम करी रहया छो ऐकता बेन

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